सोमवार, 29 सितंबर 2014

हिसाब-किताब.


(यह कविता मुझे ई-मेल से प्राप्त हुई  जिसके  ,मूल प्रेषक   raviwarsha@gmail.com 9822329340 है - रचयिता को धन्यवाद देते हुए मैं इसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ,जिससे कि सभी लोग इसका आनन्द उठा सकें - )
 
*
पढ़ सके न खुद,  किताब मांग रहे है,खुद रख न पाए, वे हिसाब मांग रहे है।
जो कर सके न साठ साल में कोई विकास देश का, वे सौ दिनों में जवाब मांग रहे है।
आज गधे गुलाब मांग रहे है, चोर लुटेरे इन्साफ मांग रहे है।
जो लूटते रहे देश को 60 सालों तक,सुना है आज वो 1OO दिन का हिसाब मांग रहे है?जब 3 महीनो में पेट्रोल की कीमते 7 रुपये तक कम हो जाये,जब 3 महीनो में डॉलर 68 से 60 हो जाये,जब 3 महीनो में सब्जियों की कीमतें कम हो जाये,जब 3 महीनो में सिलिंडर की कीमते कम हो जाये,जब 3 महीनो में बुलेट ट्रैन भारत में चलाये जाने को सरकार की हरी झंडी मिल जाये,जब 3 महीनो में सभी सरकारी कर्मचारी समय पर ऑफिस पहुँचने लग जाये,जब 3 महीनो में काले धन वापसी पर कमिटी बन जाये,जब 3 महीनो में पाकिस्तान को एक करारा जवाब दे दिया जाए,जब 3 महीनो में भारत के सभी पडोसी मुल्को से रिश्ते सुधरने लग जाये,जब 3 महीनो में हमारी हिन्दू नगरी काशी को स्मार्ट सिटी बनाने जैसा प्रोजेक्ट पास हो जाये,जब 3 महीनो में विकास दर 2 साल में सबसे ज्यादा हो जाये,जब हर गरीबो के उठान के लिए जन धन योजना पास हो जाये.
जब इराक से हजारो भारतीयों को सही सलामत वतन वापसी हो जाये!
तो भाई अच्छे दिन कैसे नहीं आये???वो रस्सी आज भी संग्रहालय में है, जिससे गांधी बकरी बांधा करते थे
किन्तु वो रस्सी कहां है जिस पे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हँसते हुए झूले थे?हालात-ए-मुल्क देख के रोया न गया,कोशिश तो की पर मुँह ढक के सोया न गया
देश मेरा क्या बाजार हो गया है ...
पकड़ता हूँ तिरंगा तो लोग पूछते है कितने का है...
वर्षों बाद एक नेता को माँ गंगा की आरती करते देखा है,वरना अब तक एक परिवार की समाधियों पर फूल चढ़ते देखा है।  
वर्षों बाद एक नेता को अपनी मातृभाषा में बोलते देखा है,वरना अब तक रटी रटाई अंग्रेजी बोलते देखा है।
वर्षों बाद एक नेता को Statue Of Unity बनाते देखा है,वरना अब तक एक परिवार की मूर्तियां बनते देखा है।
वर्षों बाद एक नेता को संसद की माटी चूमते देखा है,वरना अब तक इटैलियन सैंडिल चाटते देखा है।
वर्षों बाद एक नेता को देश के लिए रोते देखा है,वरना अब तक "मेरे पति को मार दिया" कह कर वोटों की भीख मांगते देखा है।
पाकिस्तान को घबराते देखा है,अमेरिका को झुकते देखा है।
इतने वर्षों बाद भारत माँ को खुलकर मुस्कुराते देखा है।
***************************
दोस्तों हर हिंदुस्तानी सेे शेयर करे
Proud to be a Good Indian

*
सौजन्य से -


Cdr Ravindra Waman Pathak I.N. (Retd)      
Member Governing Body and Pension Cell
Indian Ex Servicemen Movement
1 Surashri,1146 Lakaki Road
Shivajinagar 
Pune 411016
raviwarsha@gmail.com
9822329340

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

कुँआरी नदी - 4 .

