बुधवार, 18 नवंबर 2015

साँझ - चिरैया.


साँझ-चिरैया उतरती अपने पंख पसार,
जल-थल-नभ में एक सा कर अबाध संचार.
मुट्ठी भर-भर कर गगन दाने रहा बिखेर,
 उड़ जायेगी देखना चुन कर बड़ी सबेर.
श्यामल देह पसार कर रचती रूप अपार
 सब पर टोना कर रही मूँद दिशा के द्वार.
आँखों में भर मोहिनी सभी ओर से घेर,
डाली  माया नींद की फैला कर अँधेर .
 तम के पट में रात भर चलता वामाचार,
 अंजलि भर भर छींटती शाबर मंत्र उचार.

 कामरूपिणी भैरवी, विचरे परम स्वतंत्र
रही साधती पूर कर चक्र, अघोरी तंत्र.
भ्रष्ट योगिनी भटकती धरती के हर छोर
 फेरा देती नित्य ही, टिकती किसी न ठौर  .
मोहन-मारण साधती, करती नये प्रयोग
रातों की चादर तले नित नवीन संजोग. 
मुँह लटका, हतप्रभ हुआ मौन रहा है हेर ,
सारा  आँगन छोड़, जा बैठा चाँद मुँडेर !

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

कुछ लोकरंग देवी को अर्पण -

*
मइया पधारी मोरे अँगना,
मलिनिया फुलवा लै आवा,
*
ऊँचे पहारन से उतरी हैं मैया,
छायो उजास जइस चढ़त जुन्हैया.
रचि-रचि के आँवा पकाये ,
 कुम्हरिया ,दीपक के आवा.
*
सुन के पुकार मइया जाँचन को आई  ,
खड़ी दुआरे ,खोल कुंडी रे माई !
वो तो आय हिरदै में झाँके ,
घरनिया प्रीत लै के आवा ,
*
दीपक  कुम्हरिया ,फुलवा  मलिनिया   ,
चुनरी जुलाहिन की,भोजन किसनिया.
मैं तो  पर घर आई - 
दुल्हनियाँ के मन पछतावा.
*
 उज्जर हिया में समाय रही जोती .
रेती की  करकन से  ,निपजे रे   मोती.
काहे का सोच बावरिया,
मगन मन-सीप लै के आवा !
हिया जगमग हुआ जावा !
*



सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

अन्तर -

(यह कविता आप सबसे शेयर करना चाहती हूँ -
 रचनाकर्त्री को आभार सहित - प्रतिभा.)

*
    हम भिंचे हैं दो पीढ़ियों के बीच
    बुरी तरह ।


    पुरानी पीढ़ी की आशाओं को फलीभूत करने में
    बिता दी उम्र सारी ।
    उनके आदेशों को शिरोधार्य करते रहे ,
    जीते रहे ,लगभग जैसा चाहा उन्होंने ।
      भागीदार बनाया उन्हें जीतों में , हारों में ।

*
      पर आज का ये धर्म-संकट !
      दिखाता है कुछ नया रंग,  नया ख़ून ।
      नई माँगें , नये मानदण्ड,
      कुछ उचित , कुछ अनुचित ।

      एक बड़ा सा प्रश्नचिह्न , प्रतिक्षण , प्रतिपल
      मुँह फाड़े खड़ा है ।

*
    
      नीवें  हिलने सी लगी हैं ।
      क्या घर को बनाए रखने के लिये
      हम समझौते ही करते जाएँगे ?
      हाय ! कैसी विडम्बना है यह भाग्य की ?
                    *******
                              पुष्पा सिंह राव
                                      मुम्बई

   

शनिवार, 19 सितंबर 2015

अनंग गंध

गंध-मुग्ध मृगी एक निज में बौराई,
विकल प्राण-मन अधीर भूली भरमाई .
कैसी उदंड गंध मंद नहीं होती,
जगती जो प्यास ,पल भर न चैन लेती .
*
भरमाती-भुलाती सभी भान डुबा लेती,


गुँजा रही प्राण मन  एक धुन अनोखी 
 मंत्रित-सी भाग चली  ,शूल-जाल घेरे ,
कौन दिशा ,कौन दशा, कौन पंथ हेरे !
*


रुक-रुक के टोहती ,ले घ्राण पवन झोंके
शायद वह उत्स बना केन्द्र यहीं होवे.
एक ही अबंध-गंध रह रह के टेरे
मोह-अंध  दिशा-भूल फिर-फिर दे फेरे .
*
चले आ रहे अमंद झोंक कस्तूरी
कैसी ये खोज कभी हो न सके  पूरी ,
चैन नहीं ,नींद नहीं, थिर न मन कहीं रे ,
कैसी उतावल पग पड़े नहीं धीरे .
*
एक अकुलाहट हर साँस-साँस घेरे
हरिनी री , जाने ना जो दुरंत घेरे .
ये अनंग गंध  नहीं कहीं त्राण देगी ,
रूँधेगी बोध सभी, खींच प्राण लेगी !
*
गंध की तरंग किये सभी भान गूँगे
बावली री रुक जा, निज घ्राण कौन सूँघे .
पाने की चाह कभी हुई कहाँ पूरी,
सारी ही खोज रह जायगी अधूरी !
*

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

रिश्ते .


