शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

मैं तुम्हारा शंख हूँ !

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ज्योति से करतल,
 किरण सी अँगुलियों में
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
तुम फूँक भर-भर कर बजाओ !
नाद की झंकार हर आर्वत में भर 
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच जगाओ!

*
परम-काल प्रवाह का बाँधा गया क्षण
तुम्हीं से होता स्वरित मैं सृष्टि स्वन हूँ,
मैं तुम्हारी दिव्यता का सूक्ष्म कण हूँ !
महाकाशों में निनादित आदि स्वर का,
दश दिशाओं में प्रवर्तित गूँजता रव
हो प्रकंपित, अंतरालों में समाये शून्य भर भर !
पंचभौतिक काय में निहितार्थ धारे ,
मैं तुम्हारी अर्चना का लघु कलेवर!

*

फूँक दो वे कण, कि हो जीवन्त मृणता
इस विनश्वर देह में वह गूँज भर दो .
पंचतत्वों के विवर को शब्द दे कर,
आत्म से परमात्म तक संयुक्त कर दो ,
सार्थकत्व प्रदान कर दो !
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
स्वर दे बजाओ !
*
उस परम-चैतन्य पारावार की चिरमग्नता से,
किसी बहकी लहर ने झटका किनारे
और अब -
इस काल की उत्तप्त बालू में 
अकेला आ पड़ा हूँ !
उठा लो कर में-
मुझे धो स्वच्छ कर दो ,
भारती माँ , वेदिका पर स्थान दे दो !
फूंक भर भर कर बजाओ आरती में ,
जागरण के मंत्र में
अनुगूँज मेरी भी मिलाओ !
*
मैं ,तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण ,
मैं ,तुम्हारा शंख हूँ,
तुम फूँक भर-भऱ कर बजाओ !
मैं तुम्हार अंश हूँ ,
वह दिव्यता स्वर में जगाओ !
***
(पूर्व-रचित)

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मकर संक्रान्ति -एक चित्र.


*
बड़े दिनों बाद  पंथी आकाश का ,
उत्तर की  देहरी-घर  आ गया 
 रात लग गई  समेटने में सियाह पट
 दिनमान ठाठ से गगन-पट पे छा गया .
*
काँपती दिशाओं के हाथ-पाँव खुले और
कोहरे की चादर उतार मुख धो लिये,
बहुतै दिनन बाद फिर अइसा  लगा
जइस
 अड़ी हुई ठिठुरन ने दाँव सभी खो दिये!
*
 धुले-धुले आंगन चमक के गमक गये ,
सोंध सूँघ ,नये-नये चाउर की -सीझ से.
परसी हुई थाली में भाप भरी खीचरी ,
ऊपर जो
छोड़ दिया चमचा भर  नेह से-
*
 कन-कन पिघलता समाता-सुहाता रहा
गैया के दूध का सुनहरा रवेदार घी
लगे अइस अमरित के छींट बिखरा गया,
भरा चाव- तोष देख हो गया निहाल- जी .
*
कोरी हँडिया के दही में भीगते बरे,
हींग-ज़ीर-सोंठ  भरी  भावना  लुभा रही
छींट लाल-मिरच देख देख चटपटाय मन
खापें दुइ लाय धरीं आम  के अचार की ,
*
ताज़ी, खेत की सफ़ेद नरम पात मूलियाँ
 आँच- भुने प्लेट  धरे पापर  भी चुरमुरे 
जीभ  कुरकुराय भुरभुराय आस्वाद लेत 
धनिये की हरी-हरी चटनी और सेंत में!
*
लाय धरा तल अंगार, मंसने के हेत जल 

 देव अगनी को अरप देहु भोग अन्न का
साथ तिल-गुड़ का पाक भी प्रसन्न मन
परसाद बन जाय  पोसक  कुटुम्ब का
*
 सारे  हाथ-पाँव हाय,तिलकुट की चूर से
न्हाये-धोये बच्चों ने कइस चिपचिपा लिए
उधर अजिया ने उठा लड्डू-गुपाल भी
 देखो दही-खीचरी आरोगने बिठा लिए
 *

दौड़ो रे दौड़ो खिचड़िया सने हाथ से 
अरे गोलू ने मेरे गुपलू उठा लिये
ठैर बज्जुरी रे ठैर,महा-उत्पातिया
न्हाये-धोये  ठाकुर रे, तूने जुठा दिये .
*

 लड्डू-गुपाल चुपैचाप मुस्कराय रहे
खाय-खेल रहे छोट बच्चन के साथ ही
आज इस आँगन में सूरज उगा नया ,
हँसी-खिली धूप सी दिवार तक जा बिछी !
*

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

कार्टूनिस्ट !

ओ कार्टूनिस्ट !
नमन करती हूँ तुम्हारी  दृष्टि को !
तुम्हारी दृष्टि-
बड़े गहरे पैठ ,खींच लाती है विसंगतियाँ .
सबको सिंगट्टा दिखाती चिढ़ाती ,
टेढ़े होंठों मुस्कराते  ,
भीतरी तहें तक उघाड़ जाती है
कटाक्षभरे व्यंग्य सी  तीखी और तुर्श!

दुनिया एक व्यंजना है तुम्हारे लिए  .
 जहाँ बेतुकापन छिपने के बजाय ,
 उभर आता है 
 कुछ श्वेत-श्याम अंकनों में .
 सच को उजागर करने की कला ,
और विचित्र रूपाकारों की मुखर भंगिमा 
 कोई  तुमसे  सीखे !
सचमुच -
सच  होता ही ऐसा है!

ऐसा ही अनोखा, अनभ्यस्त, अतर्क्य!
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