1
कहाँ रही जुहिला ?
हेर हेर पथ थकी नर्मदा, पखवाड़ा बीता,
भूख-प्यास बिसराई सारा स्वाद हुआ तीता .
फिर न रुक सकी ,उठ कर चल दी बिना साज-सिंगारे ,
कुछ अनहोनी हुई न  हो - कैसे धीरज धारे .
2
पग अटपट पड़ रहे ,वेग से भर आई छाती .
जयसिंह पुर तक जा पहुँची वह पल-पल अकुलाती .
निकला बरहा ग्राम ,अरे वह, आया दशरथ घाट,
लहराता है दूर-दूर तक कितना चौड़ा पाट!
3
शोण भद्र के बाम पार्श्व में जुहिला की धारा 
समा गई थी वहीं , हहरता फेन भरा सारा .
चूड़ियन की कुछ टूट ,वस्त्र से झरे सुनहरे कण
 अपने सभी प्रसाधन वह पहचान गई तत्क्षण.
4
शैवालों में जा अटका था रेशम का फुँदना .
चोली के डोरी-बंधन में  सजता था कितना!
अरी जोहिला ,आई थी देने  मेरी पाती
ओह, समझ आया सब-कुछ. निकली कैसी घाती!
5
अरी, स्वयं-दूतिका, निलज्जा और शोण तुम भी ..
खोया संयम धीरज तुमने ,तोड़ दिया प्रण भी?
अब किसका विश्वास ,नहीं कोई जग में अपना,
जीवन भर की आस  भग्न हो गई कि ज्यों सपना!
6
प्रेम भरे हिय पर मारा , कैसा निर्मम  धक्का,
क्षार हुआ माधुर्य ,विराग जमा हो कर पक्का.
वह जो थी वह रही, शोण ,पर मुझे दुख  तुम पर-
समझे बैठी थी समर्थ  वचनों का पक्का नर !
7.
यह  संसार व्यर्थ सारा ,बेकार सभी नाते ,
प्रेम एक  धोखा ,शपथें हैं जिह्वा की घातें !
चलो जहाँ ,कोई न सखा , कोई न मिले  अपना
मन अब शान्ति खोजता केवल, बस एकान्त घना .
 8 .
पूरब दिशि से मोड़ लिया मुख ,घूम गई पच्छिम,
उसी बिन्दु से लौट पड़ी, आहत रेवा तत्क्षण .
जुहिला का सच जान, शोण को  भारी पछतावा ,
 दुःख-ग्लानि से पूर हृदय में समा गई चिन्ता .
 9 .
 पलट चली  रेवा घहरा कर शोण पुकार उठा -
' रुक जा री रेवा !
रूक जा रेवा , मत जा , मुझसे  दूर कहीं मत जा!
मेरी प्रीत पुकारे रेवा ,मुझसे रूठ  न जा!!
10 .
बालापन का नेह, बिसर पायेगा नहीं हिया.
बतला, तेरे बिन ये जीवन किस विध जाय जिया !  
दुख का ओर न छोर .नर्मदा मुझसे दूर न जा !
11.
मन से मन का नाता सच्चा  काहे जान न पाई ,
एक बार, बस एक भूल को छिमा न तू कर पाई.
एक तु ही रे मीत नरमदा ,ऐसे दे न सजा !
 12 .
मैं पछताता रहूँ और तुझको भी चैन कहाँ ,'
नेहगंध  में  काहे उसको बाँट दिया  हिस्सा?
जहर पिला दे  अपने हाथों, ऐसे मत तड़पा!
मुझसे दूर न जा  !'
13 .
रपटीली पथरीली राहें ,धार-धार  बिखराएँ,
टेर रही आवाज़ शोण की, कानों सुनी न जाए.
तन की सुध ना  मन में चैना ,पल-पल जल छलकाती ,
 रुके न रेवा ,सुध-बुध खोई ,कौन उसे समझाए !
14.
शोण गुहारे मेखल तक जा, टोको रे उसको ,
मान्य -स्वजन सेवक, संबंधी, कोई  दौड़ गहो!
पच्छिम दिसा विकट पथरीली, कोई सोचो रे!!
कोई  करो उपाय , अरे, रेवा को रोको  रे !!!
*
( क्रमशः)

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

कुँआरी नदी - 3 .

