मंगलवार, 22 नवंबर 2022

ओ नारी ,

*

ओ नारी ,

अब जाग जा,

उठ खड़ी हो ! 

कब तक भरमाई रहेगी?

मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़,

 कब तक  दुबकी रहेगी, 

परंपरा की  खाई में ?

*

 चेत जा,

उठ खड़ी हो!  

मार्ग मत दे ,

 निरा दंभी , मनुजता का कलंक

 कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा तेरा

अहंकारी हो कितना भी .

अपने आप में क्या  है?

जान ,समझ!

 पहचान अपने को ,

सृजन  सार्थक कर !

*

किसका भय ?

तू दुर्बल  नहीं ,

तू विवश नहीं ,

तू नगण्य नहीं

धरा की सृष्टा,

निज को पहचान!

*

अतिचारों का  कैंसर,

पनप रहा दिन-दिन, 

विकृत  सड़न फैलाता  कर्क रोग.

निष्क्रिय करना होगा 

तुझे ही  वार करना होगा   ,

निरामय सृजन के

दायित्व का वास्ता !

*

 लोरी में भर जीवन-मंत्र ,

 पीढ़ियाँ पोसता आँचल का अमृत-तंत्र ,

तू समर्थ हो कर रह  ,

अपनी कोख  लजा मत !

*

 शीष उठा कर  रह

 सहज, अकुंठित स्वरूप में .

अन्यथा

 विषगाँठ का पसरता दूषण,

और धरती का छीजता तन ,

मृत पिंड सा 

 टूटता -बिखरता अंतरिक्ष में

विलीन हो जाएगा !

*


9 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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    1. अनेकानेक धन्यवाद,रवीन्द् सिंह जी ,चर्चा में सम्मिलित करने के लिए.

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  2. नारी की अदम्य शक्ति को जगाती सुंदर प्रभावशाली रचना, वास्तव में अपनी आंतरिक शक्ति को भुलाना ही उसके दुखों का कारण है

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  3. नारी को उसके अस्तित्व से परिचित कराती सुन्दर रचना

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  4. जब नारी स्वयं ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारे तो क्या किया जाय । स्वयं ही अपने आप को छलती है । आदमी साहसी होते हुए भी निर्मम अत्यचारों के सामने घुटने टेकती है ।।

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  5. नारी मन के भाव को बखूबी उकेरा है आपने। नारी विमर्श पर उत्कृष्ट रचना ।

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