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लौट जाएँगे सभी आरोप ,
मुझको छू न पा ,
उस छोर मँडराते हुए .
तुम निरे आवेश के पशु
तप्त भाषा घुट तुम्हीं में ,
बर्फ़ बन घुल
दे विफलता बोध.
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बहुत अस्थिर ,
बदलते पल-पल
बहुत अक्षम ,बिचारे ,
जब न संयम ,
धुआँ बन कर,
घेर लेंगे ये सुलगते हर्फ़
क्या करेंगे तर्क सारे अनविचारे.
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सिर्फ़ मनःविलास की ललकार .
अहंकारों की उपज जो
चाहता स्वामित्व का अधिकार ,
रे मदान्ध ,किसे दिखाता रोष
मैं नहीं लाचार .
है मुझे यह युद्ध भी स्वीकार .
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झेलती प्रतिघात मैं
सब बूझ लूँगी ,
सिर पटकता जो विवश आक्रोश ,
खूँदते धरती विवश
डिडकारते ,भरते कराहें
बल दिखा धिक्कारता
तेरी विमति की मंडली से जूझ लूंगी .
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और ,दूषण लगाना आसान कितना,
आत्म मुग्ध,स्व-वंदना के राग गाकर
अरे दुर्मद,
कौन से पट को हटाना चाहता तू .
देख पाए किस तरह
चिर- आवृता मूला प्रकृति मैं
दृष्टि का विस्फोट ,अंध अशील तू
तत्क्षण विवृत हो पंचभूतों में मिलेगा
*
देख रुक कर -
और पी लूँ मद कि कि हों रक्ताभ लोचन ,
हो कि यह उन्माद गहरा ,और पी लूँ
और पी लूँ क्योंकि पशु पर वार करते ,
कहीं करुणा जाग कर धर दे न पहरा.
गमक जाए राग, आनन पर लपट सा ,
दे सकूँ बलि कर निरंश निपात पशु-तन
*
गरलपायी ,कामजित् भूतेश
मेरी साधना,
केवल सदा- शिव हेतु,
यह जन्मान्तरों तक व्रत पलेगा .
किस तरह हो शक्ति, पशुता को समर्पित ,
कराली भयदायिनी का
शिेवेतर उपचारणा के हेतु
यह अनु- क्रम चलेगा .
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रूप से विस्मित-विमोहित ,
विभ्रमित-सा चाहता सामीप्य
तेरी लालसा पूरी करूँगी
अंततः हो कर सदय
सायुज्य दे सम्मुख धरूँगी
पक्ष हों प्रत्यक्ष दोनों
महिष-मानुष तू रहे
प्रत्यक्ष करता भूमिका,
दृष्टान्त-सा प्रस्तुत करूँगी
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मंच की हर वेदिका पर
अर्धमानव- वपु धरे,
तेरा अहं बलिपशु बना,
प्रतिबद्ध हो.
तेजोमयी के साथ
तमसाकार अब प्रत्यक्ष हो .
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निरूपण मेरा जहाँ ,
तू रह उपस्थित,
देख ले संसार ,मूला प्रकृति का ऋत.
मातृशक्ति समक्ष ,
लालायित ,विमोहित विवश नर पशु
तेजहत, असमर्थ होगा.
जहाँ मैं चिद्रूपिणी, ओ महिषमति
विद्रूप बन तू भी रहेगा .
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