बुधवार, 23 जून 2010

बंधु रे !

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बंधु रे ,
लौट चलो अब !
इतनी देर मत कर देना
कि तुम्हारी ही धरती तुम्हें पहचान न सके ,
:भूल जाये तुम्हारा नाम और पहचान ।
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अभी तुम्हें याद करते हैं सब ,
बहिन-भाई ,मित्र -पहपाठी अपने पराये :
सभी को ध्यान है तुम्हारा !
इतनी देर मत लगा देना कि ,
अपरिचित बन जायँ प्रिय स्थान ,
कभी ढूँढो किसी आँख में अपनापन,
पर रह जाओ एक अजनबी.
उसी मिट्टी के लिये ,जिसने रची यह देह ;
उसी हवा से जिसने जीवन को साँसें दीं !
उसी जल से जिसने सींचा तन- मन को
भरा कितने नयनों को चलती बार !
इन मौसमों ने बरसों रच -रच कर
सँवारा कि तुम 'तुम' बन सके !
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नई धरती !
जहाँ जुड़ने के लिये खोजते हो हम वतन को !
घर में क्या कभी किसी को
ढूँढने की जरूरत पड़ी थी ?
ओ रे बंधु ,
इतनी देर मत कर देना कि
यहाँ की हवायें तुम्हारा रंग बदलने लगे
और अपनी ही पहचान गँवा बैठो तुम !
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बस चलो अपने घऱ !
कहीं ऐसा न हो
कि फिर कभी
लौटना संभव न रहे !
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सोमवार, 14 जून 2010

मछरिया बता ,

भाग 1.
कितनी गहरी है नदिया मछरिया बता ,
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पानी कितना है होगा तुझी को पता !
और क्या-क्या लिखे जा रही ये लहर
साक्षी तू निरंतर , मुझे भी बता,
अक्षरों से बना औ' मिटा नीर पर
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और बढ कर कहाँ से कहाँ जायगी
तू शुरू से बता ये पुरानी कथा ,
बुदबुदा कर हवा ने यहाँ जो कहा ,
और लहरों ने पानी में क्या क्या रचा
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डूब कितनी लहर की मुझे तू बता !
बाँह फैला उमड़ती हुई बढ़ रही,
रूप औ रंग रच-रच सँवारे गये ,
फिर सभी कुछ समेटे लिये फिर गईं !
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री बता तू कहाँ से चला सिलसिला
किस तरह काल ने लीं यहाँ करवटें !
गुज़रीं सदियाँ यहाँ काफिलों की तरह,
तल में शायद पड़ी हों कहीं सलवटें !
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ओ री मछली, तुझे तो सभी है पता ,
कितनी गहरी है नदिया मछरिया बता !
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भाग 2.
इस जल में भँवर जाल फैले हुए
मैं न जानू ये धारा कहाँ से चली ,
ये हैं सारी ही बाहर की परछाइयाँ!
और कोरी पड़ी भीतरी है तली !
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नीर टिकता नहीं इस नदी में कहीं
चला आता है जाता है बहता चला ,
एक भी बूँद थिर रह न पाती कहीं
और रहता है उतना का उतना बना !

मैं न जानूँ कि कितना यहाँ नीर है,
ऊपरी तह सजाये है सब हलचलें ।
कैसी सीपें हैं कैसे हैं मोती यहाँ
कौन आये यहाँ डूब कर थाहने !
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इसमें बहने से कोई नहीं बच सका ,
हाँ यहीं से चली है कथा काल की !
बस दिखाती हैं बाहर के रँग रूप को,
जो समाया कभी भी बताती नहीं!
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और हर पल बिछलते लहर जाल में
डोलती झूलती सिर्फ़ परछाइयाँ ,
ये तो आता है जाता है बहता चला ,
रूप रंगों रचा, धूप- छाहों भरा !
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रोशनी जो दिखाती अनूठा जगत ,
रूप के बिंब हैं बाहरी वे सभी !
ओ रे पागल ,जहाँ रम रहा आज तू
जाने कितने वहाँ बस चुके हैं कभी !

गुरुवार, 10 जून 2010

रोशनाई से .

स्याही से नहीं रोशनाई से लिखो कलम !
लेखनी , सँवारो रूप-रंग शब्दों का भी,
उद्घाटित कर दो मर्म कि सब छँट जायँ भरम.
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अध्याय बदल दो ,पन्ना नया पलट लो अब ,
कुछ नई अर्थिता चिंगारियां बिखर जाएं.
इस अंध तमस में तपन प्रज्ज्वलित भऱ स्वर की
निर्बाध बहें शिव-संकल्पों की धाराएँ !
निखरे-निखरे पल हों, विरोध- प्रतिरोध शमन.
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कैसा विश्राम ? थकन का नाम न ले यह गति ,
मति आत्मसीमिता रहे न विभ्रम की कारा.
यह समय निरर्थक जाय न ऊहापोहों में ,
ऊर्जित मन के आकाशों में हो ध्रुव तारा.
नभ छोर जगा दें प्रखर दीप्ति के आवाहन !
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स्याही से नहीं रोशनाई से लिखो कलम !
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