*
जीवन भर रिश्ते ही तो जिये हैं !

इसी गोरखधंधे में घूमते ,
किससे ,कैसे ,कहाँ ,क्यों ,
सोचते- समझते ,
भूल गई
 निकलने का रास्ता किधर है .
*
 उत्सुकता भर  कभी
 झाँक लिया बाहर -
कहीं-कहीं वाली खिड़कियों से .
रहने-बसने को यही कुठरियाँ -
कुछ इधर ,कुछ उधर !
*
स्त्री है ,
उच्छृंखल न हो जाए .
धरे रहो जुआ संबंधों का !
निभाती रहे
तरह-तरह के  रिश्तोंवाली ड्यूटी.
रहेगी व्यस्त-लस्त ,
और कुछ सोचे बिना
बिता देगी जीवन.
*
'तुम हो माता  ,तुम बहन'
ज़ोरदार  गुन-गौरव गान,
प्रशंसा का अवदान ,
बस ,अनुकूल रहे तक !
अन्यथा गा दो
अपना 'तिरिया-चरित्तर पुराण' !
*
स्त्री - एक साधन !
 जरूरतें  तुम्हारी ,तुम्हारा मन
निभायेगी हर तरह
जाएगी कहाँ,
है कहीं ठौर रहने को ?


*
सावधान !
 छूट मत दो इतनी कि
अपने लिए जीने का  ,
मुक्त धारा सी
अबाध बहने का ,
शौक  पाल ले;
 व्यक्ति के रूप में कहीं
 स्वयं को  न पहचान ले !
*

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

ओ,चरवाहे


ओ,चरवाहे ! सँग-सँग मुझे लिए चल.
*

 घंटी गले बाँध दी ऐसी ,छन-छन भान जगाए  ,
तेरे आँक छपे माथे पर, बाकी कौन उपाए .
हेला दे, ले साथ .कहीं यों रह न जाउँ मैं एकल !

*
अंकुश बिन ,पगहे बिन, भरमा पशु तेरा मनमाना,
पहुँच वहीं तक गुज़र वहीं पर, तेरी घेर ठिकाना ,
 रेवड़ की गिनती में अपनी,तू ही हाँक लिए चल !

*
लौट रहे पग  घूल उड़ाते, संझा धुंध बिखेरे ,
अपने खूँटे गड़े जहाँ पर उसी छान में तेरे  .
 रे अहीर , इस छुट्टेपन को तू सँभाल, दे संबल !

 सँग-सँग मुझे लिए चल !
*

मंगलवार, 3 मार्च 2015

हारा नहीं है ..

*
रथ के टूटे पहिये से 
 कब तक लड़ोगे वसुषेण?
*
कवच-कुंडल हीन लड़ रहा है वह.
हार नहीं मानेगा ! 
मृत-पुत्र हित मातृत्व  जाग उठा कुन्ती का
विक्षत  देह गोद में भर ली .
जीवन भर  तरसा था  जिसके लिए मन, 
 बोधहीन तन को नहीं ग्रहण !
*
वह नहीं है अब !
होता तो कहता -
 नहीं चाहिये तुम्हारी  करुणा,
 व्यर्थ पड़ी रहेगी .
 लौटा ले जाओ ,
 बाँट देना उन सब को !
*
अब यहाँ  नहीं है ,
पर वह मरा नहीं है .
 ऐसे पुरुष कभी नहीं मरते !
वह हारा नहीं ,
अन्याय का मारा है -
थक कर रणभूमि में सो गया है!
*


गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

वो रस्सी कहाँ है जिस पे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हँसते हुए झूले थे?




On Feb 19, 2015, at 12:34 AM, Mcabani wrote:
 Fwd: A Hindi poem on Modi -

*
             67 साल पहले एक गुजराती
        ने देश को अंग्रेजों से मुक्त
        किया था.....
       अब 67 साल बाद एक गुजराती
        ने देश को कांग्रेस से मुक्त
         किया है......
         पहले वाला गुजराती 'नोटो' पर
        छा गया,
         अभी वाला गुजराती 'वोटों' पर
       छा गया..
        ऐ दोस्त खिडकियाँ खोल
         के देखने दे मुझे....... .


