बुधवार, 29 दिसंबर 2010

अंतर - घट

*
कितनी आवाज़ करते बजते हैं

खोखले शब्द .

जैसे रिक्त पात्र ज़रा टकराहट में

अपनी ही झनझनाहट से डोल जाए ,

दूसरे को लक्ष्य बनाते

स्वयं को तोल जाए .
*

भनकती -टनकती आवाजें ,

अपने ही कंपनों से आकुल,

उद्विग्न,चोट करती हुई

आवेश सघन.

*

अहं की बाधा तोड़ ,

अपने से आगे ,निकले होते

तो टोकरा भर शिकायते व्यंग्य ,कटूक्तियाँ

चुभन के दंश न होते .

हो आत्म ही असंयत डँवाडोल,

मन की उन्मुक्त

पुकार कैसे जागे !

*

काश होता स्वयं में आपूर्ण

अंतर-घट,

सार्थक, प्रेरक, ग्रहणीय ,

गहन-गंभीर स्वर उभरते,

स्नेह की छलक भरे .

वह रूप

कितना महनीय होता !

*



रविवार, 12 दिसंबर 2010

कवि से -

*

तिमिर स्तर कर पार ,मनमय कोष भास्वर

दीप्तिमय हर शब्द,ज्योतित पंक्तियाँ धर ,

कवि, तुम्हारे छंद, आरण्यक-स्वरों में

उदित ऊषाकाल के ऊर्जिल किरण- शर !

*

अक्षरित हो भू- पटल पर उभर आएँ

गमक भर-भऱ शिखर ,गुंजन द्रोणियों में

कवि ,तुम्हारे स्वरों से आश्वस्ति पा,

दुष्काल को भी अब लगेगें स्वप्न आने ,

हो गए हैं शब्द जो दिक्-काल व्यापी,

अजित अपरामेय अनुप्रेरित अनश्वर !

*

पहुँच पाये जब जहाँ तक यह सँदेशा

अनसुने कब तक रहेंगे ये प्रबोधन !

और कब तक नयन मीलित ही रहेंगे,

स्वच्छ निर्मल कर धरा जो सत्य-दर्पण

चेत को झकझोरते वे मंत्र फूँको ,

आज वैतालिक, कि जग जाए चराचर .

*

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

सायुज्य

*


लौट जाएँगे सभी आरोप ,

मुझको छू न पा ,

उस छोर मँडराते हुए .

तुम निरे आवेश के पशु

तप्त भाषा घुट तुम्हीं में ,

बर्फ़ बन घुल

दे विफलता बोध.

*

बहुत अस्थिर ,

बदलते पल-पल

बहुत अक्षम ,बिचारे ,

जब न संयम ,

धुआँ बन कर,

घेर लेंगे ये सुलगते हर्फ़

क्या करेंगे तर्क सारे अनविचारे.

*

सिर्फ़ मनःविलास की ललकार .

अहंकारों की उपज जो

चाहता स्वामित्व का अधिकार ,

रे मदान्ध ,किसे दिखाता रोष

मैं नहीं लाचार .

है मुझे यह युद्ध भी स्वीकार .

*

झेलती प्रतिघात मैं

सब बूझ लूँगी ,

सिर पटकता जो विवश आक्रोश ,

खूँदते धरती विवश

डिडकारते ,भरते कराहें

बल दिखा धिक्कारता

तेरी विमति की मंडली से जूझ लूंगी .

*

और ,दूषण लगाना आसान कितना,

आत्म मुग्ध,स्व-वंदना के राग गाकर

अरे दुर्मद,

कौन से पट को हटाना चाहता तू .

देख पाए किस तरह

चिर- आवृता मूला प्रकृति मैं

दृष्टि का विस्फोट ,अंध अशील तू

तत्क्षण विवृत हो पंचभूतों में मिलेगा

*

देख रुक कर -

और पी लूँ मद कि कि हों रक्ताभ लोचन ,

हो कि यह उन्माद गहरा ,और पी लूँ

और पी लूँ क्योंकि पशु पर वार करते ,

कहीं करुणा जाग कर धर दे न पहरा.

गमक जाए राग, आनन पर लपट सा ,

दे सकूँ बलि कर निरंश निपात पशु-तन

*

गरलपायी ,कामजित् भूतेश

मेरी साधना,

केवल सदा- शिव हेतु,

यह जन्मान्तरों तक व्रत पलेगा .

किस तरह हो शक्ति, पशुता को समर्पित ,

कराली भयदायिनी का

शिेवेतर उपचारणा के हेतु

यह अनु- क्रम चलेगा .

