शनिवार, 24 सितंबर 2011

भू- स्तवन. (पूर्वार्द्ध).

*

एक पग को टेक तिरछी नृत्य की मुद्रा बनाये.

ऊष्ण शीत सुबंध, विषुवत् मेखला कटि में सजाये

देह के हर लास्य का लालित्य वर्तुल द्वीप खाड़ी ,

हरित अँगिया मखमली सागर लहरती नील साड़ी.

*

ऋत नियम धारे, धरे हो , सृष्टि का अनिवार्य यह क्रम

घूम भर भऱ लट्टूओँ सा, ललित लीला लोल नर्तन ,

सूर्य उत्तर और दक्षिण अयन रह रह कर निहारे

सप्त-विंशति कलायें धर चन्द्रमा आरति उतारे

*

नित नये परिधान ले ऋतुयें बनी परिचारिकायें ,

गमन का पथ घेर चलतीं व्योम की नीहारिकायें.

इस अपरिमित नील के विस्तार में लीला-विलासिनि ,

अवनि देवि वसुन्धरे ,हरि-पत्नि प्रकृति की सुकृति तुम

*

अनगिनत उडुगन तुम्हारे पंथ पर दीपक जलाये ,

सप्तऋषि देते परिक्रम, अटल ध्रुव माथे सजाये.

हवाओं के रुख तुम्हारे इंगितों पर हो विवर्तित

घाटियों में शंख ध्वनि भऱ गिरि- शिखर हर छोर गुँजित.

*

शुक्ल-कृष्ण द्विपक्षिणी धीमे उतरतीं रात्रियाँ जब

विभुमयी होकर दिशाओं में कुहक-सा पूरतीं नव

चँवर लहराता चतुर्दिश घूमता पवमान चंचल

मेघ-मालायें उढ़ायें बिजलियों से खचित आँचल ,

*

ताप हरने के लिये भर-भर अँजलियाँ अर्घ्य का जल

रजतवर्णी राशि हिम की कहीं,, मरुथल कहीं वनथल ,

सप्त द्वीप सुशोभिता, पयधार मय पर्वत अटल दृढ़

घाटियाँ ,मैदान, सर, सरिता, सहित गिरि-शृंखला धर ,

*

खग-मृगों से सेविता ,गुँजित गगन रंजित दिशांगन ,

जन्म लेने जहाँ लालायित रंहे हरदम अमरगण .

अंतरिक्षों की प्रवाहित व्योम गंगा में थिरकती ,

नील द्युति धारे गगन की वीथियों को दीप्त करतीं

*

वृक्ष नत-शिर पुष्प-पल्लव प्रीति हेतु तुम्हें चढ़ाते

खग-कुलों के गान ,स्तुति मंत्र की शब्दावली से

नित नये आकार रचतीं ,पोसतीं,  विस्तारतीं तुम

काल की गलमाल को दे दान, नित्य सँवारतीं तुम .

*



शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कितने रूप ,कितने नाम.


कितने रूप ,कितने नाम,
तुम्हें समझना कहाँ आसान !
*
कभी  भान भुलाती बाँसुरी की तान  ,
तोड़ सारी वर्जनायें
रीति-नीति -मर्यादा ,
रास की रस- मग्नता में  .
आत्मविस्मृति के लोकान्तरों तक  ,
सब हो गईं तुम्हारे नाम .
*
कहता रहे जिसे जो कहना हो ,
निपटता रहे संसार
अपनी मिथ्या मान्यताओँ से,
सोलह हज़ार अपहृताओं के माथे से
धो-पोंछ  लांछन के दाग़.
ब्याह लिया  अनायास !
मान-सम्मान , पत्नीत्व का गौरव दे ,
सार्थक कर नारी -जीवन,
रह गये निरे तटस्थ स्वयं,  
निर्लिप्त ,निष्काम ,निर्बाध !.
* ,
न दैन्य,न पलायन ,
जय-पराजय , यश-अपयश ,सुख-दुख, से.
निस्पृह-निर्भय .
सारे सिद्धान्त,सारे आचार-व्यवहार ,
प्रेम ,भक्ति, ज्ञान ,
कर्मशीलता का संपूर्ण मर्म
जीवन- व्यवहार का निराडंबर धर्म
व्यक्त कर  आचरण में,
तुम्हीं तो रहे प्रतिमान !
*
अनवरत  मंथन का सार तत्व ,
गीता का संपूर्ण निरूपण ,
साक्षात तुम्हारा  जीवन ,
रे माखन चोर,
 समेटते ,संचित करते रहे थे जो,
विपत-काल में
विषादमग्न पार्थ को सौंप
चुका दिया सारा उधार ,
ब्याज समेत !
*
सिर धर गान्धारी का शाप
देखते रहे वंश-नाश ,
निरुद्विग्न ,शान्त,!
रे गिरधारी ,
 ग्रहण कर सभी के शोक-ताप
 हो गये स्वयं विश्वात्म ,विश्व-रूप ,
आकुल मन-मृग के पूर्ण -विश्राम !
*

