शनिवार, 26 दिसंबर 2009

वहाँ हरगिज़ नहीं जाना

जहां के लिये उमड़े मन वहाँ हरगिज़ नहीं जाना
न आओ दिख रहा लिक्खा जहाँ के बंद द्वारों पर
फकत बहुमंजिलों की भीड़ में सहमा हुआ सा घर
खड़े होगे वहां जाकर लगेगा कुयें सा गहरा
ढका जिस पर कि बस दो हाथ भर आकाश का टुकड़ा ,
हवायें चली आतीं मन मुताबिक जा न पाती हो
सुबह की ओस भी तो भाप बन फिर लौट जाती हो
नये लोगों ,नई राहों ,नये शहरों भटक आना ,
पुराने चाव ले पर उस शहर हरगिज़ नहीं जाना
*
घरों में गुज़र मत पूठो कि पहले ही जगह कम है ,
ज़रा सी बात है यह तो, हुई फिर आंख क्यों नम है
किसी पहचान का पल्ला पकड़ना गैरवाजिब है ,
किसी के हाल पूछो मत, यहाँ हर एक आजिज़ है
वहां पर जो कि था पहले नहीं पहचान पाओगे
निगाहें अजनबी जो है उन्हें क्या क्या बताओगे !
बचपना भूल जाना सदा को मत लौट कर जाना,
कि मन को अन्न-पानी चुक गया उस ठौर समझाना
*
बदलती करवटों जैसी सभी पहचान मिटजाती
यहाँ तो आज कल दुनिया बड़ी जल्दी बदल जाती
रहोगे हकबकाये से कि उलटे पाँव फिर जाये
कि चारो ओर से जैसे यही आवाज़ सी आये ,
अजाना कौन है यह क्यों खड़ा है जगह को घेरे
पराया है सभी ,अपना नहीं कुछ भी बचा है रे !
वहाँ कुछ भी नहीं रक्खा लगेगा अजनबी पन बस
यही बस गाँठ बाँधो फिर वहाँ फिर कर नहीं जाना
*
पुरानेी डगर पर धरने कदम हरगिज़ नही जाना !
बज़ारों में निकल जाना ,दुकाने घूम-फिर आना
कहीं रुक पूछ कर कीमत उसे फिर छोड़ बढ़ जाना ,
बज़ारों का यहां फैलाव कितना बढ़ गया देखो ,
दुकानों में नहीं पहचान .स्वागत है सभी का तो
दुबारा नाम मत लेना कि चाहे मन करे कितना
वहां कुछ ढूँढने अपना न भूले से निकल जाना !
बचा कर आँख अपनी उन किनारों से निकल जाना
*
नयों के साथ धुँधला - सा,न जाने क्या सिमट आता !
वहाँ अब कुछ नहीं है ,सभी कुछ बीता सभी रीता ,
हवा में रह गया बाकी कहीं अहसास कुछ तीखा ।
गले तक उमड़ता रुँधता , नयन में मिर्च सा लगता
बड़ा मुश्किल पड़ेगा सम्हलना तब बीच रस्ते में
लिफ़ाफ़ा मोड़ वह सब बंद कर दो एक बस्ते में
समझ में कुछ नहीं आता मगर आवेग सा उठता ।
घहरती ,गूँजती सारी पुकारों को दबा जाना ! वहाँ हर्गिज़...
*
अगर फिर खींचेने को चिपक जाये पाँव से माटी
छुटा दो आँसुओं से धो नदी तो जल बिना सूखी
महक कोई भटकती ,साँस में आ कर समा जाये
किसी आवाज़ की अनुगूँज कानो तक चली आये
हवा की छुअन अनजानी पुलक भर जाय तन मन में
हमें क्या सोच कर यह टाल देना एक ही क्षण में
समझना ही नहीं चाहे अगर मन ,मान मत जाना !
तुम्हारा वह शहर उजड़ा वहाँ हर्गिज़ नहीं जाना
नई जगहें तलाशो ,सहज ग़ैरों में समा जाना !
*
वहां बिल्कुल नहीं जाना ,वहां हरगिज़ नहीं जाना ,
*

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

यहाँ बस हूँ

यहाँ दिन है वहाँ तो रात होगी !
नयन भर स्वप्न की माया तुम्हारे साथ होगी !
*
यहाँ तो धूप इतनी सिर उठाने ही नहीं देती ,
नयन को किसाकिसाती उड़ रही है किरकिरी रेती
वहाँ तो चाँदनी की स्निग्ध-सी बरसात होगी
*
इधर की हवा कुछ बदली हुई बेचैन लगती ,
किरण इन मरुथलों में भटकती सी भरम रचती ,
वहाँ विश्राम होगा , चैन की हर सांस होगी .
*
बने हर बात का तूफ़ान, मन बस चुप अकेला ,
दिखाई दे रहा बस ,दूर तक सुनसान फैला ,
यहाँ बस हूँ ,वहाँ तो साथ होगा दोस्ती आबाद होगी .

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

विश्वशान्ति -

थम गई हैं विश्व की आँखें ,
यहीं इन्सानियत की क्षीण साँसें चल रही हैं !
प्रति निमिष के सात युग पलकें उठाता
डोलता विश्वास आँखें जल रही हैं !
आज मानवता सिहरती ,
आज जीवन ले रहा निश्वास गहरी,
आज अंबर पूछता मैं किस प्रलय का मंच हूँ ,
यह शून्य की आँखें बनी हैं आज प्रहरी !
आज सिसकी भर रही संस्कृति
सृष्टि का उल्लास बेसुध सा पडा है ऍ
स्वयं मानव के करों में प्रलय है ,
सृष्टा स्वयं विस्मित खडा है !
*
दीप धरा के बुझ जायेंगे ,
जलने की अंतिम सीमा के पार क्षार ही शेष बचेगी ,
विश्व-शान्ति का व्यंग्य रूप ,
मानवता की सीमाओं का उपहास उडाती ,!
और प्रकृति के हाथ उठायेंगे मानवता का शव !
नीर ढालता दैन्यभरा सृष्टा का वैभव !
कफन बनेगी क्षार और श्मशानभूमि होगी यह धरती !
उस अथाह नीलाभ गगन से बरसेंगे दो बूँद
कि ले कर कौन चले जीवन की अर्थी !
मौन,शान्,निष्प्राण धरा पर तब ,सुरमय ये गान न होंगे !
धरती का वह रूप कि जिसमें
पतन और उत्थान न होंगे १
तारों का वह लोक धरा को विस्मित सा होकर ताकेगा !
मानवता के चिर प्रयाम के बाद ,
निर्जन ,निर्जीवन ,भू-तल का वृत्त शून्य चक्कर काटेगा !
*

ऐसा क्या दे दिया

ऐसा क्या दे दिया सभी हो गया अकिंचन
दुनिया के वैभव सुख के मुस्काते सपने ,
मदमाता मधुमास टेरती हुई हवायें
सबसे क्या तुमने नाते जोडे थे अपने !
हास भरा उल्लास और उत्सव कोलाहल ,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता ,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में
उस रीतेपन मैं भी कोई ठहर न पाता !
रँगरलियाँ रंगीन रोशनी की तस्वीरें ,
दिखती हैं लेकिन अनजानी रह जाती हैं !
और कूकती हुई बहारें जाते-जाते
इन कानों में कसक कहानी कह जाती हैं !
जाने क्या दे दिया कि सपना विश्व हो गया ,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता ,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में ,
पर इस रीते पन में कोई ठहर न पाता !

तुमने कुछ दे दिया नहीं जो छूट सकेगा ,
और करेगा सभी तरफ से मुझको न्यारा !
रह-रह कर जो इन प्राणो को जगा रहा है
बन करके मुझमें अजस्र करुणा की धारा !
सारी रात जागती आँखों के पहरे में ,
ऐसी क्या अमोल निधि धर दी मेरे मन में ,
छू जिसको हर निमिष स्वयं में अमर हो गया ,
और बँध गया जीवन ही जिसके बंधन में !

तुमने क्यों दे दिया अरे मेरे विश्वासी ,
जब लौटाने मुझमें सामर्थ्य नहीं थी!
जान रहा मन आज कि सौदागर की शर्तें ,
लगती थीं कितनी लेकिन बेअर्थ नहीं थीं !
उलझा सा है जिसको ले मेरा हरेक स्वर ,
जाने कितनी पिघलानेवाली करुणाई
तुमने वह दे दिया कि मन ही जान रहा है ,
मेरे मानस को इतनी अगाध गहराई !
अपने में ही खोकर जो तुमसे पाया है ,
अस्पृश्य है कालेपन से औ'कलंक से ,
बहुत-बहुत उज्ज्वल है ,पावन है ,ऊँचा है ,
रीति -नीति की मर्यादा से पाप पंक से !
ऐसा कितना बडा लोक तुमने दे डाला ,
जहाँ नहीं चल पाता मेरा एक बहाना .
जिसके कारण मैं सबसे ही दूर पड गई ,
बुनते हरदम एक निराला ताना-बाना !
ऐसा क्या दे दिया कि सम्हल नहीं पाती हूँ ,
कह जाती सब ले गीतों का एक बहाना !
फिर भी मन का मन्थन ,कभी नहीं थम पाता ,
नींद और जागृति का भी प्रतिबन्ध न माना !
सचमुच इतना अधिक तुम्हारा ऋण है मुझ पर,
जनम-जनम भर भर भी उऋण नहीं हो पाई ,
इसीलिये चल रही अजब सी खींचा तानी ,
जब तक शेष न होगी पूरी पाई-पाई !
इतना क्या दे दिया कि जिससे बाहर आकर,
लगता सबकुछ सूना औ' सबकुछ वीराना ,
मेरा सारा ही निजत्व जिसने पी डाला ,
शेष सभी को कर बैठा बिल्कुल वीराना !
आँचल स्वयं पसार ले लिया सिर आँखों धर ,
अब लगता है बहुत अधिक व्याकुलता पाली ,
चैन न पाये भी बिन पाये और नहीं था ,
एक धरोहर तुमने मुझे सौंप यों डाली !