*

रूप से विस्मित-विमोहित ,

विभ्रमित-सा चाहता सामीप्य

तेरी लालसा पूरी करूँगी

अंततः हो कर सदय

सायुज्य दे सम्मुख धरूँगी

पक्ष हों प्रत्यक्ष दोनों

महिष-मानुष तू रहे

प्रत्यक्ष करता भूमिका,

दृष्टान्त-सा प्रस्तुत करूँगी

*

मंच की हर वेदिका पर

अर्धमानव- वपु धरे,

तेरा अहं बलिपशु बना,

प्रतिबद्ध हो.

तेजोमयी के साथ

तमसाकार अब प्रत्यक्ष हो .

*

निरूपण मेरा जहाँ ,

तू रह उपस्थित,

देख ले संसार ,मूला प्रकृति का ऋत.

मातृशक्ति समक्ष ,

लालायित ,विमोहित विवश नर पशु

तेजहत, असमर्थ होगा.

जहाँ मैं चिद्रूपिणी, ओ महिषमति

विद्रूप बन तू भी रहेगा .

*

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

व्याप्ति-

*
विषम क्षणों में
 उचाट हो टेर उठता
अंतस्थ आत्म जब
सर्व व्याप्त परमात्म को,
एक स्निग्घ बोध जाग जाता  अनायास -
कि कहीं कुछ और नहीं ,
बस एक सत्ता
अपने आप में
लघु नहीं, संपूर्ण मैं .
*
आत्म में निवसित बाह्य-निरपेक्ष.
सारे बोध, भावना ,विचारणा ,संकल्पना ,
व्यवधानरहित ,
सम्पूर्ण मानसिक सत्ता एकात्म!
अवरोध हीन
वर्जना रहित.
*
सतत चैतन्य
स्थिर ,अचल ,उदग्र
अनुपम ऋत की पारणा ज्यों,
मेरा निजत्व .
जैसे रची हुई सारी सृष्टि
मेरे भीतर -बाहर,
आत्म-निहित और सर्वत्र .
*
एक ही तार की झंकार
कभी वेदना -उल्लास कभी विराग-राग .
उस व्याप्ति मैं ,
कहीं नहीं कोई और
किसी का मानना-जानना
कोई अर्थ नहीं रखता जहाँ
विराट् चैतन्य से समाहित ,
*
अत्यल्प अवधि को भले ,
समाधि स्वरूपा ,
मुझ में लयलीन
अपरूप दिव्य,
ओ,मेरी व्याप्ति
प्रणाम तुम्हें !

*

बुधवार, 22 सितंबर 2010

अनिर्वच

लहर लेती बह रही

शिप्रा अभी मेरे हृदय में .

नयन में जल बन समाया,

साँस में सौरभ बसाया ,

वही कल-कल नाद

अविरल गान बन कर उमड़ता.

देखो, नहीं सूखी .

*

कह रही वह

मैं नहीं सूखी ,

तुम्हीं ,जीवन-रसों से दूर हो,

उस चिर-पिपासित हरिण से

जो श्लथ-थकित होता विकल

पर दौड़ती तृष्णा कहीं थमती नहीं.

कान दे सुन लो कि शिप्रा कह रही है -

मैं नहीं सूखी , चुके तुम ,

बोध कुंठित हो गए ,

रूखे हुए मन,

चुक गई संवेदनाएँ.

*

एक दिन बह आयगा जल ,

एक दिन पत्थर पिघल

कर ही रहेंगे ,

यह नदी की राह सूखी नहीं,

मेरे अश्रु जल से सिंच रही ,

अविराम शिप्रा बह रही है .

*

जन्म मेरा और ,

शिप्रा के यही तट-घाट होंगे ,

शरद्-पूनो फिर दियों से झलमलाए,

द्रोणियों धर दीप लहरों में बहा ,

कुलनारियाँ ,आँचल पसार असीस पायें .

कौन रोकेगा मुझे,

मैं हूं चिरंतन ,

वह अनिर्वच कह रही है .

*

शनिवार, 18 सितंबर 2010

संबंध

*
नदी की तरह निस्स्वार्थ बहते हैं .

वही सहज होते हैं
.
अपनी मौजों में,अपने ढंग से

अपने रंग में लीन ,

रहते हैं संबध.

*

भुनाने की कोशिशें.

और अहं के ढेले फेंक ,

लहरें उठाने का चाव

बाधित कर देगा प्रवाह.