       मेरे वतन की नई तस्वीर बन
        रही है.......
        आज भारत फिर से आज़ाद
         हुआ...... पहला इंग्लैंड की
        रानी से..... और आज
         " इटली की नौकरानी " से.....
        जो पढ़ सके न खुद, किताब माँग रहे है,
         खुद रख न पाए, वे हिसाब माँग रहे है।
         जो कर सके न साठ साल में कोई विकास देश का, 

        वे साठ दिनों  में जवाब माँग रहे है।
        आज गधे गुलाब माँग रहे है, चोर लुटेरे इन्साफ़ माँग रहे है।
        जो लूटते रहे देश को 60 सालों तक,
       जब 3 महीनों में पेट्रोल की कीमतें 7 रुपये तक कम हो जायें ,
        जब 3 महीनों में डॉलर 68 से 60 हो जाये,
       जब 3 महीनों में सब्जियों की कीमतें कम हो जायें ,
        जब 3 महीनों में सिलिंडर की कीमतें कम हो जाये,
        जब 3 महीनों में बुलेट ट्रैन भारत में चलाये जाने को 

सरकार की हरी  झंडी मिल जाये,
         जब 3 महीनों में पाकिस्तान को एक करारा जवाब दे दिया जाए,
         जब 3 महीनों में भारत के सभी पड़ोसी मुल्कों से रिश्ते सुधरने लग जाये,
         जब 3 महीनों में हमारी हिन्दू नगरी काशी को स्मार्ट सिटी

  बनाने जैसा प्रोजेक्ट पास हो जाये,
         जब 3 महीनों में विकास दर 2 साल में सबसे ज्यादा हो जाये,
         जब हर गरीबों को उठाने के लिए जन धन योजना पास हो जाये.
         जब इराक से हजारों भारतीयों की सही सलामत वतन वापसी हो ये!
        तो भाई अच्छे दिन कैसे नहीं आये???
         वो रस्सी आज भी संग्रहालय में है जिससे गांधी बकरी बाँधा करते थे
         किन्तु वो रस्सी कहाँ है जिस पे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु           हँसते हुए झूले थे?
         हालात-ए-मुल्क देख के रोया न गया,
         कोशिश तो की पर मूँह ढक के सोया न गया
         देश मेरा क्या बाज़ार हो गया है ...
        पकड़ता हूँ तिरंगा तो लोग पूछते है कितने का है ?..
         वर्षों बाद एक नेता को माँ गंगा की आरती करते देखा है,
        वरना अब तक एक परिवार की समाधियों पर फूल चढ़ते देखा है।
        वर्षों बाद एक नेता को अपनी मातृभाषा में बोलते देखा है,
        वरना अब तक रटी रटाई अंग्रेजी बोलते देखा है।
        वर्षों बाद एक नेता को Statue Of Unity बनाते देखा है,
        वरना अब तक एक परिवार की मूर्तियाँ बनते देखा है।
       वर्षों बाद एक नेता को संसद की माटी चूमते देखा है,
        वरना अब तक इटैलियन सैंडिल चाटते देखा है।
        वर्षों बाद एक नेता को देश के लिए रोते देखा है,
         वरना अब तक "मेरे पति को मार दिया" 

        कह कर वोटों की भीख मांगते देखा है।
        पाकिस्तान को घबराते देखा है,
         अमेरिका को झुकते देखा है।
      इतने वर्षों बाद भारत माँ को खुलकर मुस्कुराते देखा है।
         ***************************

- Mcabani.

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

मैं तुम्हारा शंख हूँ !

*
ज्योति से करतल,
 किरण सी अँगुलियों में
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
तुम फूँक भर-भर कर बजाओ !
नाद की झंकार हर आर्वत में भर 
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच जगाओ!

*
परम-काल प्रवाह का बाँधा गया क्षण
तुम्हीं से होता स्वरित मैं सृष्टि स्वन हूँ,
मैं तुम्हारी दिव्यता का सूक्ष्म कण हूँ !
महाकाशों में निनादित आदि स्वर का,
दश दिशाओं में प्रवर्तित गूँजता रव
हो प्रकंपित, अंतरालों में समाये शून्य भर भर !
पंचभौतिक काय में निहितार्थ धारे ,
मैं तुम्हारी अर्चना का लघु कलेवर!