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

याचना.

तपा-तपा कर कंचन कर दे ऐसी आग मुझे दे देना !
सारी खुशियाँ ले लो चाहे,तन्मय राग मुझे दे देना !
*
मेरे सारे खोट- दोष सब ,लपटें दे दे भस्म बना दो ,
लिपटी रहे काय से चिर वह ,बस ऐसा वैराग्य जगा दो !
रमते जोगी सा मन चाहे भटके द्वार-द्वार बिन टेरे ,
तरलित निर्मल प्रीति हृदय की बाँट सकूँ ज्यों बहता पानी ,
जो दो मैं सिर धरूं, किन्तु विचलन के आकुल पल मत देना
*
सारे सुख सारे सपने अपनी झोली में चाहे रख लो,
ऐसी करुणा दो अंतर में रहे न कोई पीर अजानी !
सहज भाव स्वीकार करूँ हो निर्विकार हर दान तुम्हारा,
शाप-ताप मेरे सिर रख दो ,मुक्त रहे दुख से हर प्राणी !
जैसा मैंने पाया उससे बढ़ कर यह संसार दे सकूँ ,
निभा सकूँ निस्पृह अपना व्रत बस इतनी क्षमता भर देना !
*
आँसू की बरसात देखना अब तो सहा नहीं जायेगा ,
दुख से पीड़ित गात देख कर मन को धीर नहीं आयेगा !
इतनी दो सामर्थ्य व्यथित मन को थोड़ा विश्राम दे सकूँ
लाभ -हानि चक्कर पाले बिन मुक्त-मनस् उल्लास दे सकूँ
सुख -दुख भेद न व्यापे ऐसी लगन जगा दो अंतर्यामी ,
और कहीं अवसन्न मनस्थिति डिगा न दे वह बल भर देना !
*
ऐसी संवेदना समा दो हर मन , मन में अनुभव कर लूं
बाँटूँ हँसी जमाने भर को अश्रु इन्हीं नयनों में धर लूं !
हँसती हुई धरा का तल हो जग-जीवन हो चिर सुन्दरतर !
हो प्रशान्त , निरपेक्ष-भाव से पूरी राह चलूँ मन स्थिर !
सिवा तुम्हारे और किसी से क्या माँगूँ मेरे घटवासी ,
जीवन और मृत्यु की सार्थकता पा सकूँ यही वर देना !
*
दो वरदान श्रमित हर मुख पर तृप्ति भरा उल्लास छलकता
निरउद्विग्न हृदय से ममता ,मोह ,छोह न्योछावर कर दो !
अंतर्यामी ,विनती का यह सहज भाव स्वीकार करो तुम,
उसके बदले चाहे मेरी झोली अनुतापों से भर दो !
मेरे रोम-रोम में बसनेवाले मेरे चिर-विश्वासी,
हर अँधियारा पार कर सकूँ मुझको परम दीप्त स्वर देना !
*

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

ओ,अंतर्यामी

मैंने क्या किया ?
कुछ नहीं किया मैंने ,तुम अर्जुन ,तुम दुर्योधन ,
द्रौपदी अश्वत्थामा और व्याध भी तुम्हीं !
सूत्रधार और कर्णधार सब कुछ तुम्ही तो हो
तुम्ही ने रचा सारा महाभारत
और झेलते रहे सारे शाप ,संताप ,
सबके हृदय का उत्ताप !
*
मुझसे क्या पूछते हो मेरे कर्मों का हिसाब !
सब पहले ही लिख चुके थे तुम
एक एक खाना भर चुके थे !
मुझे ला छोड़ा बना कर मात्र एक पात्र ,
अपने इस महानाट्य का ,ओ नटनागर !
मुझे तो पूरी इबारत भी पता नहीं थी ,न आदि न अंत !
एक एक वाक्य ,थमाते गये तुम
पढ़ती गई मै !
*
निमित्त मात्र हूँ मैं तो !
रखे बैठे हो पूरी किताब!
अब पूछो मत !
नहीं ,
नहीं दोहरा पाऊँगी अब !
*
ओ,अंतर्यामी ,
छोड़ दिया है मैंने
अपने को तुम्हारे हाथों में !
पूछो कुछ मत,
जो चाहो ,करो !

बुधवार, 4 नवंबर 2009

धरोहर -

शताब्दियाँ फटक-पछोर कर सँवारती रहीं जिसे,
युग-युगान्तर ठोंकते-बजाते परखते रहे ,
कसी जाती ,निखरती रही
निरंतर नये परिवेश के साथ,
और लोकमन चंदन- सा माथे चढाये रहा ,
दिग्दिगन्त महक उठता जिस सुवास से ,
पाई है हमने जो धरोहर ,
- हमारी संस्कृति !
अगली पीढ़ी को सौंपे बिना
शान्ति कहाँ ,मुक्ति कहाँ !
*
एक ही कथा है
जिसके भन्न-भिन्न पात्र हैं हम ।
एक ही विरासत !
और यहाँ भी सारा हिन्दुस्तान सिमट आया ,
धारे अपना वहीं वेष !
*
यहाँ भी -
दुर्गा - लक्ष्मी और गणपति रुचिपूर्वक रचनेवाली ,
और समारोह पूर्वक विसर्जित करनेवाली
अपने देश की माटी हर बरस जता जाती -
जीवन-मृत्यु दो छोर हैं
समभाव से ग्रहण करो !
सृजन को जीवन का उल्लास
और विसर्जन को उत्सव बनाना ही
है -जीवन का मूल राग !
*
यहाँ की चकाचौंध जिसे भरमा ले दौड़ती भागती बिखरन ही उसके हाथ
आई , तृप्ति तो मुझे कहीं नज़र नहीं आती ।
इस नई दुनिया की ,आँखों को चौंधियाती चमक देखो, कितने दिन की
पर सहस्राब्दियों की कसौटी पर कसी
पुराने की अस्लियत अंततः सामने आ ही जाती है ।
पर जीवन का जो अंश वहाँ छोड़ आये
उसकी कमी हममें से किसे नहीं सताती ।
कभी अकेले में ,
किसकी आँख नहीं भऱ आती ।
*
जब यहाँ होती हूँ ,
अपना देश चारों ओर देख लेती हूँ ,
और वही दृष्टि इन सब आँखों में देख
एक गहरा संतोष मन को आश्वस्ति से भर जाता है ।
*

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

किरातिन

किस किरातिन ने लगा दी आग ,
धू-धू जल उठा वन !

रवि-किरण जिसका सरस तल छू न पाई
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से !
पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो ,
हो उठे मृदु श्याम वर्णी ,
वही वन की नेह भीगी धरा , ओढे है अँगारे !
जल रही है घास दूर्वायें कि जिनको
तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे
.भस्म हो हो कर हवाओं में समाये !
जल गये हैं तितलियों के पंख , चक्कर काटते भयभीत, खग,
उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़,करते रोर
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से !

और सर्पिल धूम लहराता गगन तक !
वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें ,
धूम के पर्वत उठे ,
लपटें लपेटे ,शाख तरु की ,फूल फल पत्ते निगलती !
भुन रहे जीवित विकल चीत्कार करते जीव ,-
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक !
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तत शिखायें वहि की
लपलप अरुण जिहृवा पसारे ,कर रहीं पीछा निरंतर !
और हँसती है किरातिन ,
जल रहा वन खिलखिलाती है
किरातिन !

मीराँ.

ओ, राज महल की सूनी सी वैरागिन ,
ओ अपने मन मोहन की प्रेम-दिवानी ,
ओ मीरा तेरी विरह रागिनी जागी ,
तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

चिर-प्यासे मरुथल की कोकिल मतवाली ,
तू कूक उठी तो गूँजा जग का आँगन !
तेरी वाणी अंतर का स्वर भर छाई ,
तो मुखर हो उटा संसृति का सूनापन !
जिसके प्राणों की करुणा भरी व्यथायें
बन कर वरदान विश्व के नभ में छाईं ,
आनन्द फलों को अबतक बाँट रही है
जो प्रेम-बेलि आँसू से सींच उगाई !
अनुराग भरा तेरा वैरागी जीवन ,
करुणा से प्लावित तेरी प्रणय कहानी !