पारदर्शिता खो गँदला जाएगा.

निर्मल जल.

कीचड़ जमे तल में .

कैसे रहे प्रवाह तरल -सरल.

*

क्षेपकों की संरचना

घने वाग्जाल ,

ओझल जल-विवर

डुबोने वाले भँवर

जिनका कोई उपचार नहीं.

खा जाए चक्कर

पर उबरती है धारा,

खोजती अपना किनारा.

*

बाध्यता नहीं कि,

आत्मसात करे उन अग्राह्य अणुओं को ,

धारा का स्वभाव अपनी ढलान बहना,

संबंध का निभाव परस्पर समझना.

उछाला गया आवेग

निष्फल आक्रोश ,

इसी तट बिखेर

रुख मोड़ ,

तोड़ देगी हर कारा.

*

शिरोधार्य हैं पथ -प्रवाह में मिली

अविकृत पुष्प-पत्राँजलियाँ ,

प्रतिदान की अपेक्षा बिना

पाए निस्पृह नेह-क्षण,

जिन्हें लहराँचल में सँजोए

बह जाएगी आगे

संबंधों की धारा.

*

रविवार, 22 अगस्त 2010

द्रोण,तुम !

*
गुरु तो वह हुआ !
तुमने माँगा
उसने बिना झिझके
काट कर सौंप दिया ,
अपना अँगूठा .
सर्वश्रेष्ठ अनुर्धर का अँगूठा !
तुम तो पहले ही  नकार चुके थे उसे
कहीं नहीं थे उसके साथ .
एकलव्य की ,
स्वार्जित उपलब्धि.
छीन ली तुमने .
सँजोई है कहीं ,
या फेंक दी वहीं ?
*
रह गए ,नितान्त लघु तुम !
द्रोण,कितने तुच्छ!
 कितनी सहजता से एक ही झटके
में समाप्त कर दीं  वह अनन्य निष्ठा ,
झटक कर तोड़ दिया अचल विश्वास !
*
कोई  शिष्य गुरु के प्रति
हो पाएगा अब  कभी उतना समर्पित?
 भविष्य को दे गए तुम संदेश ,
कि अब गुरुत्व
गुरु का अनिवार्य लक्षण नहीं रहा !
*

रविवार, 15 अगस्त 2010

व्याध का तीर

*
ये सब तो मात्र  मोहरे थे
यहाँ की चालों के .
इस महासमर की भूमिका
बहुत पहले से लिखी जाने लगी थी.
 *
जब बुढ़ापे  की सर्वनाशी वासना ,
यौवन का उजला भविष्य निगल गई.
स्वयंवरा कन्या को लूट का माल बना
निःसत्व रोगियों के हवाले कर दिया गया.
*
 वंश न पांडु का,  न कुरु का.
बीज बो गया  धीवर-कन्या का पुत्र
 भयभीत और वितृष्णामय परिवेश में ,
उन  विकृत संतानो  का इतिहास कितना चलता ?
जहाँ विवश नारी ,
पति का मुख देखे बिना

आँखों पर पट्टी बाँध
यंत्रवत् पैदा कर दे सौ पुत्र

*
धर्म और नीति की ओट ले
 जो चालें चली गईं -
एक  द्रौपदी ही नहीं ,
क्या-क्या दांव लगाते गए वे लोग ,
होना ही था महासमर !
*
रामायण और महाभारत !
एक व्याध का  तीर
कर गया
एक युग-कथा का प्रारंभ ,
और दूसरी का समापन .
*
बीत गए दोनों ,
पर बीत कर भी
 कहीँ अटका ही रह गया है .
बहुत कुछ .
*


शनिवार, 7 अगस्त 2010

भूख -

*
बहुत भूख भरी है दुनियाँ में!
तरह-तरह की भूख -
भटका रही है , मृगतृष्णाओं में !
मन की भूख --
भोग की , धन की ,यश की , बल की ,
और भी अनेकानेक रूप धर
विकृत कर जाती है
कि पीछे भागता है आदमी
भूत की तरह !
*
पर बहुत दारुण है पेट की भूख !
जब आक्रमण करती है, ,
रक्त पीती ,चमड़ी सुखाती ,
आँतें मरोड़ आग सी लपलपाती
यह सर्वभक्षी सर्वव्यापी भूख
जब कुछ नहीं पाती तो अपने पात्र को ही चाटती है ,
अपनी तीक्ष्ण जिह्वा से
तिल-तिल कर सुखाती है ,
सोख लेती है एक-एक रोम उसके शरीर का !
*
जिसने सही है यह दारुण यंत्रणा,
किसी की भूख नहीं देख सकता !
क्योंकि, दसरे को देख
वह अपनी ही यंत्रणा को बार-बार जीता है १
अपने अन्न का अंतिम कण तक देकर
वह छुटकारा पाना चाहता है उस दुख से !
नहीं सह पाता वह किसी के पेट की भूख ,
नहीं सह पाता !
*

