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स्वर्ण मुक्ता रतन की ठनक है बहुत ,
काँच की चूड़ियों की खनक और है .
मोल उनका बज़ारों में खुल कर लगे ,
पाप इनके लिये दूसरा ठौर है .
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झिलमिली सी झनक में बिखरती
लहर सी ,तरंगित तरल-सी मधुर व्यंजना.
रेशमी रंग की पारदर्शी दमक
पर सँभल कर कि कस कर पकड़ना मना .
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टूटने का ,बिखरने का, चुभने का डर
चूड़ियाँ मौल जायें तो जुड़ती नहीं
काँच की चूड़ियाँ लिख गईं नाम से
रत्न-मु्क्ता किसी के हुये हैं कहीं !
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काँच की चूड़ियों में प्रणत स्वर लिये ,
मान भीनी,सहज भंगिमा भाव की
कुछ लजीली झिझक की निमंत्रण भरी
मोहमय एक मनु हार सुकुमार-सी .
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चार दीवार औ' छाँह सिर पर मिले ,
घर बनातीं ,रहो तुम कि अधिकार से ,
काम रोके बिना ही खनक या छनक
मूड़ अपना जतातीं मुखर नाद से .
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राग सुन ,बेलने का इशारा समझ ,
लोइयाँ नाचतीं गोल रोटी बनीं ,
दाल में तुर्श तड़का झनाके भरा,
सब्जि़याँ बिन छनाके के रसती नहीं .
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मिल गईं भाग से तो जतन से रखो ,
चोट खाकर न चटकें चुभन से भरें .
ये असीसों भरी चूड़ियाँ रँग-रची ,
नेह-बाती बनी पंथ रोशन करें !
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