बस रहा श्याम का रूप नैन मे मन में ,
फिर कैसी झूठी लोक-लाज की माया !
कर दिया हृदय ने पूरा आत्म समर्पण ,
फिर शेष बचा क्या अपना और पराया !
जब आँसू गाने लगे वेदना रोई ,
तो मधुर-मधुर संगीत प्राण ने पाया ,
अविनाशी प्रिय को पाने के पथ पर भी,
तब सभी जगत ने व्यंग्य , किया ठुकराया !,
जीवन के छायाहीन अजाने पथ में ,
जिसके प्राणों की पीर न जग ने जानी !

अब भी तो बाज रहे हैं तेरे घुँघरू
जग के आँगन मे वे स्वर गूँज रहे हैं ,
मनमोहन की वह मीरा नाच रही है .
गीतों में अँतर के स्वर कूक रहे हैं !
तू स्नेह दीप की ज्वलित वर्तिका बन कर
जब अमर ज्योति ले अलख जगाने आई ,
पीयूष स्रोत बन गई व्यथा की गाथा ,
प्रतिबिंब बन गई वह पावन परछाईं !
वरदान बना वह शाप विश्व जीवन को ,
मंगल मय हो तेरे नयनों का पानी !

साधना पंथ की अथख अकेली यात्री ,
तुम मूर्तिमती योगिनी बनी करुणा की ,
चिर-तृषित हृदय की आराधना जगा कर ,
तुम जलो आरती की निष्कंप शिखा सी !
ओ मीरा ,तेरी स्वर लहरी से खिंचकर ,
तेरा चिर-प्रियतम आयेगा,आयेगा ,
चिर- विरह भरी जीवन की दुख-यात्रा पर
वह मधुर मिलन क्षण बन कर छा जायेगा !
ओ चरण कमल की जनम-जनम की दासी,
अविजेय वेदना के गीतों की रानी !
ओ मीरा तेरी विरह रागिनी जागी ,
तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

बुज़ुर्ग पेड़.

कुछ रिश्ता है ज़रूर मेरा इन बुज़ुर्ग पेड़ों से !

देख कर ही हरिया जाती हैं आँखें,
उमग उठता है मन ,वैसे ही जैसे
मायके की देहरी देख कंठ तक उमड़ आता हो कुछ !
बाँहें फैलाये ये पुराने पेड़ पत्तियाँ हिलाते हैं हवा में ,
इँगित करते हैं अँगुलियों से -
आओ न ,कहाँ जा रही हो इस धूप में
थोड़ी देर कर लो विश्राम हमारी छाया में !

मेरी गति-विधियों से परिचित हैं ये ,
मुझमें जो उठती हैं उन भावनाओं का समझते हैं ये !
नासापुट ग्रहण करते हैं हवाओं में घुली
गंध अपनत्व की !
एक नेह-लास बढ़ कर छा लेता है मुझे !
बहुत पुराना रिश्ता है मेरा !
इन बुज़ुर्ग पेड़ों से !

मधुमय वासन्ती

हिल उठी आम की डाल , कूक से गूँज गई अमराई ,
फूलों के गाँवों में बाजी मधुपों की शहनाई !
*
शृंगार सज रही प्रकृति ,ओढ़ कर चादर हरी हरी ,
कञ्चन किरणों के घूँघट में ,कुंकुंम से माँग भरी !
अलकों से मोती ढलक रहे शबनम बन ,
पाहुने शिशिर को देते हुये बिदाई !
*
हँस उठे धरा के खेत-पात ,पलकों में राग भरे ,
आई सुहाग की धूम लिये वासन्ती फाग भरे !
लुट रहा अबीर- गुलाल दिशा अंचल से ,
झर रही गगन से ऊषा की अरुणाई !
*
सुषमा मुखरित हो उठी मिल गईं नूतन भाषाये ,
लहरों ने दौड-दौड कर जल में रचीं अल्पनायें !
लो ,रुचिर भाव होरहे व्यक्त धरती के
चित्रित करने मधुमय वासन्ती आई !
*

आज

आज ही तो सत्य है ,जो कल गया, वह था विनश्वर ,
आज ही तो नित्य है, जो आ रहा कल वह अनिश्चित !
आज ही है एक सीमा ,युगयुगों तक के कलों की ,
आज ही सीमा बना, बीते भविष्यत् के छलों की !
*
कल गया वह तो गया पर आज मेरे हाथ मे है ,
कल अभी तो दूर है पर आज मेरे साथ मे हैं !
आज जो कुछ मिल गया ,वह हो गया मेरा सदा को ,
भाग है उसमें न मेरा आज में ही खो गया जो !
*
आज है बस इसलिये कल था इसे मैं मानती हूँ
आज आया इसलिये कल का ठिकाना जानती हूँ !
आज जो होता न तो अस्तित्व क्या होता युगों का ,
आज मे ढल गया है रूप सदियों के कलों का !
*
वही सच है जिन्दगी में आज जो कुछ चल रहा है ,
ढल गये कल तो कभी के आज कब से चल रहा है !
भूत बन जाता भविष्यत् आज में ही स्वत्व खो कर ,
आज तो चलता रहेगा ,नित नया ,नित प्रखर हो कर !
*
आज है कितना पुराना ,किन्तु यह कितना नया है ,
मिल चलेगा कल कि कल भी तो इसी में मिल गया है !
आज मै हूँ ,इसलिये पहचानती हूँ कौन हूँ नैं !
आज पाया है तभी कल के लिये बेचैन हूँ मै !
*
आज है प्रत्यक्ष ,कल तो रह गया केवल कहानी ,
आज मे ही है विलय कल .आज ही कल की निशानी !
जो मिले वह आज ले लूँ,जो करूँ वह आज कर लूँ,
खोजती कल को फिरूँ क्यों आज को स्वीकार कर लूँ !
*

आज बोझिल जिन्दगी की साँस

आज बोझिल जिन्दगी की साँस ,तू चुपचाप मत चल !
*
गन्ध व्याकुल कूल सरि के ,
वन वसन्ती फूल महके !
वह दहकती लाल आभा
ले गगन के गान गहके !
बावली मत कूक कोकिल ,वेदना के बोल विह्वल !
*
आज जादू डालती सी ,
चाँदनी की रूप-ज्योती
और मन को सालती सी कुछ विगत की बात बोती ,
आज चंचल हो उठे ये प्राण फिर उन्माद जागा ,
साँवली सी रात भीगी जा रही उर में समाती !
हो रहे साकार सोये गीत राग-पराग में जल !
*
नींद पलकों से उडाती ,
जागते सपने सजाती ,
आ गई ये कामनाओं से भरी सी
रात मंथर पग उठाती !
लुप्त हुये विराग सारे ,राग भर अ्नराग पागल !
*
आज के दिन तो व्यथा की तान आकुल हो न फूटे ,
आज तो कोई विषमता जिन्दगी का बल न लूटे !
आज हर इन्सान के उर में यही हो एक सा स्वर ,
देख धरती पर किसी की आँख आँसू में न डूबे !
एक दिन तो छँट चले नैराश्य का छाया तिमिर दल !
*
आज गिरते से उठा लो,
बाँह फैला कर बुला लो ,
दूरियाँ सारी मिटा कर
कण्ठ से अपने लगा लो !
राह में पिछडेहुओं को साथ फिर अपने लिये चल !
*

क्या कभी ऐसा न होगा

कल्पनामय आज तो जीवन बना ,
पर जिन्दगीमय कल्पना हो क्या कभी ऐसा न होगा !
एक पग आगे बढा तो शूल पथ के मुसकराये,
एक क्षण पलगें खुलीं तो हो गये सपने पराये ,
एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा ,
एक ही पथ में समूचे विश्व के अभिशाप छाये !
स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें ,
चेतनामय स्वप्न हों ये ,क्या कभी ऐसा न होगा !
*
एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया ,
एक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया ,
एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा ,
जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया !
इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !
*
चाह से है राह कितनी दूर भी मैने न पूछा ,
क्या कभी मँझधार को भी कूल मिलता है न बूझा ,
किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में ,
छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका !
ये भटकते ही रहे उद्ध्रान्त से मेरे चरण
पर भ्रान्ति में ही बन चले पथ क्या कभी ऐसा न होगा !
*
अब कभी बरसात रोती कभी मधुऋतु मुस्कराती ,
कभी झरती आग नभ से या सिहरती शीत आती ,
सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्दगी का ,
किन्तु मैं रुकने न पाती ,किन्तु मैं जाने न पाती १
आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में
भूल कर भी मैं स्नयं को पा सकूँ ऐसा न होगा !
*

चार बरस बाकी हैं

कितने दिन निकल गये ,चार बरस बाकी हैं !
तीन पहर बाद रहा चौथेपन का उतार ,
उठती पुकार एक, जाना है दूर पार !
किसको संबोध करूँ ,कैसे विवोध करूँ ,
आखिरी प्रघट्टक की कथा अभी बाकी है !
*
किसको बिसारूँ और किसके लिये करूँ सोच ,
सब कुछ है ठीक यहाँ ,करना किसका विरोध !
जीवन की खण्ड-कथा ,साक्षी हो तुम्ही मित्र ,
चलती ये दुनिया हमेशा बदल जाती है !
*
बोझिल से पहरों में डूबता अकेलापन ,
रीतती उमर के घाट,खडे-खडे देखते हम !
हाथी तो निकल गया,पूँछ खिंचती ही नहीं
थोडी सी बोरुखी भी गहरे कसक जाती है !
*

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

एक दिन पाँओं तले धरती न होगी

*
याद आती है मुझे तुमने रहा था ,
एक दिन पाँओं तले धरती न होगी !
जग कहेगा गीत ये जीवन भरे हैं ,
ज़िन्दगी इन स्वरों में बँधती न होगी !