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

मक्खियाँ ---

*
कितनी मक्खियाँ उड़ रही हैं !
नहीं ये कविताएं हैं ,
पत्रिकाओं पर जम जाने के लिए -मिठाई हो जैसे !
हाथ हिलाता परेशान संपादक बेचारा ,
जितनी हटाओ और उड़ आती हैं ,
एक बार मे कितनी-कितनी !
सबसे आसान काम - कविता लिख डालो ,
दूसरे लोग हैं न सोचने को समझने को !
शब्द ?
डिक्शनरी उठा लो ,जितने चाहो छाँट लो !
तुक मिलाना जरूरी नहीं !
जो लिखो- वाह !वाह !
विज्ञापन से बची किसी खाली जगह को
भरने के काम आ जाय बस काफ़ी है !
*

बुधवार, 23 जून 2010

बंधु रे !

*
बंधु रे ,
लौट चलो अब !
इतनी देर मत कर देना
कि तुम्हारी ही धरती तुम्हें पहचान न सके ,
:भूल जाये तुम्हारा नाम और पहचान ।
*
अभी तुम्हें याद करते हैं सब ,
बहिन-भाई ,मित्र -पहपाठी अपने पराये :
सभी को ध्यान है तुम्हारा !
इतनी देर मत लगा देना कि ,
अपरिचित बन जायँ प्रिय स्थान ,
कभी ढूँढो किसी आँख में अपनापन,
पर रह जाओ एक अजनबी.
उसी मिट्टी के लिये ,जिसने रची यह देह ;
उसी हवा से जिसने जीवन को साँसें दीं !
उसी जल से जिसने सींचा तन- मन को
भरा कितने नयनों को चलती बार !
इन मौसमों ने बरसों रच -रच कर
सँवारा कि तुम 'तुम' बन सके !
*
नई धरती !
जहाँ जुड़ने के लिये खोजते हो हम वतन को !
घर में क्या कभी किसी को
ढूँढने की जरूरत पड़ी थी ?
ओ रे बंधु ,
इतनी देर मत कर देना कि
यहाँ की हवायें तुम्हारा रंग बदलने लगे
और अपनी ही पहचान गँवा बैठो तुम !
*
बस चलो अपने घऱ !
कहीं ऐसा न हो
कि फिर कभी
लौटना संभव न रहे !
*

सोमवार, 14 जून 2010

मछरिया बता ,

भाग 1.
कितनी गहरी है नदिया मछरिया बता ,
*
पानी कितना है होगा तुझी को पता !
और क्या-क्या लिखे जा रही ये लहर
साक्षी तू निरंतर , मुझे भी बता,
अक्षरों से बना औ' मिटा नीर पर
*
और बढ कर कहाँ से कहाँ जायगी
तू शुरू से बता ये पुरानी कथा ,
बुदबुदा कर हवा ने यहाँ जो कहा ,
और लहरों ने पानी में क्या क्या रचा
*
डूब कितनी लहर की मुझे तू बता !
बाँह फैला उमड़ती हुई बढ़ रही,
रूप औ रंग रच-रच सँवारे गये ,
फिर सभी कुछ समेटे लिये फिर गईं !
*
री बता तू कहाँ से चला सिलसिला
किस तरह काल ने लीं यहाँ करवटें !
गुज़रीं सदियाँ यहाँ काफिलों की तरह,
तल में शायद पड़ी हों कहीं सलवटें !
*
ओ री मछली, तुझे तो सभी है पता ,
कितनी गहरी है नदिया मछरिया बता !
*
भाग 2.
इस जल में भँवर जाल फैले हुए
मैं न जानू ये धारा कहाँ से चली ,
ये हैं सारी ही बाहर की परछाइयाँ!
और कोरी पड़ी भीतरी है तली !
**
नीर टिकता नहीं इस नदी में कहीं
चला आता है जाता है बहता चला ,
एक भी बूँद थिर रह न पाती कहीं
और रहता है उतना का उतना बना !

