शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

कुँआरी नदी.

( 'नर्मदा और शोण' की लोक-कथा का घटना-क्रम भौगोलिक परिस्थितियों पर खरा उतरता है .बहुत दिनों से इस विषय का आकर्षण मुझे खींच रहा था .सूचनाएँ ,सूत्र आदि सामग्री-संचय के यत्न चलते रहे ,पर अब लग रहा है पूरी तैय्यारी शायद कभी न हो सके,बहुत देर करने से अच्छा है जैसा कुछ बन पड़े , वाणी के अर्पण कर देना  उचित होगा.
बहुत लंबी नहीं खिंचेगी  कथा - तीन से पाँच खंड तक ही सीमित करने प्रयत्न रहेगा. प्रस्तुत है प्रथम भाग -)

 1
 धरणी-धर हैं पर्वत,साधे क्षिति की हर अकुलाहट,
हर आहट ले रक्षा करता, अपनी रीढ़ सुदृढ़ रख .
पाहन-तन गिरि की मजबूरी ,पितृवत् करता पोषण
अंतर में करुणा की धारा बहती स्नेहसुधा सम .
2
आदि युगों से जिसका वर्णन करती पुरा-कथाएँ ,
जीवनदायी स्रोत बहातीं उन्नत  गिरिमालाएँ ,
दुर्लभ भेंटें प्रकृति लुटाती ऋतुक्रम, अनुपम,अभिनव
शोभा भरी घाटियाँ बिखरातीं मरकत का वैभव.
3
धन्य अमरकंटक की धरती,धन्य कुंड ,वह पर्वत.
वन-श्री अमित संपदा धारे औषधियाँ अति  दुर्लभ
स्कंद-पुराणे रेवा-खंडे जिसे व्यास ने गाया -

वह अपार महिमा कह पाना मेरे लिए असंभव !
4
भारत-भू का हृदय प्रान्त जो उन्नत दृढ़ वक्षस्थल ,
पयधारी शिखरों से पूरित ,वन उद्भिज से संकुल.
मेखल-गिरि के राज कुंड से प्रकटी उज्ज्वल धारा ,
ज्यों मणियों की राशि द्रवित हो बहे, कि चंचल पारा .
5
कितने पुण्य! धरा पर उतरी महाकाल की कन्या ,
कंकर-कंकर शंकर जिसका ,रूप-गुणमयी धन्या .
विंध्य और सतपुड़ा की बाहों में खुशियाँ भरती ,
धरती का वरदान , 'नर्मदा' नाम सार्थक करती .
6
झरना बन कर वहीं फूट आया जब नेह शिखर का,
सोनमुढ़ा से अविरल स्रोत बह चला निर्मल जल का .
'सोन' नाम धर दिया देख कर उसका वर्ण सलोना
जो देखे  रह जाय ठगा-सा धर दो एक दिठौना.
7.
नाम नर्मदा प्यार भरा, पर रेवा भी कहलाई ,
उसे शोण की उछल-कूद वाली चंचलता भाई .
दोनों परम प्रसन्न खेलते क्रीड़ा करते चलते-
लड़ते-भिड़ते ,बातें करते, खिलखिल कर हँस पड़ते.
8.
आदिवासिनी एक प्रवाहिनि जुहिला और वहाँ थी ,
 खग-मृग से आपूर्ण वनों की हरीतिमा में बहती.
रीति-नीति मर्यादा के संस्कार रहे अनजाने ,
वन्य समाजों के अपने आचार जोहिला माने ,
9.
एक राज कन्या, मेखल पर्वत की राजदुलारी ,
दूजी, महुआ-वन के मत्त पवन की सेवन हारी .
बचपन बीता शोण बढ़ गया अपनी गति में आगे ,
दोनों बालाओं ने जोड़े प्रिय सखियों के नाते .
10.
यौवन ने दोनों पर ही अपना अधिकार जमाया
एक दूसरी से  दोनों ने अपना कुछ न छिपाया.
हँसती थी नर्मदा -मिली है कैसी मुझे सहेली -
जीवन उसके लिए सरल अति, मेरे लिए पहेली!
11.
राजकुँवरि के लिए योग्यतम आएगा प्रतियोगी.
आदिवासिनी कहीं वनों में अपना वर खोजेगी.
वीर शोण ने सिद्ध कर दिया अपना पौरुष अभिनव
मुग्ध हो गई कुँवरि, देख कर  शौर्य, रूप ,कुल, वैभव.
*

