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श्रद्धाञ्जलि ?
ओह -
अंजलि भर फूल सिर झुका कर गिरा देना
मन का गुबार शब्दों में बहा देना ,
गंभीरता ओढ़ माथा झुका देना -
हो जाती है श्रद्धञ्जलि ?
नहीं ,
तुम्हारे प्रति
मन-बचन -कर्म से ,शब्दों में अर्पित
यह ज्ञापन है ,
हमारी अंजलि में ,
कि दायित्व सिर्फ़ तुम्हारा नहीं
हम सबका है.
छिप कर घात करती पाशविक मानसिकता का,
तुम्हें वंचित करने वाली इस अमानुषी वृत्ति का,
प्रतिकार किये बिना
ऋण - मुक्त नहीं होंगे हम -
सहस्राब्दियों की संचित थातियां,
वंशानुक्रम से प्राप्त संस्कारों में
समाये संस्कृति के आदान,
सँभालने का दायित्व ,
हर संतान का है.
यह ज्ञापन
हमारी अंजलि में ,
और अंतर मन को कचोटता पछतावा भी कि
हमारी सारी ढील की कीमत तुम्हें चुकानी पड़ी .
कि सारा दायित्व तुम पर डाल
हम निश्चिंत बैठ गये .
साँप, छिपे रहे आस्तीनों में और बाँबियों में
फूत्कारों से नहीं चेते ,
तो दोष किसका ?
नहीं अब नहीं
यह श्रद्धाञ्जलि ,
फूल नहीं ,शब्द नहीं,
अंतर्मन से उठती टेर है
आत्म- मंथन के क्षण हैं ,
एक अनुस्मरण -
कि सिर्फ़ तुम्हारा नहीं
दायित्व हम सब का है!