साँझ-चिरैया उतरती अपने पंख पसार,
जल-थल-नभ में एक सा कर अबाध संचार.
मुट्ठी भर-भर कर गगन दाने रहा बिखेर,
उड़ जायेगी देखना चुन कर बड़ी सबेर.
श्यामल देह पसार कर रचती रूप अपार
सब पर टोना कर रही मूँद दिशा के द्वार.
आँखों में भर मोहिनी सभी ओर से घेर,
डाली माया नींद की फैला कर अँधेर .
तम के पट में रात भर चलता वामाचार,
अंजलि भर भर छींटती शाबर मंत्र उचार.
कामरूपिणी भैरवी, विचरे परम स्वतंत्र
रही साधती पूर कर चक्र, अघोरी तंत्र.
भ्रष्ट योगिनी भटकती धरती के हर छोर
फेरा देती नित्य ही, टिकती किसी न ठौर .
मोहन-मारण साधती, करती नये प्रयोग
रातों की चादर तले नित नवीन संजोग.
मुँह लटका, हतप्रभ हुआ मौन रहा है हेर ,
सारा आँगन छोड़, जा बैठा चाँद मुँडेर !