रविवार, 24 अक्टूबर 2010

व्याप्ति-

*
विषम क्षणों में
 उचाट हो टेर उठता
अंतस्थ आत्म जब
सर्व व्याप्त परमात्म को,
एक स्निग्घ बोध जाग जाता  अनायास -
कि कहीं कुछ और नहीं ,
बस एक सत्ता
अपने आप में
लघु नहीं, संपूर्ण मैं .
*
आत्म में निवसित बाह्य-निरपेक्ष.
सारे बोध, भावना ,विचारणा ,संकल्पना ,
व्यवधानरहित ,
सम्पूर्ण मानसिक सत्ता एकात्म!
अवरोध हीन
वर्जना रहित.
*
सतत चैतन्य
स्थिर ,अचल ,उदग्र
अनुपम ऋत की पारणा ज्यों,
मेरा निजत्व .
जैसे रची हुई सारी सृष्टि
मेरे भीतर -बाहर,
आत्म-निहित और सर्वत्र .
*
एक ही तार की झंकार
कभी वेदना -उल्लास कभी विराग-राग .
उस व्याप्ति मैं ,
कहीं नहीं कोई और
किसी का मानना-जानना
कोई अर्थ नहीं रखता जहाँ
विराट् चैतन्य से समाहित ,
*
अत्यल्प अवधि को भले ,
समाधि स्वरूपा ,
मुझ में लयलीन
अपरूप दिव्य,
ओ,मेरी व्याप्ति
प्रणाम तुम्हें !

*

9 टिप्‍पणियां:

  1. लघुता और प्रभुता के बीच बहे मन का अप्रतिम प्रवाह जब शब्द बन बहा तब सागर पहुँच कर ही शान्ति मिली। आपकी प्रतिभा को नमन।

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  2. प्रणाम इस सम्पूर्णता को, उस महि को जो सम्पूर्णता को समाहित किये है..आपको, जो उसे आत्मसात करके व्यक्त कर गयीं..

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  3. एक ही तार की झंकार
    कभी वेदना -उल्लास कभी विराग-राग .
    उस व्याप्ति मैं ,
    कहीं नहीं कोई और
    किसी का मानना-जानना
    कोई अर्थ नहीं रखता जहाँ..

    A precious creation !

    .

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  4. प्रणाम
    क्या बात है कल ही शिप्रा कालीदास और उज्जैन को याद कर रहा था
    ताज़ा पोस्ट विरहणी का प्रेम गीत

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  5. आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
    मैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ

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  6. सराहनीय लेखन....हेतु बधाइयाँ...ऽ. ऽ. ऽ
    चिठ्ठाकारी के लिए, मुझे आप पर गर्व।
    मंगलमय हो आपको, सदा ज्योति का पर्व॥
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
    ----------------------------------

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  7. स्वयं का स्वयं से बोध कराती आपकी कविता मन को उद्वेलित कर गई !
    इतनी भावपूर्ण रचना हेतु बधाई स्वीकार करें!
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  8. बस एक सत्ता
    अपने आप में
    लघु नहीं, संपूर्ण मैं
    निज की लघुत और संपूर्णता के बोध के बीच से उपजी अत्यंत सारगर्भित रचना ..

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  9. एक ही तार की झन्कार , कभी वेदना उल्लास कभी विराग राग्।
    अति उत्तम।

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