आज पाँओं के तले धरती नहीं है ,
दूर हूँ मैं एक चिर-निर्वासिता-सी ,
काल के इस शून्य रेगिस्तान पथ पर ,
चल रही हूँ तरल मधु के कण लुटाती !
*
उन स्वरों के गीत जो सुख ने न गाये ,
स्वर्ग सपनों की नहीं जो गोद खेले ,
हलचलों से दूर अपने विजन पथ पर
छेड़ना मत विश्व ,गाने दो अकेले !
*
कहां इंसां को मिला है वह हृदय ,
जिसको कभी भी कामना छलती न होगी
याद फिर आई मुझे तुमने कहा था ,
एकदिन पाँओं तले धरती न होगी
*

नियति

स्वयं ही के ताप में तपना सतत मेरी नियति है ,
नहीं संभव है रुकूं मेरी अप्रतिहत क्योंकि गति है
और दोनों छोर जलती वर्तिका ज्यों दीप्त रह कर
अचानक चुक जाय चाहे एक क्षण भर ही भभक कर

क्योंकि दो दो स्तरों पर साथ ही जीना कठिन है,
आत्मवञ्चन किन्तु उससे भी कहीं बढ़कर विषम है !
किन्तु मन का सत्य मेरे साथ है द्विविधा रहित हूँ
बदलते मौसम सरीखी पलट जाऊँ वह नहीं हूँ

सभी कुछ मिश्रित ,हँसी-आँसू,बुरा-अच्छा सभी कुछ ,
रिक्त गागर में भरूं मैं क्या यही अतिरिक्त अनुभव
समझ में आता न मुझको मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ ,
सोचती हूँ मैं कि मैं संबद्ध भी हूँ या नहीं हूँ

जो अकेला भटकता अभिशप्त सा घर्षण समेटे
शून्य की गहराइयों में दग्ध उल्का पिण्ड जैसे
एक पग टिकता ,अचानक दूसरा उठता उसी पल ,
पाँव धरने के लिये मैं खोजती हर ओर क्षिति-तल !

कभी लगता पांव के नीचे कहीं धरती नहीं है !
यह नियति हर बार ही हर यत्न को छलती रही है !
और पथ चलना निरंतर इन पगों की एक गति है ,
वश न हो जिस पर,बदलना हो न संभव, वह नियति है !

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

गगन ने धरा से कहा एक दिन

गगन ने धरा से कहा एक दिन ,
सिर्फ पत्थर बसे हैं तुम्हारे हृदय में !
*
झरे फूल कितने इसी धूल में ,
पर कभी भी तुम्हें मोह करना न आता ,
मिटे रूप कितने तुम्हारे कणों में,
कभी भी तुम्हें याद करना न भाता !

सदा अर्थियों की चितायें जलीं ,
पर तुम्हें एक आँसू बहाना न आया ,
सदा तुम मिटाती रही कि तुम पर
कभी वेदना का जमाना न आया !

न जाने तुम्हारा न नाता किसी से
किसी का तुम्हें साथ भाता नहीं है ,
कि उर्वर तुम्हें जो बनाया प्रकृति ने
वही गर्व उर में समाता नहीं है !
सदा खेलती तुम रही जीवनो से ,
न काँटे खटकते तुम्हारे हृदय में !
*
धरा कुछ हिली अब न बोलो गगन ,
मै विवश हूँ कि मुझको दिखाना न आता ,
सतह देखती रोशनी ये तुम्हारी ,
उसे प्राण मन मे समाना न आता !

धधकती अनल को न देखा न देखी
करुण वारि-धारा छिपाये हुये हूँ ,
इसी धूल की रुक्षता के सहारे
अरे सृष्टि का क्रम चलाये हुये हूँ !
*
मिटाया न अपने लिये हाय उनको ,
कि जिनको खिलाय कभी अँक मे ले !
जनम औ'मरण बीच मैं ही पडी हूँ ,
न जीवन जनम दे ,मरण गोद ले ले !
कहो सुख कहूँ या इसे दुःख मानूँ ,
बसा एक कर्तव्य मेरे हृदय में !
*

साँझ - धुबिनियाँ

रंग-बिरंगी अपनी गठरी खोल के ,
साँझधुबिनियाँ नभ के तीर उदास सी ,
लटका अपने पाँव क्षितिज के घाट पे
थक कर बैठ गई ले एक उसाँस सी !

फेन उठ रहा साबुन का आकाश तक ,
नील घोल दे रहीं दिशाएं नीर मे ,
डुबो-डुबो पानी मे साँझ खँगारती
लहरें लहरातीं पँचरंगे चीर मे !

धूमिल हुआ नील जल रंग बदल गया
उजले कपड़ों की फैला दी पाँत सी !
रंग-बिरंगी अपनी गठरी खोल के ,
साँझ-धुबिनियाँ ,नभ के तीर उदास सी !

माथे का पल्ला फिसला-सा जा रहा ,
खुले बाल आ पड़े साँवले गाल पर
किरणों की माला झलकाती कंठ मे
कुछ बूँदें आ छाईं उसके भाल पर !

काँधे पर वे तिमिर केश उलझे पड़े ,
पानी मे गहरी सी अपनी छाया लम्बी डालती !
लटका अपने पाँव ,क्षितिज के घाट पे
थक कर बैठ गई ले एक उसाँस सी !

रंग-बिरंगी अपनी गठरी खोल के ,
साँझ-धुबिनियाँ ,नभ के तीर उदास सी !

.बोलते पत्थर.

*
बोल उछते हैं ये पत्थर !
हटा कर यह सदियों की धुन्ध ,और जो पडी युगों की भूल ,
अनगिनत अविरल काल-प्रवाह इन्हीं मे खोते जाते भूल !
अभी भी अंकित रेखा - जाल ,बीतते इतिवृत्तों की याद ,
सो रहा यहाँ युगों से शान्त ,पूर्व की घडियों का उन्माद !
सँजोये कितने हर्ष -विषाद ,अटल हैं ये बिखरे पत्थर !
*
गगन के बनते-घुलते रंग ,क्षितिज के धूप-छाँह के खेल .
शिशिर का हिम, आतप का ताप और वर्षा की झडियाँ झेल ,
किसी स्वर्णिम अतीत के चिह्न, खो गये वैभव के अवशेष ,
समय के झंझावातों बीच ,ले रहे अब भी स्मृति का वेश !
किसी की भावमयी अभिव्यक्ति सँजोये ये चिकने पत्थर !
*
कला की अथक साधना पूर्ण ,कुशलतम कलाकार के हाथ ,
यहाँ इंगित करते हैं मौन, अमर है कला, अमिट है भाव !
मिट चुका मानव चेतनशील ,नहीं पर नष्ट हुये निर्माण
शून्यता के सूने साम्राज्य,बीच भी हैं प्रत्यक्ष प्रमाण !
विश्व की छल- माया के बीच ,आज भी ये निश्चल पत्थर !
*
भव्य मंदिर के भग्नावशेष आँकते काल कथा का मोल ,
बिगत की धूमिल छाया बीच दे रहे स्मृतियों के पट खोल !
भावना में कितना सौंदर्य ,स्वप्न का कितना मूर्त स्वरूप
कठिनता का निरुपम शृंगार ,चेतना का निस्स्वर प्रतिरूप !
बोल ही देते हैं चुपचाप ,सजे-सँवरे बिखरे पत्थर !

पडे हैं बिखरे खँडहर किन्तु ,एक दृढता है सीमाहीन ,
किसी मीठे अतीत की करुण कहानी सोती संज्ञाहीन !
गूँज जाते हैं नीरव गीत ,किसी पाषाण खण्ड में भ्रान्त ,
विगत की भूली-बिसरी याद ,कसक उठता निर्जन एकान्त
देखते रहते हैं चुपचाप युगों से निष्चेतन पत्थर !