मैं न जानूँ कि कितना यहाँ नीर है,
ऊपरी तह सजाये है सब हलचलें ।
कैसी सीपें हैं कैसे हैं मोती यहाँ
कौन आये यहाँ डूब कर थाहने !
*
इसमें बहने से कोई नहीं बच सका ,
हाँ यहीं से चली है कथा काल की !
बस दिखाती हैं बाहर के रँग रूप को,
जो समाया कभी भी बताती नहीं!
*
और हर पल बिछलते लहर जाल में
डोलती झूलती सिर्फ़ परछाइयाँ ,
ये तो आता है जाता है बहता चला ,
रूप रंगों रचा, धूप- छाहों भरा !
*
रोशनी जो दिखाती अनूठा जगत ,
रूप के बिंब हैं बाहरी वे सभी !
ओ रे पागल ,जहाँ रम रहा आज तू
जाने कितने वहाँ बस चुके हैं कभी !

गुरुवार, 10 जून 2010

रोशनाई से .

स्याही से नहीं रोशनाई से लिखो कलम !
लेखनी , सँवारो रूप-रंग शब्दों का भी,
उद्घाटित कर दो मर्म कि सब छँट जायँ भरम.
*
अध्याय बदल दो ,पन्ना नया पलट लो अब ,
कुछ नई अर्थिता चिंगारियां बिखर जाएं.
इस अंध तमस में तपन प्रज्ज्वलित भऱ स्वर की
निर्बाध बहें शिव-संकल्पों की धाराएँ !
निखरे-निखरे पल हों, विरोध- प्रतिरोध शमन.
*
कैसा विश्राम ? थकन का नाम न ले यह गति ,
मति आत्मसीमिता रहे न विभ्रम की कारा.
यह समय निरर्थक जाय न ऊहापोहों में ,
ऊर्जित मन के आकाशों में हो ध्रुव तारा.
नभ छोर जगा दें प्रखर दीप्ति के आवाहन !
*
स्याही से नहीं रोशनाई से लिखो कलम !
*

गुरुवार, 6 मई 2010

असल के बंद

*
कमल के फूल देखे ?
हुँह..!
हवाई बात अब छोड़ो ,
जो जीवन असलियत में हो ,
चलो ,कविता उधर मोड़ो.
*
किनारा मत करो अब वास्तविक रस से -
असल है फूल गोभी का ,
कि जैसे घाट धोबी का
इसी से पेट पलता ,
ज़िन्दगी का काम सब चलता .
ये नन्हें फूल धनिये के कलात्मक पत्तियाँ उनकी,
बड़ी सुकुमार सुन्दरता अनोखी गंध से तनतीं !
कि पत्ते पीस लो तो चाट वाला स्वाद आ जाए ,
कि रूखी रोटियाँ चटनी लगा कर चटपटा जाएँ .
यही हो स्वाद कविता का !
*
गुलाबों को भुला दो .
फूल सरसों के यहाँ लाओ ,
वसंती फूल हैं उनको सजाओ,
और बस जाओ
उन्हीं तैलीय गंधों में ,
डुबोए शब्द हों सारे .
यही तो मज़ा मौसम का तुम्हें दे जाएंगे प्यारे .
*
रसों की भाप में हो स्वरित
गंध -सुस्वाद भर रुचि कर
इन्हीं का पाक बनता है ,
तभी व्यंजन सँवरता है .
परम परितृप्त करता है .
*
लता सी यौवना क्यों ?
लचकती सहिजन फली बोलो ,
मसालेदार सोंधा रूप फिर-फिर याद आएगा.
कि सब्ज़ी कह कदर मत कम करो ,
तरकारियाँ बोलो
कि मन भी सीझ जाए, रीझ जाएगा .
*
चटक सुर्खी टमाटर की मटर की कचकची फलियाँ,
अरे ये प्याज़ जैसे ताम्रवर्णी आचमन- लुटियाँ ।
लपट-सी गाजरों का रंग खिलाता देख कर पालक ,
चमकते बैंगनों की श्यामता में भक्तिवाला पुट ,
सलोनी भिंडियाँ जब उंगलियों जैसी सुझाई दे .
कि कोई देख कर ही हो न जाए चारखाने चित !
*
कि जाए झूम कवि का मन .
यही सौंन्दर्य के उपभोग का
रसभोग का मौसम.
शकर के कंद का मौसम,
असल के बंद का मौसम !
*

