*
मेरे मन में है जो तुम्हारे लिये ,
आत्मज मेरे ,
शब्दों में समा जाये संभव नहीं .
बहुत प्रखर ,जीवन्त वे भाव,
पर भाषा की क्षमता बहुत सीमित है !
*
और प्रशंसा तुम्हारी ,
स्वयं करूँ मैं ?
कभी नहीं कर सकी जो
नहीं होगी मुझ से .
औरों के मुख से निकली
तुम्हारी सराहना ,
कानों से ग्रहण करना ,
अधिक सुखदायी है .
*
तृप्त होता है मन ,
आशीष भर कहता है -
यहाँ तक आते-आते पाया जितना ,
आगे बढ़ते बहुत अर्जित करो ;
जीवन में जो श्रेष्ठ है ,
सुन्दर है ,
प्रिय है ,
वह सब पाने में
सदा समर्थ रहो !
मेरे मन में है जो तुम्हारे लिये ,
आत्मज मेरे ,
शब्दों में समा जाये संभव नहीं .
बहुत प्रखर ,जीवन्त वे भाव,
पर भाषा की क्षमता बहुत सीमित है !
*
और प्रशंसा तुम्हारी ,
स्वयं करूँ मैं ?
कभी नहीं कर सकी जो
नहीं होगी मुझ से .
औरों के मुख से निकली
तुम्हारी सराहना ,
कानों से ग्रहण करना ,
अधिक सुखदायी है .
*
तृप्त होता है मन ,
आशीष भर कहता है -
यहाँ तक आते-आते पाया जितना ,
आगे बढ़ते बहुत अर्जित करो ;
जीवन में जो श्रेष्ठ है ,
सुन्दर है ,
प्रिय है ,
वह सब पाने में
सदा समर्थ रहो !
*