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हे अखिल सृष्टि-मंचों के पट के सूत्रधार ,
जीवन-लय के चिर नृत्य-निरत नट कलाधार !
जागृत कर जड़ीभूत संसृति, दे मंत्र स्वरित,
चित्-भावों में हो सकल कलायें अन्तर्हित !
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वह विगत-राग तेजोद्दीप्त तन धवल कान्त,
भस्मालेपित हे पिंगलाक्ष, शोभित नितान्त .
उच्छलित सुरसरी जटा-जूट नव-चंद्र खचित
अवतरण शक्ति का अनघ दीप्ति सहचारिणिवत्
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दिपता त्रिपुण्ड, आभामय मस्तक पर प्रशस्त
आवरण दे रहा सृष्टि-उत्स को अधोवस्त्र.
यह महा प्रभामंडल,ज्वालामय अग्नि-चक्र ,
कर रहा निरंतर भस्म अहंता , मोह-तमस् .
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दक्षिणोर्ध्व हस्त में डमरु नाद का शब्द- यंत्र,
जिसकी स्वर लहरी से झंकृत दिक्काल तंत्र ,
वामोर्ध सृष्टि-संवाहक जीवन-अग्नि धार
सच-शुभ-सुन्दर करता कलुषित मनसिज विकार .
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मंगल विधान दाहिना अधो-कर अभय दान,
हे महाकाल ,धर भूत -भविष्यत् का विधान !
कर नष्ट अशिव उत्थित कर में साधे त्रिशूल,
थिरकन में क्षिति की उर्वरता फल-अन्न-मूल.
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कुण्डलिन- सर्प दीपित तन पर लिपटे अथर्व
ऊर्जा विस्फोट अपरिमित ब्रह्मांडों के दिव,
इस महा- सृष्टि के संचालक नर्तक -नट विभु
नियतात्म,मुंडमाली ,विरूप ,चंडेश्वर, शुभ !
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श्लथ पड़ा चरण-तल अपस्मार निष्कल मृतवत् ,
दूजा पग कर उत्तिष्ठ , ऊर्ध्व- आरोहण हित ,
अगणित आभा-मंडल बन-मिट ,पल परिवर्तित
हो दिव्यरूप उज्ज्वल आनन्द-कला में रत
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नटराज ,ताल -लय-मुद्रा-मय जग जीवन-क्रम ,
परब्रह्म आदि तुम ,तुम अनादि हे विधेयात्म,
भोगी-योगी निर्ग्रंथ निरंजन ,चिदानन्द.
तुम शिव ,तुम भव , हे कालकंठ ,तुम वह्नि नयन !
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नटराज ,अनवरत-नर्तन ,महा-सृष्टि का क्रम ,
हो महातांडव या कि लास्य-लय-मय जीवन .
तुम परम ज्योतिमय,शुभ्र ,निरंजन ,विगत-काम
धर अनघ, निरामय चरण ,कोटिशः लो प्रणाम !
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