सोमवार, 5 सितंबर 2011

वसुषेण


*
 यह  कविता लिखने को प्रेरित किया था  मेरी मित्र शार्दुला जी ने.
जिनने पूर्ति हेतु एक वाक्यांश दिया था -'कर्ण! क्या तुमने था सोचा'
मैंने जो  पंक्तियाँ लिखीं ,उनके आगे  उनके दो प्रश्न खड़े हो गये.
( उनकी पूरी कविता न दे कर दोनों प्रश्नों वाला अंश प्रस्तुत कर रही हूँ )
जिेनके समाधान हेतु 'वसुषेण ' की रचना हुई.--
*
. कर्ण!
मैं तुम्हारी हूँ प्रशंसक, ये प्रकाशित
मात्र दो ही उत्तरों की हूँ अपेक्षित
अपमान कर के द्रौपदी का, चैन आया हाथ?
अभिमन्युवध के बाद  क्या तुम सो सके एक रात?
क्यों  श्रृंगालों सा सिंह शावक दबोचा ?
कर्ण! तुमने क्या था सोचा!
-शार्दुला, 
**
मेरी बात -
दीर्घ अवधि से संचित क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला जब धधक उठती है तो इन्सान को कुछ नहीं सूझता .मनुष्य अंततः मनुष्य है- अपनी दुर्बलताओं और सामर्थ्य दोनों के साथ ..
-वसुषेण ( कर्ण )की उस मनस्थिति की कल्पना कर सकती हूँ .
.प्रस्तुत है -
*
वसुषेण -
मेरा बस कब रहा कहीं ,यों ही यह जीवन बीता
देख लिया कितने आडंबर कितने मिथ्यावंचन,
अंक लिखे विधि ने ,जाने कितनी काली स्याही से,
सारा कुछ कलंक बन बैठा ,जो कर पाया अर्जन.
*
अपना कभी न समझा जिनने मुझे हीन ही माना, .
यहाँ एक के ही कारण तो हुआ सदा अपमानित,
प्रतिद्वंद्वी सा पार्थ खड़ा हो जाता बाधा बन कर
पैने व्यंग्य-बाण लहराती कृष्णा भी चिर-परिचित !
*
नामी वंश ,काल के क्रम में छायायें डस लेतीं
कुछ होते  शृंगार किन्तु कुछ बन  अंगार दहाते ,
कुल ही क्या अनिवार्य योग्यता मान न कुछ पौरुष का
पौरुषहीन  नपुंसक रोगी भी कुलीन  कहलाते ,
*
मानव के संस्कार ,भंगिमा ,वाणी , दीपित अंतर,
तन-मन का विन्यास ,सहज औदात्य तत्व पूरित उर
सारी क्षमताएं फिर भी मैं  हीन रहा परपेक्षी ,
कौन शमित कर पाया विषम व्यथा देते वे कटु स्वर !
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जिसने  बहा दिया पानी में बड़ी कुलीना होगी
हतभागा वसुषेण  ,भाग्यशाली  कितना द्वैपायन
 कुमारिका धीवर -माता  की ममता की  स्वीकृति पा
जो उदाहरण  सम्मुख उसको मेरा शत-शत वंदन  !
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एक दूसरी कुलवंती का हठ 'अभिमान प्रबल था ,
मेरा पौरुष प्रखर , शौर्य  हर बार रह गया ओझल,
सारे पूर्वाग्रह लेकर अपने ऊहापोहों में,
आत्मकेन्द्रित हो मेरा व्यक्तित्व कर दिया निष्फल !
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वहाँ सभा के बीच सभी को टेर-टेर कर हारी ,
एक बार ,बस एक बार  चाहती कर्ण का संबल ,
टकरा जाता स्वयं काल से लाज बचाने के हित ,
किन्तु उपेक्षित रहा वहाँ भी , दहक उठा अंतस्तल
*
टूट गया मैं , सारे पिछले घाव हरे हो आये
.क्रोध और प्रतिशोध अंध कर गया विभ्रमित मति को ,
कौन विचार करे उस पल तुल गया कि कुछ कर बैठूँ ,
कौन लगाता अंकुश तब विक्षुब्ध हृदय की गति को
*
कौन बचायेगा अब देखूँ ,बहुत परीक्षा ले ली ,
देखूं यह कुलीन तन औरों से कितना न्यारा है