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

कभी कभी

कभी कभी महफिल से उठ कर चल देने का मन होता है,
*
जो देना था भूल गई ,आई सबसे ही अब तक लेती
कैसी यह अदम्य तृष्णा,जो नयनो को ही छाये लेती .
दृष्टि उन्हीं में रमी कि सारी समझ-बूझ हो गई किनारे
अभी रोशनी के घेरे हैं यह केवल मति-भ्रम होता है .
*
कितना जतन ,और क्या साधन, जो कुछ समाधान दे पाए
भीतर-बाहर के आरोपण हटा पात्र, दर्शक रह जाए .
डुबा-डुबा कर हारी, तन की गागर तिरती रही अकेली ,
हलका करना चाहा कितना, उर का भार न कम होता है .
*
चुप रहने से क्या जब जतला दे उतरा आता भीगापन
जिह्वा पर आ कह जाए लो चख लो अब अपना खारापन
उठते हुए सवालों का उत्तर देना हो जाय असंभव
सब से ओझल हो जाने को यही शेष उपक्रम होता है !
*

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

क्या कर लोगी

*
स्वेच्छाचारिणी ,
एक गाली है तुम्हारे लिए .
जैसा चलाया जाय चलो
और सन्नारी कहाओ!
*
स्वयंवर ?
कैसी बात करती हो !
ज़बर्दस्ती उठा लाएँगे तुम्हें ,
हो गया स्वयंवर!
*
हमारी लूट का माल ,
हमने जीता !
देंगे जिसे चाहे !
नकारा पति ,संतान पैदा न कर सका तो क्या ,
जिससे चाहें ,नियोग करवा देंगे
तुम्हारी स्वीकृति का सवाल कहाँ !
और तुम्हारी रुचि?
बेकार बात !
*
स्वीकार करना पड़ेगा जिससे हम कहें ,
चाहे वितृष्णा से आँखें बंद कर लो ,
चाहे भय से पीली पड़ी रहो ,
धृतराष्ट्र और पाँडु पैदा हो जायँ ,
हो जाने दो !
पैदा हम करवा रहे हैं .
*
हम जो चाहे करेंगे ,
बुढ़ापे को भड़काती इच्छाएँ पूरी करेंगे ,
जवान पुत्र दाँव लगा कर .
कोई क्या कर लेगा हमारा ?
*

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

कठपुतली

कठपुतली !
इंगित पर नाचती ,
डोरियों से बँधी
झूमती है मंच पर.
बाजीगर के इशारे -
खिंचती डोरियाँ
नाचती है ,
लोगों का मन बहलाने !
*
पुतली ? अलंकरणों से सजी
रिझायेगी जन-मन .
संवेदना तरल हृदय
बुद्धि की तेजस्विता ,
नारीत्व का प्रखर चेत
अपना सत्व,अपनी गरिमा
कहां से लाएगी कठपुतली ?
*
रीढ़ ही नहीं जब
कैसे थिर हो
कैसे जम कर खड़ी हो
बोध कैसे जागे अपना ,
अपने ही गर्भ-जन्मी पीढ़ियों का !
*
इस मंच का खेल खत्म होगा एक दिन ,
फीकी बेरंग , दाग़दार बनी,
फ़ालतू कबाड़ में
डाल दी जाएगी कठपुतली !
*

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

हिसा हिलाल !

हिसा हिलाल !
अभिनन्दन करती हूँ
मैं तुम्हारा !
तुमने सिद्ध कर दिया
कि अबला नहीं है एक अकेली नारी भी !
समर्थ है वह अकेली ही
उस समूची व्यवस्था को हिला देने में
जो अपने दानवी शिकंजों में
मानव-जीवन की सारी उपलब्धियाँ
नष्ट-भ्रष्ट करने पर उतारू है !
इन्सानियत को पैदा कर
ममता से पोषण देने वाली
मातृशक्ति को पैरों तले रौंद कर
वर्जनाओं में लपेट कर
बंद कर दिया सात तालों में ,
कि सारी मानवता को भेड़-बकरी बना कर
चरागाहों में बाँध दें !
कि इस धऱती के उज्ज्वल भविष्य को
अँधेरों में परिणत कर जकड़ दें
कि वे अपनी दानवी लीला का विस्तार कर सकें !
*
हिसा हिलाल ,
नमन करती हूँ -
तुममें निहित उस आदि शक्ति को,
जो पशुता के सामने सिर उठा कर डट गई है!
जो अतिचारी के अधीन कभी नहीं हुई ,
जो सदा शिवत्व हेतु तपी ,
और प्राप्त कर के रही !
जगत का नारीत्व संन्नद्ध हो रहा है
अपनी शक्तियाँ संयोजित कर ,
तुम्हारे साथ आने को !
*
स्वागत है तुम्हारा
उज्ज्वल भविष्य की वैतालिका,
सफलता तुम्हारा प्राप्य है !

