बुधवार, 30 नवंबर 2011

अक्षरित


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एक  जीवन्त रचना -
नव - नीड़ ,
चिड़ी-चिड़ा - सहचरी-सहचर .
अथक श्रम
रात-दिन,दिन-रात
दौड़ते-भागते श्रम के पहर !
काल - बिरछ की  टहनी पर
जमा लिया चुन-चुन, तिन-तिन
आस- विश्वास की  डोरियों से बाँधं,
नेह-मोह लिपटे आस के रेशों से
 एक संसार !
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बरसा-बूँदी के घात,
हवाओं की बिखेर झेलते
सेते रहे हिरण्यगर्भी कल्पनायें ,
कि नीड़ से आगे  खुले आकाश में
उड़ेंगे ये  हमारे संस्करण !
पुरी आस ,सफल प्रयास,
खुली दिशायें ,
नये आकाश ,नयी बातास !
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ऋतुयें आयें-जायेंगी ,
पुराने पात जगह देंगे कि
नई बहार खिलती रहे !
नये अवतरण,
होते रहेंगे बारंबार
वही  नेह जतन !
लघु-लघु अँकनों में ,
एक ही कथा के
आगे के प्रकरणों जैसे .
अध्याय पर अध्याय ,
पंक्ति-बद्ध   ,
अनवरत-अविरल ,अनुक्रम !
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बिखेर तिनके पुराने
काल - क्रम में चक्कर काटते
उड़ जाएंगे चिड़ा-चिड़ी ,
जीवन की चिर-नव्यता
का पाठ फिर-फिर दोहराने !
सृष्टि की महागाथा के
अक्षरित सम में .
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रविवार, 13 नवंबर 2011

वृन्दावन- धाम.


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रे मन,चल वृन्दावन- धाम !
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जहँ निचिंत, गत शोक-मोह ,व्यापे न कुमति -अज्ञान ,
घिरें न बोझिल मेघ ,तपन के मौसम घिरें न आन !
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भटक-भटक कर थकी देह औ' सधा न कौनो काम ,
कोई न स्वजन ,अजाना हर जन ,ऐसे  जग हिं प्रणाम !
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जहां न दुख का लेश ,थकित तन को अनंत विश्राम ,
शंका  ग्रसै,  न डसै भीति ,चल रे, उहि लोक ललाम !
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