*
बंधु रे ,
लौट चलो अब !
इतनी देर मत कर देना
कि तुम्हारी ही धरती तुम्हें पहचान न सके ,
:भूल जाये तुम्हारा नाम और पहचान ।
*
अभी तुम्हें याद करते हैं सब ,
बहिन-भाई ,मित्र -पहपाठी अपने पराये :
सभी को ध्यान है तुम्हारा !
इतनी देर मत लगा देना कि ,
अपरिचित बन जायँ प्रिय स्थान ,
कभी ढूँढो किसी आँख में अपनापन,
पर रह जाओ एक अजनबी.
उसी मिट्टी के लिये ,जिसने रची यह देह ;
उसी हवा से जिसने जीवन को साँसें दीं !
उसी जल से जिसने सींचा तन- मन को
भरा कितने नयनों को चलती बार !
इन मौसमों ने बरसों रच -रच कर
सँवारा कि तुम 'तुम' बन सके !
*
नई धरती !
जहाँ जुड़ने के लिये खोजते हो हम वतन को !
घर में क्या कभी किसी को
ढूँढने की जरूरत पड़ी थी ?
ओ रे बंधु ,
इतनी देर मत कर देना कि
यहाँ की हवायें तुम्हारा रंग बदलने लगे
और अपनी ही पहचान गँवा बैठो तुम !
*
बस चलो अपने घऱ !
कहीं ऐसा न हो
कि फिर कभी
लौटना संभव न रहे !
*
बंधु रे ,
लौट चलो अब !
इतनी देर मत कर देना
कि तुम्हारी ही धरती तुम्हें पहचान न सके ,
:भूल जाये तुम्हारा नाम और पहचान ।
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अभी तुम्हें याद करते हैं सब ,
बहिन-भाई ,मित्र -पहपाठी अपने पराये :
सभी को ध्यान है तुम्हारा !
इतनी देर मत लगा देना कि ,
अपरिचित बन जायँ प्रिय स्थान ,
कभी ढूँढो किसी आँख में अपनापन,
पर रह जाओ एक अजनबी.
उसी मिट्टी के लिये ,जिसने रची यह देह ;
उसी हवा से जिसने जीवन को साँसें दीं !
उसी जल से जिसने सींचा तन- मन को
भरा कितने नयनों को चलती बार !
इन मौसमों ने बरसों रच -रच कर
सँवारा कि तुम 'तुम' बन सके !
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नई धरती !
जहाँ जुड़ने के लिये खोजते हो हम वतन को !
घर में क्या कभी किसी को
ढूँढने की जरूरत पड़ी थी ?
ओ रे बंधु ,
इतनी देर मत कर देना कि
यहाँ की हवायें तुम्हारा रंग बदलने लगे
और अपनी ही पहचान गँवा बैठो तुम !
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बस चलो अपने घऱ !
कहीं ऐसा न हो
कि फिर कभी
लौटना संभव न रहे !
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