शनिवार, 20 मार्च 2010

निवृत्ति

*
चाहती हूँ जिऊं जीवन के बचे दिन ,
यहाँ के कोलाहलों से दूर सुरसरि के किनारे !
*
देव-सा हिमगिरि जहां दर्शन दिखाए ,
प्रकाशित निर्मल रहें सारी दिशाएँ
मन यही करता यहाँ से दूर जिस थल
न हों जटिला बुद्धि के तर्किल सहारे !
*
द्वंद्व-रहित निचिन्त होकर जी सकूँ मैं ,
शान्ति को पंचामृतों सा पी सकूँ मैं ,
बँधी सारी डोरियों को खोल कर ,
उन्मुक्ति का संज्ञान अंतर में सँवारे
*
सभी आपाधापियाँ छूटें यहीं पर ,
तू न मैं, सारे अहं बीतें यहीं पर ,
एक हल्कापन सहज ही घेर ले
छाये चतुर्दिक जाल कर दे स्वच्छ सारे !
*
दर्शकों में जा मिलूँ कपड़े बदल कर ,
आज तक के सभी आरोपण निफल कर
नाट्य -रूपक जो निभाने में लगे थे ,
मंच छोड़ूँ , फेंक दूँ संवाद सारे !
*
मित्र यह तन की नहीं, मन की थकन है ,
तुम हँसो तो यह तुम्हारा ही वहम है ,
व्यर्थ मत संवेदना का बोझ देना
बेवजह कहना न कुछ बिन ही विचारे !
*
मिला मन ऐसा, कहीं लगता नहीं है ,
लोक का व्यवहार अब सधता नहीं है ,
खड़ी चकराई रहूँ बेमेल सी
इस अजनबीयत को कहां तक शीश धारे !
*

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

धन्य हो उठें साँझ-सवेरे

धन्य हो उठें साँझ-सवेरे
*
तप-तप कर हो गई अपर्णा, जिसके हित नगराज कुमारी ,
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण मैं कहाँ जनम की भटकी-हारी!
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कहीं शान्त तरु की छाया में बैठे होगे आसन मारे,
मूँदे नयन शान्त औ'निश्छल , गरल कंठ शशि माथे धारे ,
और जटाओं से हर-हर कर झरती हो गंगा की धारा ,
मलय-पवन-कण इन्द्रधनुष बन करते हों अभिषेक तुम्हारा!
ऐसा रूप तुम्हारा पावन , ओ मेरे चिर अंतर्यामी
सार्थकता जीवन की पा लूं मिले अंततः छाँह तुम्हारी !
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हिमगिरि के अभिषिक्त अरण्यों की हरीतिमा के उपभोगी,
हिमकन्या को वामअंग में धरे परम भोगी औ'योगी,
जीत मनोभव ,मनो-भावनाओं के आशुतोष तुम दाता,
परम-प्रिया दाक्षायनि के सुध -बुध खोये तुम प्रेम वियोगी !
तुम नटराज समाकर निज में अमिय-कोश भी, कालकूट भी
चरम ध्रुवों के धारक, परम निरामय, निस्पृह, निरहंकारी !
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तापों में तप-तप कर कब से अंतर का आकुल स्वर टेरे
शीतल -शिखरों की छाया में धन्य हो उठें साँझ-सवेरे
रति-रोदन से विगलित पूर्णकाम करने की कथा पुरानी,
आशुतोष बन कितनों को वरदान दे चुके औघड़दानी,
सभी यहाँ का छोड़ यहीं पर आसक्तियाँ तुम्हें अर्पित कर
मुक्ति विभ्रमों से पा ले मति मेरी ऐहिकता की मारी
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तपःपूत वनखंड कि जिस पर जगदंबा के सँग विचरे हो ,
गहन- नील नभ तले पावनी गंगा के आंचल लहरे हों ,
उन्हीं तटों पर कर दूँ अपना सारा आगत तुम्हें समर्पित ,
भूत भस्म हो , विद्यमान पर तव शुभ-ऐक्षण के पहरे हों,
अब मत वंचित करो प्रवाहित होने दो करुणा कल्याणी ,
अवश कामना मेरी पर ,पर अतुलित शुभकर सामर्थ्य तुम्हारी !
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मंगलवार, 12 जनवरी 2010

