शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

कभी कभी

कभी कभी महफिल से उठ कर चल देने का मन होता है,
*
जो देना था भूल गई ,आई सबसे ही अब तक लेती
कैसी यह अदम्य तृष्णा,जो नयनो को ही छाये लेती .
दृष्टि उन्हीं में रमी कि सारी समझ-बूझ हो गई किनारे
अभी रोशनी के घेरे हैं यह केवल मति-भ्रम होता है .
*
कितना जतन ,और क्या साधन, जो कुछ समाधान दे पाए
भीतर-बाहर के आरोपण हटा पात्र, दर्शक रह जाए .
डुबा-डुबा कर हारी, तन की गागर तिरती रही अकेली ,
हलका करना चाहा कितना, उर का भार न कम होता है .
*
चुप रहने से क्या जब जतला दे उतरा आता भीगापन
जिह्वा पर आ कह जाए लो चख लो अब अपना खारापन
उठते हुए सवालों का उत्तर देना हो जाय असंभव
सब से ओझल हो जाने को यही शेष उपक्रम होता है !
*

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

क्या कर लोगी

*
स्वेच्छाचारिणी ,
एक गाली है तुम्हारे लिए .
जैसा चलाया जाय चलो
और सन्नारी कहाओ!
*
स्वयंवर ?
कैसी बात करती हो !
ज़बर्दस्ती उठा लाएँगे तुम्हें ,
हो गया स्वयंवर!
*
हमारी लूट का माल ,
हमने जीता !
देंगे जिसे चाहे !
नकारा पति ,संतान पैदा न कर सका तो क्या ,
जिससे चाहें ,नियोग करवा देंगे
तुम्हारी स्वीकृति का सवाल कहाँ !
और तुम्हारी रुचि?
बेकार बात !
*
स्वीकार करना पड़ेगा जिससे हम कहें ,
चाहे वितृष्णा से आँखें बंद कर लो ,
चाहे भय से पीली पड़ी रहो ,
धृतराष्ट्र और पाँडु पैदा हो जायँ ,
हो जाने दो !
पैदा हम करवा रहे हैं .
*
हम जो चाहे करेंगे ,
बुढ़ापे को भड़काती इच्छाएँ पूरी करेंगे ,
जवान पुत्र दाँव लगा कर .
कोई क्या कर लेगा हमारा ?
*

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

कठपुतली

कठपुतली !
इंगित पर नाचती ,
डोरियों से बँधी
झूमती है मंच पर.
बाजीगर के इशारे -
खिंचती डोरियाँ
नाचती है ,
लोगों का मन बहलाने !
*
पुतली ? अलंकरणों से सजी
रिझायेगी जन-मन .
संवेदना तरल हृदय
बुद्धि की तेजस्विता ,
नारीत्व का प्रखर चेत
अपना सत्व,अपनी गरिमा
कहां से लाएगी कठपुतली ?
*
रीढ़ ही नहीं जब
कैसे थिर हो
कैसे जम कर खड़ी हो
बोध कैसे जागे अपना ,
अपने ही गर्भ-जन्मी पीढ़ियों का !
*
इस मंच का खेल खत्म होगा एक दिन ,
फीकी बेरंग , दाग़दार बनी,
फ़ालतू कबाड़ में
डाल दी जाएगी कठपुतली !
*

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

हिसा हिलाल !

हिसा हिलाल !
अभिनन्दन करती हूँ
मैं तुम्हारा !
तुमने सिद्ध कर दिया
कि अबला नहीं है एक अकेली नारी भी !
समर्थ है वह अकेली ही
उस समूची व्यवस्था को हिला देने में
जो अपने दानवी शिकंजों में
मानव-जीवन की सारी उपलब्धियाँ
नष्ट-भ्रष्ट करने पर उतारू है !
इन्सानियत को पैदा कर
ममता से पोषण देने वाली
मातृशक्ति को पैरों तले रौंद कर
वर्जनाओं में लपेट कर
बंद कर दिया सात तालों में ,
कि सारी मानवता को भेड़-बकरी बना कर
चरागाहों में बाँध दें !
कि इस धऱती के उज्ज्वल भविष्य को
अँधेरों में परिणत कर जकड़ दें
कि वे अपनी दानवी लीला का विस्तार कर सकें !
*
हिसा हिलाल ,
नमन करती हूँ -
तुममें निहित उस आदि शक्ति को,
जो पशुता के सामने सिर उठा कर डट गई है!
जो अतिचारी के अधीन कभी नहीं हुई ,
जो सदा शिवत्व हेतु तपी ,
और प्राप्त कर के रही !
जगत का नारीत्व संन्नद्ध हो रहा है
अपनी शक्तियाँ संयोजित कर ,
तुम्हारे साथ आने को !
*
स्वागत है तुम्हारा
उज्ज्वल भविष्य की वैतालिका,
सफलता तुम्हारा प्राप्य है !