24.
बहता चला जा रहा शोण, ले के चढ़ती उमरिया  का रोर ,
अपने में डूबा ,उछाले मछरियाँ  उमंँगें तरंगे  अछोर .
सोने सा रँग ,रूप दमके सलोना , डोले तो धरती डुलाय,
गज भर का सीना ,पहारन सी देही ,बाहों में पौरुख अपार .
25.
देखा न ऐसा पुरुष कोई  अब लौं, जुहिला तो आपा भुलानी ,
पग की उतावल थकी,जइस उफनत गोरस पे छींट्यो पानी   .
मनकी ललक और तन की छलक पीर जागी हिया में अजानी
हाय रे ,कैसा बाँका मरद ,देख दूरहि ते जुहिला सिहानी.
26.
आई कहाँ से सुवास ,खिल गई ज्यों  बकावलि पाँत,
चौंका सा   देख रहा शोण,  नई रंगत नए आभास .
स्वप्न है  या कि सच ये यहाँ, मन अजाने भरमने लगा ,
एक दृष्यावली सामने और कौतुक संँवरने लगा .
27.

तन के वर्तुलों पर बिखरता  उमड़ी लहर का जल ,
उछलती  मोतियों सी ,झलकतीं बूँदें चमक चंचल ,
असंख्यक  झिलमिलाते कौंध जाते हार हीरों के -
नगों की जगमगाती जोत, जल में बिछलती पल-पल !

28.
 दिखाती इन्द्रधनु सतरंग बूँदों के,
दमकती देह लहराती बही आती -
फुहारें छूटतीं या टूटतीं नग-हार की लड़ियाँ ,

हिलोरे ले तटों तक की शिराएँ दीप्त कर जाती!
तभी मधु-स्वर -

' नमस्ते भद्र ,यह शुभ दिन दिखाया धन्य हूँ मैं तो '
जुड़े कर ,मोहिनी सी डाल ,लहराती  समुन्मुख हो .'
चकित बोला,'शुभागम हो ,तनिक विश्राम ले लें अब.

भ्रमण का हेतु,परिचय ,जानने को मन हुआ उत्सुक.'
30
' बदल इतने गए , पहचान मैेैं भी तो नहीं पाती,
वही तुम भद्र, बचपन के, न यह अनुमान भी पाती .'
भ्रमित -सा शोण, 'बचपन में कहाँ?' बोली,' अमरकंटक.
वहीं से तो चली  ,बीहड़ वनों में खोजती यह  पथ !'
31.
' बरस बीते, शिखर वह रम्य जीवन का 'अमरकंटक' 
सभी कुछ याद आया नाम सुन तुमसे 'अमरकंटक' !
तुम्हारी वास स्मृतियों को जगा, भटका रही है क्यों ?
'वही हो तुम, वही' - फिर फिर यही दोहरा रही है क्यों ?
32.
मिली है बुद्धि  इतनी तो कि मैं अनुमान कर पाऊँ
तुम्हारी राजसी भूषा निरख, पहचान मैं  जाऊं .
यही तो गंध मेरी है ,तुम्हें सौगंध है मेरी   .
बकावलि शर्त जीता मैं ,वही अनुबंध हो मेरी .'
33.
इसी के तो लिए मैं दुर्गमों में वर्ष भर भटका ,
अँधेरी घाटियों में पर्वतों में भी नहीं अटका .
भयंकर नाग-दानव-यक्ष सबसे पार पाया था  ,
बिंधा था कंटकों से ,मृत्यु से भी जूझ आया था.
34.
भरे व्रण देह के ,लेकिन कसक अब भी उभर आती ,
प्रिया को अंक में पाए बिना क्यों शान्त हो पाती .
सकारथ हो गया ,पाया तुम्हें, बस शेष अब कुछ दिन ,
तनिक तुम पास आओ,तृप्ति कुछ पाये,तृषित यह मन .
35.
तुम्हारे प्रेम की गरिमा, कठिन पथ चल यहाँ आईँ ,
सुकोमल पग-करों को ,पा गया सौभाग्य सहलाऊँ .'
तनिक मुड़, अँगुलियों से पत्र बाहर खींचने का क्रम ,
उसी क्षण  शोण उस  उत्तेजना में कर गया व्यतिक्रम.
36.
चौंक जुहिला गई और डगमग हुई
वह सँभलते-सँभलते थमी रह गई ,