विवशता की गहरी निश्वास ,छोड आगे बढ जाती वायु ,
नहीं संभव अब कायाकल्प ,रूप की शेषरूप ,यह आयु !
फूँक जाती हैं किंचित जान .विश्व की परिवर्तन मय श्वास,
नहीं ये बिखरे प्रस्तर खंड ,मनुज के लुटते से विश्वास !
उडाते जीवन का उपहास अचेतन ये निर्मम पत्थर !
*

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

रुद्र-नर्तन

गूँजते हैं अवनि अंबर ,शंख-ध्वनि की गूँज भर भर ,
खुल रहीं पलकें प्रलय की ,छिड़ रहे विध्वंस के स्वर !
सृष्टि क्रम के बाद खुलता जा रहा है नेत्र हर का ,
और भंग समाधियों ने ध्यान लूटा विश्व भर का १
*
बाँध दे घुँघरू पगों में शक्ति, होगा रुद्र नर्तन ,
नैन मे अंगार ज्वाला ,आज फिर होगा प्रदर्शन !
छूट कर ताँडव करेगा ,पुनः हर क3 ध्यान निश्चल !
काँप जायेगा विधाता और तीनो लोक चंचल !
*
झनझनायेंगी तरंगें ,सिन्धु खुल कर साँस लेगा
एक लय के ताल-स्वर पर महालय का साज होगा !
उठी अंतर्ज्वाल ,लहरें ले रहा विक्षुब्ध सागर!!
सनसनाता है प्रभंजन ,नीर गाता राग हर हर !
*
लुढ़कते आते तिमिर घन ,बिजलियाँ ताली बजातीं ,
घुँघरुओँ मे स्वर मिला कर बूँद झऱ-झर छनछनाती !
मंच क्षिति, अपना सजा ले आज हर नर्तन करेंगे !
खुल पडेंगी वे जटायें ,सर्प तन से छुट गिरेंगे !
*
पुष्प-शऱ-संधान क्या चिन्गारियों की उस झड़ी में ,
मुक्त कुन्तल घिर अँधेरा कर चलेंगे जिस घड़ी में !
नाद-डमरू फैल जाये डम डमाडम् ,डमडमाडम् !
बिखर जायेगा चतुरिदिशि मे चिता का भस्म-लेपन !
*
कौंधता तिरशूल झोंके ले रही नरमुण्ड माला ,
रुद्र गति आक्रान्त सारी सृष्टि की यह रंगशाला !
दिग्-दिगंतों मे भरेगा प्रलय का भीषण गहन स्वर ,
गूँजते हैं अवनि अंबर ,शंख-ध्वनि की गूँज भर भर !
*

प्रलय-यामिनी

बढी आ रही,इक प्रलय की लहर
ने कहा जिन्दगी से अरे यों न डर
आज कितनी मधुर है प्रलय यामिनी !
*
आज लहरें बढेंगी बुलाने तुम्हें ,
आज स्वागत करेगा तिमिर यह गहन !
फेन बुद्बुबुद् बिछाये यहाँ पंथ में
उस गगन पंथ से साथ ले धोर घन ,
वह महाकाल का रथ बढा आ रहा ,
बज रहे ढोल बाजे गहन घोर स्वर ,
मौर मे झलमलाती है सौदामिनी !
*
आँसुओं से भरे ये तुम्हारे नयन ,
यों नव्याकुल बनो मैं अभी साथ हूँ ,
यह न घर था तुम्हारा सदा के लिये ,
आज तुम पर जगत के प्रहर वार दूँ !
द्वार का पाहुना है अनोखा बडा ,
सिर्फ़ स्वागत सहित लौटने का नहीं ,
साथ मे है बराती प्रलय-वाहिनी !
*
आज जाना पडेगा दुल्हन सी विवश ,
इस धरा से अभी नेह से भेंट लो !
यह सदा की सहेली घडी ढल रही ,
छुट रहा साथ इससे बिदा माँग लो १
आ रहा आज कोई बुलाने तुम्हें उस
अपरिचय भरी शून्य की राह में ,
लो सुनो ,यह बिदा की करुण रागिनी !
*

शब्द मंत्र बन जायँ

जयति, ज्योतिमयि ,माँ अंबे , जय, जग की पालनकारिणि ,
जय विराट् छवि ,विश्वरूप ,जय अखिल सृष्टि उर धारिणि !
जयति प्रभामयि ,स्वयं सिद्धि तुम, अपरा परा अपारा ,
ऋद्धि-सिद्धि-नव- निद्धि प्रदायी जय-जयकार तुम्हारा !
*
यह ब्रह्माण्ड तुम्हीं से शोभित अपना जीवन धारे ,
व्याप रहीं अक्षर-अक्षर मे तुम्हीं रूप विस्तारे !
वर्ण-वर्ण में गान तुम्हारा ,कर्म-कर्म में पूजन ,
पग-पग में तव प्रदक्षिणा ,औ' नैन- नैन में दरशन !
*
तुम चिर वास करों इस मन में जीवन में प्राणों में
मुखरित हो आराधन मेरे हर स्वर की तानों में !
मेरा जीवन वास तुम्हारा ,श्वास-श्वास हो दासी ,
अर्पित मेरे सभी कर्म इन चरणों में सुखराशी !
*
सुप्ति तुम्हारा ध्यान बने जागरण तुम्हारी अर्चा ,
जल-थल में तुम अँबर में तुम यही तुम्हारी चर्चा !
वर्ण-वर्ण मेरा हो माँ तेरे सिंगार की माला ,
करुणामयि ,शब्दों में भर दो मंगलमय उजियाला !
*
गर्जन करता सिन्धु निरंतर वाहन सिंह तुम्हारा ,
धरारूपिणी ,वक्षस्थल पर मुक्तहार जल-धारा !
अरुण कमल हैं चरण सुशोभित ,स्वाति बूँद लख ज्योती ,
एक दृष्चि में प्रलय दूसरी बीज सृष्टि का बोती !
*
अखिल लोक में व्याप्त तुम्हीं ,तन पर नीलांबर धारे ,
सूर्य,चन्द्र और अग्नि, नेत्र त्रय ,तन- द्युति झिलमिल तारे !
बुद्धिरूप तुम ,शक्ति रूप तुम ,असुर विनाशिनि माया ,
लक्ष्मी रूपे अगजग में तेरा ऐश्वर्य समाया !
*
नाम ,अर्थ औ' भाव अलक्षित अगणित रूप तुम्हारे ,
सरस्वती तुम हंस-वाहिनी वीणा पुस्तक धारे !
प्रकृति तुम्हीं ,तुम कालरूपिणी ,कला, चिरंतन विद्या ,
तुम्हीं सुकृति ,तुम विकृति, पराकृति, परमा, परम प्रसिद्धा !
*
भृकुटि-विलास सभी जो दिखता और न जो दिख पाता ,
अखिल लोक पालन -संभव -लय-कारिणि हे जग-त्राता !
शब्द-रूप-रस गन्ध परस तुम ,तुम्हीं रहित सब ही से ,
कैसे हो संधान तुम्हारा सर्व स्वरूप अरूपे !
*
उतरो माँ ,संतप्त हृदय में बरसाओ करुणा-कण ,
दो सामर्थ्य, विवेक और प्रतिपल सत् का अवलंबन !
जग- जीवन की विषम यात्रा जब कुण्ठित कर जाये ,
विघ्न और बाधायें ठुकरायें संताप बढायें !
*
तेरा नाम कवच बन कर इस जीवन पर छा जाये ,
अनुकम्पा कर, माँ द्विविधा में पड मन हार न जाये !
जो प्रमादवश दोष किये हों जननी क्षमा करो तुम ,
नमित शीष चरणों में ,मस्तक पर शुभ हाथ धरो तुम !
*
बाधा-विघ्न विनाशिनि ,मंगल आशिष अब बरसा दो ,
व्याकुल और तरसते मन को सरसा दो, हरषा दो !
सुख संपति औ'शान्ति सुविद्या से भंडार भरो माँ ,
जो अपूर्ण रह गया कृपा कर उसको पूर्ण करो माँ !
*
स्वर्ग बने जन का घर आँगन ,बस जाओ लक्ष्मी बन ,
सरस्वती बन बुद्धि -दीप्त कर दो, जीवन का क्षण-क्षण !
सुख -सौभाग्य,निरामय तृप्ति , प्रसाद यही हों तेरे ,
तेरा ही सौंदर्य चतुर्दिक धरा - गगन को घेरे !
*
तेरी करुणा के कण पाने कब से टेर रही माँ ,
ध्यान तुम्हारा पाने को मैं कब से हेर रही माँ !
माँ आंचल पसार जो माँगा भर दो मेरी झोली ,
एक बार फिर से आकर कह जाओ हाँ की बोली !
*
कभी स्वप्न मे आईं थीं तुम संग-साथ मिल खेलीं ,
वही स्नेह अधिकार मुझे दो मेरी संग-सहेली !
पर धरती पर धरे असीम गगन में वास तुम्हारा ,
इस अपरूप रूप से परसित रहे दृष्टि की धारा !
*
पूर्ण- काम हो जाये मन तेरे चरणों में आया ,
बनी रहे अविरल ,मस्तक पर तेरा अंचल छाया !
उठीं सिन्धु में लोल लहरियाँ चरण परस लेने को ,
धरती हरियाली चूनर जीवन का रस लेने को !
*
सुरभि वसन्त-बयार, तुम्हारी ये मलयज सी साँसें ,
चन्दन अक्षत चाँद- सितारे चढे गगन से आ के !
फूल-फूल खिल गये कि तुमने दृष्टि धरा पर डाली ,
ढाँक दिया अग-जग को पहना शाम-सुबह की जाली !
*
करुणा हाथ बढाकर छूलो शाप-ताप खो जायें ,
ये अनुराग-विराग तुम्हें पा तुममें लय हो जायें !
खारा नयनों का जल मेरा और न कुछ आराधन ,
महाकाल- प्रभु सहित तुम्हारे श्री- चरणों में पावन !
-
जय बोलो रे ,बार बार ,जिसने यह तन दे पाला ,
जिसने बुद्धि और विद्या दे मन में किया उजाला ,
श्वासों को आकाश दिया और जीवन को दी वाणी ,
वह आरती तुम्हारी बन कर रहे सदा कल्याणी !
*
कितना कुछ भी कह कर लगता ,कुछ न अभी कह पाया
हरदम शेष रह गया उतना ,जितना भी गुण गाया !
जग मंगलमय करो जननि ,,जीवन को सुन्दर कर दो ,
सफल करो कामना हृदय की स्नेहमयी माँ ,वर दो !
*
तुम अक्षय भंडार भरे हो ,फिर अभाव क्या जन को
टेर रही संतान जननि ,तुम कैसे विमुख रहोगी ,
वाणी में वर्चस्व ,प्राण में ओज कान्ति गरिमा दो ,
अंतर तम की इस पुकार पर तुम न अबेर करोगी !
*
बनें विकृतियाँ सुकृति ,कुरूप तुम्हें छू सुन्दरतर हों ,
शब्द मंत्र बन जायँ ,तुम्हारी श्री का एकाक्षर हो !
वचनों से है परे रूप गुण औ' ऐश्वर्य तुम्हारा ,
जय जय जय जगदम्बे मंगल ,पावन स्मरण तुम्हारा !