हार नहीं मानी पर मेरा यह अस्तित्व अभागा
अपनी मान-प्रतिष्ठा खो कर लगता बेचारा है..
*
इस अकुलीन कर्ण से, कृष्णा कैसे कुछ चाहेगी ,
इतना द्वेष प्रतारण का कुछ तो चुक जाये बदला
और उसी आवेशित क्षण में क्षुब्ध हृदय पगलाया
आज अभी चुकता कर लूँ  सारा अगला-पिछला.
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और दूसरी बार युद्ध में किसने नीति निभाई ,
धर्म राज ने मिथ्या को सच का पर्याय बनाया
वासुदेव ने बड़ा कुशल नीतिज्ञ रूप धारण कर ,
कितने नाटक रचे उन्हीं के हित में खेल रचाया.
*
पार्थ- पुत्र मेरे पुत्रों को हीन सदा समझेगा ,
स्वाभिमान गौरव-गरिमा से वंचित सदा करेगा,
सारे गुण -गरिमा इनके ही लिये सदा आरक्षित ,
मेरी संन्ततियों को भी यह मनस्ताप ही देगा .
*
हर दम नीचा दिखलाना ही जिनका मन रंजन है ,
किसमें कितना संवेदन है कहाँ न्याय, नैतिक बल
 तभी कृष्ण के भागिनेय को घेर लिया था उस दिन
 भीषण ज्वालाओं से फिर धधका मेरा अंतस्तल.
*
यहाँ नहीं आदर्श किसी का,सब अवसर तकते हैं ,
कैसे किसे नीति से छल से अपना दाँव चलाते.
उस दिन जब अभिमन्यु अड़ गया विपुल सैन्य के आगे,
तोड़ दिये मैंने  चटका कर रीति-नीति के धागे .
*
मैं तो त्यक्त रहा जीवन भर मुझसे क्या आशायें ,
किन्तु अंततः मैं मनुष्य हूँ ,गुण-दोषों का पुतला,
अपनी बार भूल जाते है जहाँ युधिष्ठिर जैसे,
दुर्वलता से कौन बच सका ,ज्यों कि दूध से निकला
.*
 फिर मैं तो अकुलीन ,क्षम्य हूँ ,मेरी  हस्ती ही  क्या
कृष्ण सरीखे मायावी से मैने भी गुर सीखे ,
कुछ प्रतिमान बदल जाते हैं यही विवशता मन की ,
दुस्सह लगने लगते सारे स्वाद अचानक तीखे
*
विषम काल में जिसने साधा ,सिर ऊँचा करवाया ,
सारा कौशल रीति-नीति भी  उसके दाँव धरूँगा
आज मित्र के प्रति ही मेरी निष्ठा का दर्शन हो ,
जिससे मान मिला उसके हित मैं अपमान सहूँगा ,
*
उसका हित सर्वोपरि अपना तुच्छ  स्वार्थ क्यों साधूँ ,
सुयश दिया कब किसने उसका कैसा सोच अभागे ,
जिसने मान दिया उसका हित अपने से आगे कर, ,
सारे यश-अपयश के  अपने मानक मैंने त्यागे ,
*
कुछ क्षण जिनमें सोच-समझ की क्षमता ही चुक जाये,
भान और औसान ,कहाँ टिक सके  क्रोध के आगे ,
आवेगों आवेशों के बादल  ऐसा छा लेते
टूट बिखर जाते उस पल सारे संयम के धागे ,
*
मैं एकाकी रहा ,कौन था मीत और गुरु ऐसा
हारे क्षण में साहस देता ,विभ्रमता  में संबल ,
कृष्ण ,कभी तुम आये थे अति निकट सांत्वना लेकर
अब भी छा लेते हैं जब-तब छाया बन कर वे पल .
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जो कुछ भला-बुरा संचा,अब झोली पलट दिखा दूँ ,
यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो,
चाहे कोई और न समझे ,नहीं किसी की चिन्ता,
मेरे अंतर के  सच को विश्वेश, तुम्ही पहचानो !
*
मेरे पाप-पुण्य,अनुराग-विराग , तृप्ति-तृष्णायें ,
लीन करो निज में चिर-व्याकुल मन, अशेष संवेदन !
अब ,स्वीकार करो कि अवांछित समझ झ़टक दो तुम भी ,
 विषम यात्रा की परिणतियाँ ,ठाकुर, तुमको अर्पण !
**
- प्रतिभा.