नीर उफना उठा वेग-आवेग में ,
और पाती न जाने कहाँ बह गई !
37.
कुछ न पूछा, न कुछ भी बताया,
लहर से लहर मिल गई बोल चुप रह गये .
दो प्रवाहों का ऐसा उमँगता मिलन
शोण-जुहिला मिले साथ ही बह गए !
38.
सब भूल शोण की लहरों में जा डूबी,
फिर  लाज शरम सब बिला गई पानी में
आदिम नारी बन गई आदिवासिन तब ,
उस काम्य पुरुष की उद्धत मनमानी में !
39.
 जुहिला तो वहीं विलीन हो गई सचमुच ,
अब लौट कहाँ पाए अपनी  राहों में?
 सब कुछ बीता हो जाता, उस नारी का  ,
जो समा गई जाकर नर की बाहों में !
40
फिर देश-काल मर्यादा कौन विचारे ,
यह दोष स्वभावों में धर गया विधाता ,
देहोन्माद आवेग उमड़ता जब भी 
सुर-नर-मुनि कोई नहीं यहाँ बच पाता  !
*
 रात है या दिन न जाने शोण -
स्तब्ध बरहा ग्राम , दशरथ घाट .
हो गया क्या ,आँख फाड़े -

मौन छाया है  ,महा-आकाश !
*

(क्रमशः)

सोमवार, 8 सितंबर 2014

दो थापें -

*
कुंकुम रंजित करतल की छाप अभी भी,
इन दीवारों से झाँक रही है घर में ,
पुत्री तो बिदा हो गई लेकिन उसकी,
माया तो अब भी व्याप रही है घर में !

उसकी छाया आ डोलडोल जाती है ,
जब सावन के बादल नभ में घहराते ,
कानों में मधु स्वर बोल- बोल जाती है
जब भी झूलों के गीत कान में आते !

कोई सुसवादु व्यंजन थाली में आता,
क्या पता आज उसने क्या खाया होगा !
संकुचित वहाँ झिझकी सी रहती होगी ,
उसका मन कोई जान न पाया होगा !

बेटी ससुराल गई पर उसकी यादें ,
कितनी गहरी पैठी हैं माँ के मन में ,
नन्हीं सी गुड़िया जिसको पाला पोसा
किस तरह बिदा ले, गई पराये घर में !


अधिकार नहीं कोई कुछ कह लूं, सुन लूं ,
छू लूँ,समेट लूँ ममता के अाँ चल में.
कैसी बेबसी अभी तक सिर्फ़ हमीं थे,
अधिकार हीन हो गये एक ही पल में

मन कैसा हो जाता आकुल भीगा सा
सामने खड़ी हो जाती उसकी सूरत ,
हो गई पराई कैसे, जिसे जनम से
निष्कलुष रखा जैसे गौरा की मूरत !

कर उसे याद मन व्याकुल सा हो जाता ,
कितनी यादें उमड़ी आतीं अंतर में ,
नन्हें करतल जब विकसे खिले कमल से
बस दो थापें धर गये नयन को भरने !
*
(नोट- यह कविता  पुत्री के विवाह के पश्चात् लिखी  थी .) 

शनिवार, 6 सितंबर 2014

कुँआरी नदी - 2 .

 12.

