शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

मनोकामना पूरो भारति !


सुकृति -सुमंगल  मनोकामना ,पूरो भारति!  
नवोन्मेषमयि ऊर्जा ,ऊर्ध्वगामिनी मति-गति  !
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तमसाकार दैत्य दिशि-दिव में  , भ्रष्ट  दिशायें ,
अनुत्तरित हर प्रश्न , मौन   जगतिक  पृच्छायें ,
राग छेड़ वीणा- तारों में स्फुलिंग  भर-भऱ ,
विकल धूममय दृष्टि - मंदता करो निवारित !
मनोकामना पूरो भारति !
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निर्मल मानस हो कि मोह के पाश खुल चलें ,
शक्ति रहे मंगलमय,मनःविकार धुल चलें .
अ्मृत सरिस स्वर  अंतर भर-भर  
विषम- रुग्णता  करो विदारित !
मनोकामना पूरो भारति !
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हो अवतरण तुम्हारा  जड़ता-पाप क्षरित हो ,
 पुण्य चरण  परसे कि वायु -जल-नभ प्रमुदित हो.
स्वरे-अक्षरे ,लोक - वंदिते ,
जन-जन पाये अमल-अचल मति !
मनोकामना पूरो भारति !
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बुधवार, 25 जनवरी 2012

नटराज !


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हे अखिल सृष्टि-मंचों के पट के सूत्रधार ,
 जीवन-लय के चिर नृत्य-निरत  नट कलाधार !
जागृत कर  जड़ीभूत संसृति,  दे मंत्र स्वरित,
चित्-भावों में हो सकल कलायें अन्तर्हित !
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वह विगत-राग तेजोद्दीप्त तन धवल कान्त,
भस्मालेपित हे पिंगलाक्ष, शोभित नितान्त .
उच्छलित सुरसरी जटा-जूट नव-चंद्र खचित
अवतरण शक्ति का अनघ दीप्ति सहचारिणिवत्
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दिपता त्रिपुण्ड, आभामय मस्तक पर प्रशस्त
आवरण दे रहा सृष्टि-उत्स  को  अधोवस्त्र.
यह महा प्रभामंडल,ज्वालामय अग्नि-चक्र ,
कर रहा निरंतर भस्म अहंता , मोह-तमस् .
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दक्षिणोर्ध्व हस्त  में डमरु नाद का शब्द- यंत्र,
जिसकी स्वर लहरी से  झंकृत दिक्काल तंत्र ,
वामोर्ध सृष्टि-संवाहक जीवन-अग्नि  धार
सच-शुभ-सुन्दर करता कलुषित  मनसिज विकार .
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मंगल विधान दाहिना अधो-कर  अभय दान,
हे महाकाल ,धर  भूत -भविष्यत् का विधान !
कर नष्ट  अशिव  उत्थित कर  में  साधे त्रिशूल,
 थिरकन में क्षिति की उर्वरता फल-अन्न-मूल.
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 कुण्डलिन- सर्प दीपित तन पर लिपटे अथर्व
  ऊर्जा विस्फोट अपरिमित ब्रह्मांडों के दिव,
 इस  महा- सृष्टि के संचालक   नर्तक -नट विभु
नियतात्म,मुंडमाली ,विरूप ,चंडेश्वर, शुभ !
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श्लथ पड़ा चरण-तल अपस्मार निष्कल मृतवत् ,
दूजा पग कर उत्तिष्ठ , ऊर्ध्व- आरोहण  हित   ,
 अगणित आभा-मंडल बन-मिट ,पल परिवर्तित
 हो दिव्यरूप उज्ज्वल आनन्द-कला  में रत
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नटराज ,ताल -लय-मुद्रा-मय जग जीवन-क्रम ,
परब्रह्म आदि तुम ,तुम अनादि हे विधेयात्म,
भोगी-योगी निर्ग्रंथ निरंजन ,चिदानन्द.
तुम शिव ,तुम भव , हे कालकंठ ,तुम वह्नि नयन !
*
नटराज ,अनवरत-नर्तन ,महा-सृष्टि का क्रम ,
हो महातांडव या कि लास्य-लय-मय जीवन .
तुम परम ज्योतिमय,शुभ्र ,निरंजन ,विगत-काम
धर अनघ,  निरामय चरण ,कोटिशः लो प्रणाम !
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शनिवार, 14 जनवरी 2012

चंद लाइनें - आड़ी-तिरछी .

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बस से उतरकर जेब में हाथ डाला।
 मैं चौंक पड़ा।
 जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था कि—मेरी नौकरी छूट गई है;अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था। नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।
  कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।…लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया।
 माँ ने लिखा था—“बेटा,तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!…पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।”
 मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा? 
कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला।
 चंद लाइनें थीं—आड़ी-तिरछी।
 बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दियाहै। फिकर न करना।… माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे?…
तुम्हारा— जेबकतरा भाई

शुभम् भवतु कल्याणं.
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( नोट- यह लघु-कथा मेरी मित्र डॉ. शकुन्तला बहादुर ने मुझे भेजी है, .मैं इसे आप सबसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ .'आभार' इस कथा के अज्ञात लेखक के लिये  और' धन्यवाद' शकुन्तला जी के हिस्से में !)