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पाँच साल की बच्ची !
सब सामने घट रहा है ,दूसरी ओर मन का आक्रोश उफान बन कर निकल रहा है.
वह पाँच साल की बच्ची !अपनी बेटी याद आती है .हृदय तड़प उठता है. कितनी बार, कितनी घटनाएँ, कब तक,कहाँ तक?कभी लगने लगता है सब कहने-सुनने की बातें हैं .कोई घटना घटती है, शोर मचता है,फिर अगली बार तक चुप बैठ जाते हैं लोग.
आज पाँच साल की बच्ची का दुख मन को मथ रहा है .पर समाज में फैली ये मानसिक सड़न बहुत पुरानी है जो अब अधिकाधिक बदबू देने लगी है .हर क्षेत्र में किसी-न-किसी रूप में दिखाई देने लगी है. ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम होते हुए भी ऐसे शातिर, कि व्यवस्था की कमियों का पूरा लाभ उन्ही को मिलता है.विचारवान जन काम में व्यस्त,अपने आप में लीन जब ऐसा कुछ घट जाता है तब कुछ देर को जागते हैं.
सामान्यतः मानसिकता कुछ ऐसी ढाल दी गई कि मर्द मर्द है, औरत उसकी इच्छा-पूर्ति का माध्यम .उसे अपने हिसाब से चलाना मर्द का अधिकार है .और इच्छाओं को निरंतर हवा देनेवाले माध्यम सिनेमा,अश्लील गाने,टीवी आदि मीडिया के असंयमित भोगवादी आइटम और उकसाते रहते हैं .हर जगह यही देखने को मिलता है .आज के राज-नेता सरे आम घोषित करते हैं,'पुरानी पत्नी मज़ा नहीं देती' .तो उनकी छाँह पाये पिछलग्गुओं को क्या कहें!
स्त्री आगे न आये तो बेवकूफ़ कही जाये, सचेत हो कर आगे आये और अपनी अस्मिता के लिए अड़ने लगे,अपनी इयत्ता स्वयं निर्धारित करना चाहे तो उसे पाठ पढ़ाने की कोशिश.शताब्दियों की वर्जनाएँ झेलने के बाद परंपराएं बदलने की कोशिश में कहीं त्रुटियां होना स्वाभाविक है .पर तब सहयोग और सहारा देने के बजाय उसके सोच को चुनौतियां देने का कोई औचित्य नहीं. क्या पढ़े-लिखे क्या अनपढ़ ,सामान्यतया अपनी श्रेष्ठतावाली पुरुषत्व की ग्रंथि से उबर नहीं पाते.यहाँ भी अहं आड़े आ जाता है.तरह-तरह से हँसी उड़ाना,फ़िकरे कसना ,वाणी का संयम खो कर व्यक्तिगत आक्षेपों से आहत कर , हीनतासूचक शब्दों की बौछार कर समझते है कि उसकी छवि धुँधली कर रहे है. अगर सीधे यौन-व्यवहार में नहीं खींच पायें तो गालियाँ कहीं चली गई हैं क्या ? शब्दों से छीलते हैं, अश्लील शब्दावली में घसीट कर अपनी मनोवृत्ति दर्शाते हैं - कहीं अभिव्यक्ति में कहीं आचरण में,पालिश्ड या जाहिल सब अपने ढंग के अनुसार . कहीं घर का आदमी कह देता है ,'जहाँ चाहो चली जाओ ,यहाँ रहो तो ऐसे ही रहना है.' मंचों पर भी मत-भिन्नता होने पर ऐसा व्यक्ति कुछ तो भी बकने लगता है विचलित करने का हर प्रयत्न. या तो स्त्री भी उनके स्तर पर उतरे, नहीं सहन कर सकती तो घर बैठे,(क्यों आईं हमारे बीच दफ़ा हो जाओ).'
यही मानसिकता पहले शब्दों में व्यक्त होती है फिर व्यवहार में उतरने लगती है. .ऊपर से सभ्यता ओढ़े रहनेवाले, असभ्य,जाहिल,अश्लील ,बर्बर आदि अनेक स्तरों पर इसी समाज के लोग हैं.,जिनका उद्देश्य एक ही - स्त्री को हीन सिद्ध कर ,उसे प्रताड़ित कर, शारीरिक मानसिक आघात पहुँचा कर आत्म-तृप्ति पाना .किसी भी क्षेत्र का कोई व्यक्ति उसी क्षेत्र की महिला के लिए हिकारत भरी,अभद्र और कभी-कभी अश्लील भाषा तक का प्रयोग करे,उसे आहत कर आत्म-सुख का अनुभव करे तो यह उसे अपना पुरुषोचित अधिकार लगता है.अन्य लोग दर्शक बन कर देखते हैं, मज़ा लेनेवाले भी जमा हो जाते हैं. पुरुष की भौतिक और सामाजिक सामर्थ्य के आगे नारी विवश हो जाती है(काश नैतिक बल भी उसी अनुपात में रहता, पर अक्सर ऐसा नहीं होता.) संस्कारशील लोगों की कमी नहीं है पर वे बीच में पड़ने से बचते हैं.लेकिन जब समाज का दूषण इतना भयावह हो उठे तो उनका दायित्व बनता है कि वे सक्रिय हों .
अगर सचमुच ये बातें चुभती हैं तो सजग हो कर पहले अपने क्षेत्र के विकार हटाने को आगे बढ़ें,बाद का रास्ता आसान हो जाएगा. अन्य क्षेत्रों के समान इस समाज का एक लघु-संस्करण यह 'ब्लाग-लोक' भी है,जिसका का लोक-जगत भी उसी समाज का प्रतिनिधित्व करता है.और इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है ,हर जगह उसकी पैठ है.यहाँ प्रबुद्ध-जनों की कमी नहीं है.अपने क्षेत्र में ही सचेत हो जाएँ ,थोड़ा प्रयत्न करते रहें -झाड़-बुहार करते हुए, तो मानसिक प्रदूषण में कमी आए और संचित सड़ाँध का भी उपचार होने लगे .
कहना सिर्फ़ यह है कि कहीं से तो शुरूआत हो !
जनता सावधान हो जाए फिर तो शासन और क़ानून-व्यवस्था को सचेत होना पड़ेगा ही!
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