ओ,मधुर मधुमास.

*
जल रहे हैं ढाक के वन
लाल फूलों के अँगारों से दहकते !
हहरती वनराजि ,
तुम आये वसन्त सिंगार सज कर ,पुष्प-बाणों को चढाये !
मन्द,शीतल और सुरभित पवन बहता
दहकते अंगीर दूने ,
सुलगता है प्रकृति का उर !
पीत सुमनों की लपट क्षिति से उठी है ,लाल लाल प्रसून ये अंगार जलते ,
हरे वृक्षों की सलोनी गोद में रह रह सुलगते !
लाज अरुणिम कोंपलें ,शृंगार सारे दहक से भर ,
झुलस जाते तितलियों के मन ,
भ्रमर कुछ गुनगुनाते छेड जाते !
ये दहकते फूल अपने रूप की ज्वाला सँजोये ,
छू जिसे तन हहरता ,मन भी सिहरता ,
मुस्कराता लाज भीना मुग्ध आनन !
*
ओ मधुर मधुमास !
तुम आये कि जागा शिथिल सा मन ,इस धरा का अरुण यौवन जल रहा है !
जल रहे हैं लाल लाल अँगार तरु पर वल्लियों में और वन मे,
ये हरे तन ,ये हरे मन ये हरे वन जल रहे हैं !
सुलगता सा अलस यौवन !
पंचशर लेकर किया संधान कैसा पुष्प धन्वा ,
सघन शीतल कुञ्ज भी ले लाल नव पल्लव सुलगते ,
प्रकृति के तन और मन मे आग सुलगी
आ गये हो धरा का सोया हुआ यौवन जगाने के लिये !
ढाल दीं उन्माद मदिरा की छलकती प्यालियाँ,
जड और चेतन को बना उन्मत्त,
कर निर्बाध चंचल ,
अल्हड बनीं-सी डोलतीं साँसें पवन मे !
**

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

वन्दना -

*
अंध तम का एक कण मै ,
तुम अपरिमित ज्योतिशाली ,
दीप के मैं धूम्र का कण ,
तुम दिवा के अंशुमाली !
*
मै अकिंचन रेणुकण हूँ ,
तुम अचल हिमचल निवासी !
मृत्युमय ये प्राण मेरे ,
ओ प्रलय के भ्रू-विलासी !
*
वन्दना निष्फल न जाये ,
देव यह आशीष देना ,
स्वर न हारे विश्व-तम से,
वे अनल के गीत देना !
*
- प्रतिभा .

शिप्रा की लहरें

*
लहर स्वर में गूँजती रहती सदा ही ,
किस अमर संगीत की प्रतिध्वनि अमर हो !
बाजती रहती अनश्वर रागिनी
कलकल स्वरों मे चिर- मधुर हो !
सजल झंकृत उर्मि तारों मे अलौकिक
राग बजते जा रहे हैं ,
रश्मि कीमृदु उँगलियाँ छू
झिलमलाते नीर मे नव चित्र बनते जा रहे हैं !
*
यह पुनीता ,छू न पाईं आज तक ,
जिसको जगत की कालिमायें ,
दिव्य कलकल के स्वरों में भर न पाईं
विश्व की दुर्वासनायें !
*
झनझना उठते हृदय के तार ,वाणी मुग्ध मौना ,
बाँध लूँ इन स्वरों में किस भाँति तेरा स्वर सलोना !
बज रहा संगीत अक्षय तृप्ति इससे मिल न पाये ,
कर्ण से टकरा हृदय को छू न पा, ये फिर न जाये!
*
अंतरिक्ष बिखेर देता तारकों के फूल झिलमिल ,
नाच उठतीं लोल लहरें किलक उठता नीर निर्मल !
गगन से नक्षत्र झरझर नीर में आ छिप गये हैं
बीन लेने को जिन्हें कर रश्मियों के बढ रहे हैं !
*
इन गहन गहराइयों की माप लेती रश्मि-माला ,
देख हँसता चाँद ,खिलती चाँदनी ,चाँदी भरा यह विश्व सारा !
बाँध लेती चंचला से बाहुओँ में रश्मि तारे उर्मि बाला !
है यही नन्दन विपिन की रानियों की नृत्यशाला !
*
नाचती हैं अप्सरायें ताल सब गंधर्व देते ,
नूपुरों की मन्द रुनझुन ,पायलों के स्वर बिछे से !
स्वर्ग है यह ,स्वर्ण लहरों मे छलकती देव-वारुणि ,
खनखनातीं सोमरस की प्यलियाँ ,हीकरमयी .नवज्योति धारिणि !
*
युगल तट के वृक्ष करते भेंट सुरभित सुमनमाला ,
अंक भरने दौड पडती चपल चंचल उर्मि- बाला !
तरल लहरों में प्रतिक्षण जागता नूतन उजाला ,
कौन सी वह शक्ति करती सदा संचालन तुम्हारा !
*
कौन वह अज्ञात इतना रूप जो अविरल बहाता ,
कौन जीवन सा मधुर साँसें सदा तेरी जगाता !
शान्त धरणी में बिछी रहती सुज्योत्स्ना शुभ्र गहरी ,
देखते हैं वृक्ष विस्मित से ,क्षितिज बन मौन प्रहरी !
*
यह अपरिमित रूप-श्री ,बुझती नहीं मेरी पिपासा ,
हृदय लोभी ,देख यह सुषमा ,रहा जाता ठगा सा !
झलमलाती ऊर्मियाँ या स्वयं विधि की चित्र रेखा ,
किस नयन ने आज तक भी रूप वह अपरूप देखा !
*
एक ही आभास जिसका स्वप्न सीमाहीन बुनता ,
एक ही आह्वान जिसका प्राण-मन मे ज्योति भरता !
नीर पावन निष्कलुष वन देवियों का दिव्य दर्पण ,
हहर कर वनराजि करती नवल विकसित पुष्प अर्पण !
*
प्रकृति की श्री झाँकती है ,बिंब स्थिर रह न पाता ,
रूप जो क्षण-क्षण बदलता ,उर्मि कण-कण मे समाता !
तरल स्वर में स्वर मिला कर बोलती आवाज कोई ,
पट हटा फेनिल, रुपहले झाँक जाती आँख कोई !
*
मुक्त तोरों भरे नभ की झिलमिलाती दीपमाला ,
नित्य ही मनती दिवाली ,नित्य ही जगता उजाला !
यामिनी जब उतरती है बाँध कर नक्षत्र नूपुर
झुर्मुटों की ओट से जब झाँकता चुप-चुप विभाकर !
*
तभी क्षिप्रा की लहर गाती मिलन संगीत अक्षय,
दूर तरु से कूक उठती कोकिला की तान मधुमय !
पश्चिमी नभ पर सजीले रंग आ देते बिदाई
लौट जातीं स्वर्ण- किरणें चूम वृक्षों की उँचाई !
*
सान्ध्य नभ के मंच पर आ अप्सरायें नृत्य करतीं,
ले सुरंगी वस्त्र शोभित , नित्य नूतन रूप धरतीं ,
तब लहर के पालने में सप्तरंगी मेघ सोते ,
गगन के प्रतिबिंब शतशत बार जल के तल सँजोते
*
जा रही है हर लहर आनन्द की वीणा बजा कर ,
तिमिर पथ के पार कोई मधुर सा संदेस पाकर !
हीर कण ले लिख रही है ,कौन यह रमणीय बाला ,
लहर की गति है न चंचल ,यह नियति की वर्णमाला !
*
युगयुगों से यहाँ बिखरे दीखते हैं स्वप्न स्वर्णिम ,
मुखर हो उठते यहीं शत शत भ्रमर के मंजु गुंजन !
वार कुंकुम खोलती प्राची क्षितिज प्रत्यूष बेला ,
जब गगन के पार से आ झाँकता दिनकर अकेला !
*
जब अरुण होकर दिशायें स्वर्ण पानी से महातीं ,
अंशुमाली की अँगुलियाँ जब धरा के कण जगातीं ,
मोतियों के हार ले तब विहँसती लहरें सजीली ,
खिलखिलाती ,झिलमिलाती खेलती रहतीं हठीली !
*
खो गईं सदियाँ इन्हीं मे ,सो गईं अनगिन निशायें
झाँकता रहता गगन भी डोलती रहती दिशायें !
रुक न पाया नीर चंचल थम न पाईँ ये लहरियाँ
पिघलती प्रतिपल रहेंगी ये दमकती शुभ्र मणियाँ !
*
प्राण मेरे बाँध लो चंचल लहर चल बंधनों से
पुनः नव जीवन मिले इन लहरते स्पन्दनों से!
मोह है मिटती लहर ले ,स्नेह क्षिप्रा नीर से है ,
राग से अनुराग भी ,अपनत्व क्षिप्रा तीर से है !
*
चाँदनी के अंक में कल्लोल करता मुक्त शैशव ,
दे रहा कब से निमंत्रण मोतियों से सिक्त वैभव !
यही जादू भरी लहरें डाल देती मोहिनी सी ,
अमिट कर फिर छोड जातीं रूप-श्री की चाँदनी सी !
*
अरे क्षिप्रा की लहर ,ओ स्वर्ण स्वप्नों की कहानी ,
काल- चक्रों में सुरक्षित ,विगत की भोली निशानी 1
कल्पना में बँध न पाये ,भाव में चित्रित न होगा ,
चित्र खीँचूँ मै भला क्या ,शब्द मे चित्रित न होगा !
*
अंक मे ले लो मुझे ,इन आँसुओं मे झिलमिलाओ ,
लहर में श्वासें मिला लो ,कल्पना के पास आओ !
बाँध पायेंगी न लहरें मुक्त ,युग की शृंखलायें
स्नेह आलिंगन तुम्हार पा अपरिमित शान्ति पायें !
*
पिघलती करुणामयी जलराशि कण-कण मे समाये ,
इन तरंगों का मधुर आलोक अणुअणु को जगाये !