पूर्वराग# में मगन नरमदा रहती खोई-खोई ,
जुहिला सखि,के नाते करती रहती थी दिलजोई.
'प्रीत पाल ली मन में ,चुपके जाकर मिल भी आ, री ?'
'चुप्पै बैठ जुहिलिया, लाज शरम तू कुछ न विचारी .'
*
( और फिर एक दिन -)
13.
कुहनी टिकाये अधलेटी-सी रेवा पी को लिखे प्रेम पाती,
ऐसी मगन सुध खोई, न जानी ,जुहिला खड़ी मुसकराती .
'पाती  लिखै, बेसरम - बेहया ,कइस   बैठी इहाँ पे अकेली ,
मो सों न चोरी चलिबे तिहारी, बचपन से मो संग खेली !
14.
'सुन री सखी ,मोरी जोहिला बहिनियाँ,जाने तू मनवा की पीर ,
चाहों में काटूँ जो रतियाँ अकेली तू ही बँधावे धीर .
साथी रहे शोण बालापने को, मँगेतर भयो मन हुलास .
मैं तो सयानी भई ,मेरी सजनी , पी से मिलन की  आस !'
15.
दोनों सखी साथ बहती चलीं एक दूजी से कर मन की बात
'कासे कहूँ, लाज लागे मोहे, एक तू ही पे मोरा बिसास.
जुहिला री गुइयाँ , मोरी सखी ,काके हाथन पठाऊँ सँदेस? '
'चिन्ता न कर मोरी बहिनी नरबदा ,काहे करे हिय हरास !
16.
'अबके सहालग पे आयेंगे ब्याहन दूल्हा बने सिर मौर ,
फिर हम कहाँ साथ ,होंगे सहेली , थोरी सबूरी    और .
तोरी लिखी प्रेम-पाती ला बहिनी, ले  जाऊँ जीजा के पास .'
हुलसी नरबदा ,आगे बढ़ी थाम लीन्हें जुहिलिया के हाथ.
17.
'एकै तु ही , मोरे हियरा की जाने ,तो से ही पाऊँ मैं धीर,
मोरे  लिख्यो तू ही पहुँचाय दीजो, मोरे पिया जी के तीर.
 तुरतै न पकराय  दीजो, तभै  जब ओ ही  करें  मोहे याद  .
  पहले परीच्छा लीजो सखी , जान लीजो हिया को  सुभाव .'

18 .
 थोरा खिजा के, थोरा  रिझा के ,बातन से करके बनाव,
चक्कर में जीजा को डालूंगी पहले  ,संदेसवा ताके बाद .
 विरहा की पाती अपने से  बाँचेगा तेरा पिया हो निरांत$ !
गुनती रहौंगी   चेहरे की भंगी, हियरा का पढ़ लूँगी साँच.

19.
 तेरी सखी हूँ ,जानेगा तब ही  ,ला री ला, चिठिया दे  हाथ.
 पहनावा तेरा धारूँगी गुइयाँ , होवे बड़ा ही   मजाक.
हँस के नरबदा ने खोली पिटारी ,पहिना दी भूषण-वस्त्र .
'जुहिला ,अरी तू  पिछानी न जाये ',रेवा तो एकदम निःशब्द !
20.
'अँगियामें,घाघरमें,चूनरमें,चोलीमें रेवा री,का की सुगंधि?'
'पिया की लाई बकावलि धरी ही, ऐ ही पिटरिया में संचि.
 या ही में मोरे प्राण बसत हैं ,हे सखि ,  कहियो जाय !'
रेवा ने जुहिला को तुरतै पठायो अापुन सौंह दिबाय
21.
रेशम की अंगिया,लहरिया की चूनर,घघरी की घूमें अछोर,
बाहों में जगमग  सतरँग चुरियाँ  , छाती पे हारें हिलोर.
 जुहिला चलीें ,तन लहरे    ,सुगंधी मह-मह पवन  उड़ाय,
 यौवन का मद अइस भारी,धरति पे धारत पग डगमगाय.
*
22
 पाती अंगिया  ठूँस धरी,गति बल खाती,लहराती ,
देख कुमारी रेवा की रह गई धक्क से छाती .
देखत रही लगाए  टक-टक  , उठी हिया में हूक,
अइस  मरोर उठे , हुइ जाये कहीं कलेजा  टूक  .
22
बावलिया सी जुहिला नेह- मुग्ध  पर  रीत  न जाने,
क्या कुछ  ये कह डाले ,फिर क्या सोचे शोण न जाने.
 गई ,गई वह गई ,न जाने वो लौटे  क्या करके ,
चैन न पल भर पाए रेवा ,समय न आगे सरके .

*

# पूर्वराग --विरह के चार प्रकारों - पूर्वराग ,मान ,प्रवास और करुण, में से प्रथम.
$ निरांत --इत्मीनान से .
(क्रमशः )