बुधवार, 30 मई 2012

कृतज्ञ


*
प्रिय धरित्री,
इस तुम्हारी गोद का आभार  ,
पग धर , सिर उठा कर जी सके ,
तुमको कृतज्ञ प्रणाम !
*
ओ, चारो दिशाओँ ,
द्वार सारे खोल कर रक्खे तुम्हीं ने ,
यात्रा में क्या पता
किस ठौर जा पाएँ  ठिकाना.
शीष पर छाये खुले आकाश ,
उजियाला लुटाते ,
धन्यता लो !
*
पंचभूतों ,
समतुलित रह,
साध कर धारण किया ,
तुमको नमस्ते !
रात-दिन निशिकर-दिवाकर
विहर-विहर निहारते ,
तेजस्विता ,ऊर्जा मनस् संचारते ,
नत-शीश वंदन !
*
हे दिवंगत पूवर्जों ,
हम चिर ऋणी ,
मनु-वंश के क्रम में
तुम्हीं से  क्रमित-
 विकसित एक परिणति .
 पा सके  हर बीज में
अमरत्व की संभावना ,
अंतर्निहित  निर्-अंत चिन्मय भावना .
श्रद्धा समर्पित !
*
- प्रतिभा.

शनिवार, 12 मई 2012

रूप कैसा माँ तुम्हारा ?


व्यक्त कैसे हो अवर्ण्य स्वरूप ,
हो किस भाँति चिन्तन,
करूँ मैं किस भाँति भावन, रूप-गुणमयि माँ तुम्हारा !
रूप कैसा माँ तुम्हारा ?
*
 मैं अव्यक्त, अरूप, ऊर्जा- रूपिणी ,
 मैं नित-नवीना , काल की सहचरि निरुक्ता .
मैं प्रकृति , लीला विलासिनि ,
मैं समुच्चय ज्ञान का, इच्छा-क्रिया का !
 त्रिगुण  मुझमें विलय ,मुझसे ही विभाजित
समाहित धन-ऋण स्वयं में , शून्य को आपूर्ण करती .
धारणा निष्क्रिय ,अरूप विचारणायैं
मैं  सुकल्पित रूप दे , अभिव्यक्त करती .
*
 देह की  जीवन्तता में मोद भर-भर ,
नेह-पूरित चेत भर जड़-जंगमों में
मृदु ,कठोर ,यथोचिता बहुरूपिणी मैं ,
युग्म -क्रीड़ा ,नित नये आकार,अनुक्रम,
दीप्ति भर  , माटी कणों में .
प्रकृति हूँ  आद्या , उदर में अंड  धारे ,
सृजन का दायित्व धारे अवतरी हूँ .
जन्मदात्री हूँ, सतत चिद्भाव-वासिनि ,
 आदि रहित, निरंतरा बढ़ती  लड़ी हूँ.
अखिल विद्या-रूप , मेरी ही कलायें ,
  सकल नारी रूप जग के ,अंश मेरे !
*
 धन्य हूँ मैं ,परस ऊर्जा-कण तुम्हारे ,
नारि-तन धारे सृजन की अंशिका हूँ ,
महालय-मय गीत की कड़ियाँ सँजोती
रंध्रमयि हूँ, पर तुम्हारी वंशिका हूँ !
*
- प्रतिभा .

सोमवार, 7 मई 2012

नेह भर सींचो


 नेह भर सींचो कि मैं अविराम जीवन-राग दूँगा .
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हरित-वसना धरा को कर ,पुष्प फल मधुपर्क धर कर
बदलते इन मौसमों का शीत-ताप स्वयं वहन कर 
पंछियों  की शरण बन कर ,जीव-धारी की तपन हर ,
 वृक्ष हूँ मैं व्रती ,पर-हित देह भी अर्पण करूँगा . 
 *
गीत-गुंजन से मुखर कर वीथियों को और गिरि वन 
प्राण के पन से   भरूँगा जो कि  माटी से लिया ऋण 
मैं प्रदूषण का का गरल पी ,स्वच्छ कर  वातावरण को
कलुष पी पल्लवकरों  से  प्राण वायु बिखेर दूँगा .
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लताओं को बाहुओँ में साध कर गलहार डाले ,
पुष्पिता रोमांचिता तनु देह जतनों से सँभाले ,
रंग  दीर्घाएँ करूँ जीवंत  अंकित कूँचियाँ  भर,
स्वर्ग सम वसुधा बने, सुख-शान्ति-श्री से पूर दूँगा !
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तंतु के शत कर  पसारे , उर्वरा के कण सँवारे ,
 नेह भीगे  बाहुओं से थाम कर तृणमूल सारे 
मूल के दृढ़ बाँधनों में खंडनों को कर विफल 
इन  टूट गिरते पर्वतों को रोक कर फिर जोड़ लूँगा .
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जलद-मालायें खिंचें, आ मंद्र मेघ-मल्हार गायें ,
अमिय कण पा बीज, शत-शत अंकुरण के दल सजायें,
धरा की उर्वर सतह को सींच कर मृदु आर्द्रता से ,
पास आते मरुथलों को और दूर सकेल दूँगा .
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 रूप नटवर धार करते कुंज-वन में वेणु-वादन   
 जल प्रलय वट- पत्र पर विश्राम रत हो सृष्टि-शिशु बन
तरु खड़ा जो छाँह बन वात्सल्यमय अग्रज तुम्हारा 
मैं कृती हूँ ,नेह से भर,  सदा आशिर्वाद दूँगा !  
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 नेह भर सींचो कि मैं अविराम  जीवन राग दूँगा .

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