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

विपथगा

प्राणों में जलती आग ,
हृदय में यग-युग का वेदना-भार ,
नयनों मे पानी ,अधरों पर चिर-हास लिये !
मैं चली वहाँ से जहाँ न थी पथ की रेखा ,
मैं चिर-स्वतंत्र अपना अजेय विश्वास लिये !
*
मुझको इस रूखी माटी ने निर्माण दिया
धरती अंतर्ज्वाला ने दी मुझे आग .
गंगा यमुना बँध गईं पलक की सीमा में
आकाश भर गया चेतनता की नई श्वास !
मुझको आना क्या ,जाना क्या
फिर मेरा ठौर-ठिकाना क्या
मैं शुष्क उजाड़ हवा पर मुझमें ही सौ-सौ मधुमास जिये !
*
जब मैं आई ,तब चारों ओर अँधेरा था ,
जीवन के शिशु को कोई प्यार-दुलार न था !
आँचल की छाँह नहीं थी ,बाँह नहीं कोई ,
धरती पर पुत्रों का कोई अधिकार न था !
देखे माँ के लाड़ले पूत दर-दर की ठोकर पर जीते ,
जिनके हाथों ही ये नभचुम्बी गेह बने
मानव को बिकते देखा है मैंने चाँदी के टुकड़ों पर
.महलों के नीचे झोपड़ियों के जो दीपक..निःस्नेह बने !

गिरती दीवारें देख हँसी आ जाती है ,
निर्माताओं के उन्हीं हवाई सपनों का ,
मैं धूल उड़ाती उनके शेष खँडहरों में ,
फिर चल देती पतझर सी सूनी साँस लिये !
*
छुप जातीं सभी वर्जनायें घबराई-सी
मेरी ठोकर पा पथ से हट जाते विरोध
निश्चय का लोहा मान रास्ता खुल जाता,
जितने प्रवाद जुड़ते, दे जाते नया बोध

अनगिनत विरोधों का तीखापन जम-जमकर बन गया क्षार ,
घुल गया स्वरों में कटुता बन कर उभरा आता बार -बार !
झोली में भर अपमान -उपेक्षा रख लेती पाथेय बना ,
फिर आगे बढ़ जाती अनगिनती आँखों का उपहास पिये
*
मैं बनी विपथ-गा महाकाल के उर पर युगल चरण धारे ,
मैं ही दिगंबरी चामुण्डा , जो रक्तबीज को संहारे !
मैं चिन्गारी ,जो ज्वाला बन, कर डाले भस्म सात् सबकुछ,
पर गृहलक्ष्मी के चूल्हे में जो तृप्ति और पोषण में रत !

सारे अवरोध -विरोध फूँक में उड़ा अबाध अप्रतिहत गति ,
कुछ नई इबारत देती लिख युग के कपाट पर दे दस्तक !
जड़ परंपरा की धूल उड़ा, प्रश्नों को प्रत्युत्तर देती
खंडित निर्जीव मान्यतायें कर, बो देती विश्वास नये !
प्राणों में जलती आग ,
हृदय में यग-युग का वेदना-भार ,
नयनों मे पानी ,अधरों पर चिर-हास लिये !

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

क्या लाई हूँ !

क्या लाई हूँ !
क्या लाई हूँ अतीत से अपने साथ बाँध,
थोडे से अपनेपन के साथ परायापन,
कुछ मुस्काने कुछ उदासियाँ ,
हर जगह साथ चलता जो एक अकेलापन!
*
बेबसी अजब सी ,जिसे समझ पाना मुश्किल
कुछ ऐसा स्वाद कहें फीका या तीखा सा
आगे चलने के क्रम में जो छूटा जाता ,
उसमें से कितना कुछ है साथ चला आता !

कैसी विरक्ति ,कुछ मोहभंग जैसा विभ्रम,
जो भी ढूँढो वह तो मिलता ही नहीं कभी
सारा हिसाब गडबड हो जाता तितर-बितर,
जोडने जहाँ बैठो लगता घट गया सभी

कुछ यादें मीठी -खट्टी ,औ' नितान्त अपनी
जिनकी मिलती कोई भी तो अभिव्यक्ति नहीं,
ऐसी प्रतीति जो मन को भरमाती रहती,
विश्वास जमाने को है कहीं विभक्ति नहीं !

कुछ भूलापन सा अंतर में उमड़ा आता,
अटका ठिठका जो रुका कंठ में वाष्प बना !
टूटे संबंधों के कुछ चुभन भरे टुकड़े
भर जाते हैं मन में फिर-फिर अवसाद घना

आँचल की खूँट बँधी होंगी मीठी यादें,
कडवी तीखी घेरों को घेर रही होंगी
चुन्नट में सिमटा बिखरा कुछ कड़वापन-सा,
कितनी बेबसियाँ मन के द्वार पड़ी होंगी

उलझी गाँठोंवाली डोरी आ गई साथ
मन में यादों का उडता एक सिरा पकड़े
सुलझाने में डर है कि टूट ना जायँ कहीं ,
काँटों की सोई चुभन कहीं फिर से उमड़े !

अपनी भूलों का बोझ और पछतावा भी,
भारी सा असंतोष फिर-फिर से भर जाता!
यह भान कि आगे बढ़ने में कितना खोया,
बन कर सवाल मुँह बाये खड़ा नजर आता !

पग बढ़ने के पहले ही अंधड़ गुजर गये,
अनगिनती बरसातें आ फेर गईं पानी ,
अंतर के श्यामल-पट पर कुछ उजले अक्षर,
जो पढ़ न सकी मौसम की ऐसी मनमानी !

कितनी शिकायतें अपने साथ लगा लाई,
किस तरह सामना करूँ समझ बेबस होती ,
कुछ कही-सुनी बातें कानों में अटकी हैं,
जो वर्तमान से लौटा वहीं लिये जातीं !

क्यों साथ चली आती है इतनी बडी भीड़ ,
जिसका अपनापन बहुत पराया सा लगता ,
सपने जैसे लगते हैं,दिन जो गुजर गये,
हर तरफ एक अनजानापन पसरा दिखता

झरने लगता अँजुरी की शिथिल अँगुलियों से,
जितना भी करती हूँ समेटने का प्रयास,
यह दुस्सह बोध अकेले पड़ते जाने का,
बेगाने होते जाते अपनों की तलाश !

अन्तर्विरोध आ समा गये जाने कितने ,
पल भर को भी विश्राम नहीं मन ले पाता ,
अपने सुख- दुख जिससे कह लूँ हो सहज भाव
भूले से ही मिल जाय कहीं ऐसा नाता !