तेरे नाम हो गई

तू जैसा का तैसा कान्हा राधा तो बदनाम हो गई.
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मटकी सिर धर गाँव-गली में कान्हा-कान्हा टेरे ,
कोई गाहक कहाँ ?लगाले चाहे जित्ते फेरे ,
बड़े भोर की निकली घर से टेर-टेर कर शाम हो गई!
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लाद मटकिया रही भटकती ,दर-दर घर-घर अटकी
द्वारे पहरेदार सभी के बात न बस कोई की
माथे नाम चढ़ाया तेरा ,पर ग्वालिन गुमनाम हो गई !
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कोई पीर न जाने मनवा चुपके चुपके रोवे
साँझ कौन मुख ले घर जाये कहाँ चैन जो सोवे
किसका थामें हाथ निगोड़ी काया तेरे नाम हो गई .
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पहले किसे सँभाले मन को या कि सिरधरी मटकी ,
दोनों एक साथ ले ग्वालन फिरती भटकी भटकी ,
तेरा पता तो न पाया अपने से अनजान हो गई !
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पहले किसे सँभाले मन को या कि सिरधरी मटकी ,
दोनों एक साथ ले ग्वालन फिरती भटकी भटकी ,
तेरा पता तो न पाया अपने से अनजान हो गई !
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सुमिरनी हो गई रे

तेरा रट-रट के नाम घनश्याम ,सुमिरनी हो गई रे !
जहाँ जाऊं न पाऊँ कोई आपुना ,
मोरे नयनो में तेरी ही थापना
कहीं पाऊँ न चैन ,जिया दुखे दिन-रैन
मन लेवे कहीं ना विसराम, सुमिरनी हो गई रे !
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चिर दिन भटका किया जियरा ,
बस तुझे पहचाने मेरा हियरा
कोई नाता न माने ,कैसे किसे पहचाने
मेरा कोई न धाम कोई काम,सुमिरनी हो गई रे
*
अब इतनी तो तू कर सँवरिया ,
रह जाऊँ नहिं बीच डगरिया ,
होवे सीतल तपन मन होवे मगन
जा पहुँचूँ वृंदावन धाम, सुमिरनी हो गई रे !

बुधवार, 6 जनवरी 2010

बाकड़िया बड़

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बाकड़िया बड़
यहाँ पर एक बरगद था पुरातन पूर्वजों जैसा
जटायें भूमि तक आतीं तना सुदृढ़ असीसों सा
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मुझे तो दूर से पल्लव- हथेली हिल बुला लेतीं
ज़रा ले छाँह बाबा की थकन तो दूर कर लेतीं .
वही उज्जैन का वट-वृक्ष बाकड़िया जिये कहते
कि जिसका नाम लेकर लोग फिर अपना पता देते .
न भूलूँगी अरे ओ वट प्रियम् संवाद कुछ दिन का !
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मुझे लगता कि यह छाया ,पिता की गोद जैसी है ,
थकन के बाद, थपकी से मिले आमोद जैसी है
पितर सम हर सुहागिन पूजती, आँचल पकड़ झुकती
लपेटे सूत के दे , व्रत अमावस का सफल करती
उसी की छाँह में भीगा हुआ विश्वास कुछ दिन का
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कि जैसे दीर्घवय मुनि जटिल, अपने बाहु फैलाये
धरे आशीष की मुद्रा ,स्वस्ति औ' शान्ति से छाये
पखेरू कोटरों में बसा कर परिवार रहते थे
घने पत्ते दुपहरी में सुशीतल छाँह देते थे
बहुत कुछ जो घटा सदियों वही तो एक साक्षी था ,
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मुझे तो याद है बरगद तले अपना खड़ा होना ,,
नगर को छोड़ते पर उन असीसों से नहा लेना ,
उसे छूना, वहाँ की याद आँखों में समा लेना
बहुत-कुछ धर निगाहों में , विकल मन से बिदा लेना ।
वहीं के भवन ,वह अभ्यास औ आवास कुछ दिन का ,
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उसे क्यों काट फेंका यों किसी का क्या बिगाड़ा था ,
पुरानी उस धरोहर को ,सभी से प्यार गाढ़ा था ।
बताओ काटने वालों ,तुम्हारे हाथ थे कैसे !
कभी क्या महत् तरुवर फिर उगा लोगे उसी जैसे ?
यही लगता, कि अब चुक जायगा यह राग कुछ दिन का !
यहाँ पर ज़िन्दगी भी क्या, बड़ा खटराग कुछ दिन का!
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