(क्रमशः)
 

शनिवार, 16 अगस्त 2014

बाउल गीत -


*
तेरे रंग डूबी, मैं तो मैं ना रही !
*
एक तेरा नाम ,और सारे नाम झूठे,
ना रही परवाह ,जग रूठे तो रूठे
सुख ना चाहूँ तो से ,ना रे, ना रे ना, नहीं !
*
एक तु ही जाने और जाने न कोई,
जाने कौन ?अँखियाँ जो छिप-छिप रोईं.
एक तू ही को तो , मन और का चही !
*
बीते जुग, सूरत भुलाय गई रे ,
तेरी अनुहार मैं ही पाय गई रे .
पल-छिन मैं तेरे ही ध्यान में बही !
*
एक खुशी पाई तोसे पिरीतिया गहन ,
तू ना मिला, मिटी कहाँ जी की जरन ,
तेरे बिन जनम, बिन अगन मैं दही !
*
कि मैं झूठी, कि  वचन विरथा -
जा पे सनेह सच, मिले - सही क्या ?
 रीत नहीं जानूँ, बस जानूँ जो कही !
*
(पूर्व रचित )

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

सर्वग्रासी -

*
यह सर्वग्रासी राग  !
संपूर्ण वृत्तियों को निज में समाहित कर  ,
सारी बोधों आच्छादित कर,

 वर्तमान से परे खींच ले जाता 
 अजाने काल-खंडों में .      ,
धरी रह जाती है चाक-चौबन्द सजगता,
विदग्धता विवश ,अवधान भ्रमित ,
सारी सन्नद्धता हवा,
और दिशा-बोध खोई मैं !
  *
अचानक रुकी रह जाती हूँ
जहाँ की तहाँ -
सब अनपहचाना ,
बेगाना ,निरर्थक .
लुप्त दिशा बोध .
वहीं के वहीं ,
कौन से आयामों में उतर कर   

संपूर्ण चेतना अनायास ,
अस्तित्व विलीन  !
 *
निर्णय नहीं कर पाती -
कहाँ हूँ !
घेर लेता चतुर्दिक् जो सर्वग्रासी राग
जीने नहीं देता .
कैसी- तो अतीन्द्रियता
डुबा लेती अपने आप में .
जैसे मैं, मैं नहीं,
रह जाए अटकी-सी  ,
हवाओं में भटकती,
कोई तन्मय तान !
*

शनिवार, 9 अगस्त 2014

धीरे धीरे....

ओ चाँद, जरा धीरे-धीरेनभ में उठना,
कोई शरमीली साध न बाकी रह जाये !
*
किरणों का जाल न फेंको अभी समय है ,
जो स्वप्न खिल रहे ,वे कुम्हला जायेंगे.
ये जिनके प्रथम मिलन की मधु बेला है ,
हँस दोगे तो सचमुच शरमा जायेंगे !
प्रिय की अनन्त मनुहारों से
जो घूँघट अभी खुला है ,तुम झाँक न लेना-
अभी प्रणय का पहला फूल खिला है !
स्वप्निल नयनों को अभी न आन जगाना ,
कानो में प्रिय की बात न आधी रह जाये !
*
पुण्यों के ठेकेदार अभी पहरा देते ,
ये क्योंकि रोशनी अभी उन्हें है अनचीन्हीं !
उनके पापों को ये अँधेर छिपा लेगा ,
जिनके नयनो मे भरी हुई है रंगीनी !
जीवन के कुछ भटके राही लेते होंगे ,
विश्राम कहीं तरुओं के नीचे छाया में ,
है अभी जागने की न यहाँ उनकी बारी ,
खो लेने दो कुछ और स्वप्न की माया में ,
झँप जाने दो चिर -तृषित विश्व की पलकों को ,
मानवता का यह पाप, ढका ही रह जाये !
*
जिनकी फूटी किस्मत में सुख की नींद नहीं ,
आँसू भीगी पलकों को लग जाने देना !
फिर तो काँटे कंकड़ उनके ही लिये बने ,
पर अभी और कुछ देर बहल जाने देना !
यौवन आतप से पहले जिन कंकालों पर
संध्या की गहरी मौन छाँह घिर आती है !
इस अँधियारे में उन्हें ढँका रह जाने दो ,
जिनके तन पर चिन्दी भी आज न बाकी है !
सडकों पर जो कौमार्य पडा है लावारिस ,
ऐसा न हो कि कुछ लाज न बाकी रह जाये !
*
ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना ...!