बहुत याद आती है

बहुत याद आती है-
*
जब चाँद तले चुपचाप बैठ जाती हूँ ,चुपचाप अकेली और अनमनी होकर ,
कोई पंथी ऊँचे स्वर से गा उठता ,उस दूर तलक पक्की सुनसान सडक पर ,
तब जी जाने कैसा-कैसा हो उठता ,बीता कोई दिन लौट नहीं पायेगा ,
तन्मय स्मृति में हो खो जा मेरे मन ,कोई सुख उसका मोल न भर पायेगा !
ना जाने कितनी रातों का सूनापन आ समा गया मेरे एकाकी मन में ,
बीते युग की यह कैसी धुन्ध जमा है ,मेरे जीवन के ढलते से हर क्षण में !
*
वह बडे भोर की उठती हुई प्रभाती ,मेरे अँगना में धूप उतर आती थी ,
जब आसमान उन्मुक्त हँसी हँसता था ,जब आँचल भर सारी धरती गाती थी !
आ ही जाता है याद नदी का पानी ,नैनों में कुछ जल कण आ छा जाते हैं
खुशियों की हवा न जिन्हें उडा पाती है ,जो बन आँसू की बूँद न झर पाते हैं !
मैं सच कहती हूँ बहुत यादआती है,पर बेबस पंछी रह जाता मन मारे ,
जाने कैसे चुपके से ढल जाते हैं अब तो मेरे जीवन के साँझ सकारे !
*
तेरी स्मृतियों की छाया यों मुझ पर छाकर ,बल देती चले थके हारे जीवन को ,
तू एक प्रेरणा बन जा अंतर्मन की ,जो सदा जगाती रहे भ्रमित से मन को !
मेरी उदासियों का गहरा धूँधलापन ,तेरे उजली आभा पर कभी न छाये ,
अभिशापित किसी जनम की कोई छाया ,तेरे निरभ्र नभ पर न कहीं पड जाये !
नाचो मदमस्त धान की बालों नाचो ,श्यमल धरती के हरे-भरे आँचल में ,
मैं दूर रहूँ ,या पास रहूँ ,इससे क्या ,तुम फूलो फलो हँसो हर दम हर क्षण में !

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

कैसा नाम तुम्हारा

बिना तुम्हारी खबर लिये औ'बिना तुम्हारा नाम पुकारे ,
मैंने इस आजन्म कैद के कैसे इतने साल गुज़ारे !
*
बिना कहे कैसे बीतीं,इतने लंबे वर्षों की घड़ियां ,
रही पोंछती बीते छापे ,रही बिसरती बिखरी कड़ियां !
कितने शिशिर और सावन क्षितिजों तक दिशा-दिशा ने धारे !
*
अनगिन बर्षों में आईं अनगिन पूनम और अमावस ,
मुझको ऐसा लगा सामने रखा हुआ ज्यों कोरा काग़ज़ !
कितनी बार नृत्य ऋतुओं के ,बिना तुम्हारा रूप निहारे !
*
कभी न पाती लिखी, न कोई लिखा नाम का कोई आखऱ ,
किन्तु डाकिये की पुकार सुन उठा वेग कुछ उर में आकर ,
मन मेंं उमड़ा कहीं पते पर लिखा न मेरा नाम उचारे !
*
दूर कर दिये स्वरमाला से कुछ आखऱ जो भूल सकूँ मैं ,
होठों पर ताला डाला जो कभी स्वरों के वेग बहूँ मैं
लेकिन यत्न व्यर्थ, जिस रँग से पोते उसने और उभारे !
*
पानी डाला धो डालूँ , पर लगा रंग गहराता कपड़ा !
बढ़ता गया उमर के सँग निजता को खो देने खतरा !
कैसा नाम तुम्हारा जिसकी प्रतिध्वनि- हर ध्वनि में गुँजारे !
***

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009


उज्जयिनी से -

खींचता मुझको सदा उस पुण्य-भू मे ,
कौन सा अज्ञात आकर्षण न जाने ,
बीत कर भी  टेरता है विगत मुझको
कौन सा मधुमास सोया है न जाने !
*
मुग्ध हो उठता स्वयं उर
कौन सा हिमहास छाया है न जाने,
छलक उठता नीर नैनो मे अचानक
कौन सा विश्वास खोया है न जाने !
*
दूर,कितनी दूर ,लेकिन कल्पना का स्वर्ग
आकर स्वप्न मे साकार सा है !
काल की अस्पष्टता का आवरण ले
कौन सा सौंदर्य अब भी झाँकता है !
*
आज युग से वर्ष मानो बीत कर भी
खींच लाते हैं पुरातन मुक्त बेला !
आज जीवन के सरल वरदान मे भी
चुभ रहा है एक ही कंटक अकेला !
*
कौन शैशव सा सहज निष्पाप आकर
जा चुका अनजान ही मे ?
कौन बचपन का सरस उल्लास देकर
रम चुका है ध्यान ही में !
*
कौन सी वह शक्ति मोहक
आज भी ललचा रही है ,
मौन सा संकेत देकर जान पडता
पास मुझे बुला रही है !
*
!कौन से आराध्य की आराधना मे
नत हुआ मस्तक स्वयं ही !
कौन वर की साधना में
अर्घ्य बन कर चढ चुके आँसू स्वयं ही !
*
कौन पावनता अछूती
आज भी तुममे बसी है,
स्नेह मय आमंत्रणों मे
कौन सी सुषमा छिपी है !
*
दे रहा अब भी निमंत्रण
शस्य-श्यमल मृदुल अंचल ,
एक नूतन आश का संदेश देकर
स्मृति पट पर कर रही है नृत्य चंचल !
*
कौन सी मधुता भरी तेरी धरा
में मौन हे मालव बता दे !
कौन सी गरिमा समाई है कणों में
रम्य क्षिप्रा तट बता दे !
*
उर स्वयं भरता अवंती भूमि तेरे
स्वर्ग से सौंदर्य की उस याद से ही ,
एक अनबूझी अनूठी भावना से
एक अप्रकट ,अकथ मधु अनुराग से ही !
*
कौन से मीठे सुहाने गान,
कल-कल राग में आ बस गये हैं
कौन सी निरुपम छटा से ,
अवनि अंबर सज गये हैं !
*
बाँध लेता मुग्ध मन को क्षितिज बंधन,
हृदय की स्वीकृति बिना ही !
बोल जाती है मधुर सी मन्द भाषा ,
स्वयं आकर किन्तु बतलाये बिना ही !
*
एक क्षण अपलक बने दृग
देख लेते कल्पना में रूप तेरा ऍ
एक पल विस्मय भरा आ
छोड जाता है अमित उल्लास तेरा !
*
कौन है जो खिंच न आये
एक ही तेरी झलक में
ऊब जाये रम्य भू से ,
कौन निर्मोही जगत में !
*
बढी आती कौन सा सन्देश लेकर
दूर से चल कर यहाँ क्षिप्रा पुनीता !
चिर पुरातन,चिर नवीना ,धान्य पूरित
रम्य धरणी नेहशीला !
*
ज्योत्स्ना सी बिछी जाती है धरा पर
कौन से निर्मण की यह मुक्त बेला!
भर रहा है इस गहन रमणीयता में ,
कौन सा जादू अबोला !
*
भोर की अरुणिम उषा सी
राग-रंजित दिग्दिगंता ,
मुक्त अँबर वसन धारे
काल की नगरी अचिन्ता !
*
ध्यानमग्ना शान्त ,निश्चल ,
मौन पावन तापसी सी
किस तपस्या में निरत हो,
देवता की आरती सी !
*
काल के अपरूप से होकर अपरिचित,
महाशिव के ही अमित वरदान सी तुम !
रम्य मंगलमयि धरा के
सत्य की पहचान सी तुम !
*
चिर मधुर कविता विधाता ,
कर गया अंकित किसी अदृष्य लिपि में !
मूर्तिमय कर भाव लेकिन,
हृदय की अस्पष्ट छवि में !
*
एक आश्रम है किसी निर्धन गुरु का
और दो गुरु भाइयों की नेहशाला,
एक राजा भिखारी मित्र के प्रति
स्नेह -समता से भरा व्यवहार सारा !
*
और भी आगे मनुज के
बुद्धि के उत्थान की साहित्यमाला ,
काल-दंशन से सुरक्षित है अभी भी
किन्हीं प्रतिभाशालियों की ग्रन्थमाला !
*
हर डगर पर धान्य धर कर,
प्रति चरण पर वार पानी ,
सघन वृक्षों का निमंत्रण दे बुलाती ,

यह धरा की नाभि, नव-ऊर्जा प्रवाहिनि!


*
हे अमर सौंदर्य ,
पिछले प्रात की अनुपम निशानी !
दिव्य उज्जयिनी ,तुम्हीं
अमरत्व कीमधुमय कहानी !
*
बीतती सदियाँ कभी ,
सौंदर्य फीका कर न पायें !
बेधती युग यंत्रणायें
मान तेरा पर न पायें !
*
आज युग की वंचना से दूर बैठी
कौन सा विश्वास अँतर मे छिपा है ,
प्राण में स्वर्णिम अतीतों की झलक है
कल निनादों से हृदय अब भी भरा है !
*
महाकालेश्वर ,स्वयं धर कर वरद कर
सफल कर दें अर्चनायें !
झुक स्वयं जायें तुम्हारीपुण्य भू में,
आज की क्षोभों भरी दुर्भावनायें !
*
वीर विक्रम की नगरि में ज्योति किरणे
भर रहीं सुविकास युग का
ओ अवंती ,आज क्षिप्रा की लहर में,
खोजने आईँ सजीला प्रात युग का !
***