मेरे बचपन की एक और बाल-कविता -
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चंपा ने कहा,' चमेली ,क्यों बैठी आज अकेली,
क्यों सिसक-सिसक कर रोतीं ,क्यों आँसू से मुँह धोतीं,
क्या अम्माँ ने फटकारा ,कुछ होगा कसूर तुम्हारा ,
या गुड़ियाँ हिरा गई हैं, या सखियाँ बिरा गई हैं?
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भइया ने तुम्हें खिजाया ,क्यों इतना रोना आया ?
अम्माँ को बतलाती हूँ मैं अभी बुला लाती हूँ , .'
सिसकी भर कहे चमेली,'मैं तो रह गई अकेली
देखो वह पिंजरा सूना ,उड़ गई हमारी मैना !
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मैं उसे खिला कर खाती ,बातें भी करती जाती
कितना भाती थी मन को ,क्यों छोड़ गई वह हमको?'
'इक बात मुझे बतलाओ तुम भी यों ही फँस जाओ
जब कोई तुम्हें पकड़ के, पिंजरे में रखे जकड़ के!
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खाना-पानी मिल जाए फिर बंद कर दिया जाए
तो कैसा तुम्हें लगेगा किस तरह समय बीतेगा?
तुम रह जाओगी रो कर, खुश रह पाओगी क्योंकर ?
वह उड़ती थी मनमाना, सखियों सँग खेल रचाना!
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ला उसे कैद में डाला ,कितना बेबस कर डाला !
पिंजरे में थी बेचारी, पंखोंवाली नभ-चारी .
अब उड़-उड़कर खेलेगी ,वह डालों पर झूलेगी .
छोटा सा नीड़ रचेगी ,अपनो के साथ हँसेगी.
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उसको सुख से रहने दो ,अपने मन की कहने दो !
धर देना दाना-पानी, खुश होगी मैना रानी !'
तब हँसने लगी चमेली, तूने सच कहा सहेली,
'ये पंछी कितने प्यारे ,आयेंगे साँझ-सकारे !'
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( बाद के चार छंद मूल कविता के नहीं हैं ,किसी को पता हो तो बता कर उपकृत करे!- प्रतिभा. )