*

फूँक दो वे कण, कि हो जीवन्त मृणता
इस विनश्वर देह में वह गूँज भर दो .
पंचतत्वों के विवर को शब्द दे कर,
आत्म से परमात्म तक संयुक्त कर दो ,
सार्थकत्व प्रदान कर दो !
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
स्वर दे बजाओ !
*
उस परम-चैतन्य पारावार की चिरमग्नता से,
किसी बहकी लहर ने झटका किनारे
और अब -
इस काल की उत्तप्त बालू में 
अकेला आ पड़ा हूँ !
उठा लो कर में-
मुझे धो स्वच्छ कर दो ,
भारती माँ , वेदिका पर स्थान दे दो !
फूंक भर भर कर बजाओ आरती में ,
जागरण के मंत्र में
अनुगूँज मेरी भी मिलाओ !
*
मैं ,तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण ,
मैं ,तुम्हारा शंख हूँ,
तुम फूँक भर-भऱ कर बजाओ !
मैं तुम्हार अंश हूँ ,
वह दिव्यता स्वर में जगाओ !
***
(पूर्व-रचित)

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मकर संक्रान्ति -एक चित्र.


*
बड़े दिनों बाद  पंथी आकाश का ,
उत्तर की  देहरी-घर  आ गया 
 रात लग गई  समेटने में सियाह पट
 दिनमान ठाठ से गगन-पट पे छा गया .
*
काँपती दिशाओं के हाथ-पाँव खुले और
कोहरे की चादर उतार मुख धो लिये,
बहुतै दिनन बाद फिर अइसा  लगा
जइस
 अड़ी हुई ठिठुरन ने दाँव सभी खो दिये!
*
 धुले-धुले आंगन चमक के गमक गये ,
सोंध सूँघ ,नये-नये चाउर की -सीझ से.
परसी हुई थाली में भाप भरी खीचरी ,
ऊपर जो
छोड़ दिया चमचा भर  नेह से-
*
 कन-कन पिघलता समाता-सुहाता रहा
गैया के दूध का सुनहरा रवेदार घी
लगे अइस अमरित के छींट बिखरा गया,
भरा चाव- तोष देख हो गया निहाल- जी .
*
कोरी हँडिया के दही में भीगते बरे,
हींग-ज़ीर-सोंठ  भरी  भावना  लुभा रही
छींट लाल-मिरच देख देख चटपटाय मन
खापें दुइ लाय धरीं आम  के अचार की ,
*
ताज़ी, खेत की सफ़ेद नरम पात मूलियाँ
 आँच- भुने प्लेट  धरे पापर  भी चुरमुरे 
जीभ  कुरकुराय भुरभुराय आस्वाद लेत 
धनिये की हरी-हरी चटनी और सेंत में!
*
लाय धरा तल अंगार, मंसने के हेत जल 

 देव अगनी को अरप देहु भोग अन्न का
साथ तिल-गुड़ का पाक भी प्रसन्न मन
परसाद बन जाय  पोसक  कुटुम्ब का
*
 सारे  हाथ-पाँव हाय,तिलकुट की चूर से
न्हाये-धोये बच्चों ने कइस चिपचिपा लिए
उधर अजिया ने उठा लड्डू-गुपाल भी
 देखो दही-खीचरी आरोगने बिठा लिए
 *

दौड़ो रे दौड़ो खिचड़िया सने हाथ से 
अरे गोलू ने मेरे गुपलू उठा लिये
ठैर बज्जुरी रे ठैर,महा-उत्पातिया
न्हाये-धोये  ठाकुर रे, तूने जुठा दिये .
*

 लड्डू-गुपाल चुपैचाप मुस्कराय रहे
खाय-खेल रहे छोट बच्चन के साथ ही
आज इस आँगन में सूरज उगा नया ,
हँसी-खिली धूप सी दिवार तक जा बिछी !
*

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

कार्टूनिस्ट !

ओ कार्टूनिस्ट !
नमन करती हूँ तुम्हारी  दृष्टि को !
तुम्हारी दृष्टि-
बड़े गहरे पैठ ,खींच लाती है विसंगतियाँ .
सबको सिंगट्टा दिखाती चिढ़ाती ,
टेढ़े होंठों मुस्कराते  ,
भीतरी तहें तक उघाड़ जाती है
कटाक्षभरे व्यंग्य सी  तीखी और तुर्श!

दुनिया एक व्यंजना है तुम्हारे लिए  .
 जहाँ बेतुकापन छिपने के बजाय ,
 उभर आता है 
 कुछ श्वेत-श्याम अंकनों में .
 सच को उजागर करने की कला ,
और विचित्र रूपाकारों की मुखर भंगिमा 
 कोई  तुमसे  सीखे !
सचमुच -
सच  होता ही ऐसा है!

ऐसा ही अनोखा, अनभ्यस्त, अतर्क्य!
*