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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

मन


जान रही हूँ,मन,

 तुम्हें ,समझ रही हूँ ,
तुम वह नहीं जो दिखते हो!
वह भी नहीं -
ऊपर से जो लगते रूखे ,तीखे,खिन्न!
चढ़ती-उतरती लहरों के आलोड़न ,
आवेग-आवेश के अथिर अंकन
अंतर  झाँकने नहीं देते !
*
तने जाल हटते  हैं जब, 
आघातों के वेगहीन होने पर , 
सारी उठा-पटक से परे,
एक सरल-निर्मल सतह  
की ओझल खोह से
झाँक जाता है,
शान्त क्षणों में बिंबित 
दर्पण सा मन !
ऊपरी तहों में लिपटे भी  ,
कितने  समान हम !
*

सोमवार, 25 मार्च 2013

होली के दोहे.


*
एक रंग है प्रीत का, बाकी सब तो स्याम,
अक्षर-अक्षर तू लिखा, मैं रह गई अनाम .
 *
जो जंगल सुलगा रहे, वही पलाश बटोर,
घोल रंग होली किया, दहक रहा हर पोर .
*
उसी आग के रंग से, चूनर रँग दे श्याम ,
तन-मन ताप समा गया, अब संसार हराम .
*
क्यों साबुन रगड़े सखी,चढ़ा श्याम का रंग
फीका कैसे होयगा ,जब हो रहा अनंग.
*
मेरा  तन मत नाप रे , साजन से ले पूछ,
दरजी, तब  पोषाक में रहे न कोई चूक.
*

बुधवार, 13 मार्च 2013

एक लोरी : मेरे बचपन की.

*
आ जा री निंदिया.
आ जा री निंदिया आ जा ,मुनिया/मुन्ना को सुला जा !

मुन्ना है शैतान हमारा .
रूठ बितता है दिन सारा .
हाट-बाट औ'अली-गली में नींद करे चट फेरी ,
शाम को आवे लाल सुलावे उड़ जा बड़ी सवेरी !
*
आ जा निंदिया आ जा तेरी मुनिया जोहे बाट ,
सोने के हैं पाए जिसके रूपे की है खाट
मखमल का है लाल बिछौना तकिया झालरदार ,
सवा लाख हैं मोती जिसमें लटकें लाल हज़ार !
*
आ जा री निंदिया आ जा!
नींद कहे  मैं आती हूँ सँग में सपने लाती हूँ .
निंदिया आवे निंदिया जाय ,निंदिया बैठी घी-गुड़ खाय,
*
(वर्षा के मौसम में जुड़ जाता -)
पानी बरसे झम-झम कर, बिजली चमके चम-चम कर
,भोर का जागा मुन्ना ,मेरी गोद में सोवे बन-बन कर .
निरख-निरख छवि तन-मन वारूँ लोर सुनाऊं चुन-चुन कर .

आजा री निंदिया.
--

गुरुवार, 7 मार्च 2013

चंपा और चमेली .


मेरे बचपन की एक और बाल-कविता -
*
चंपा ने कहा,' चमेली ,क्यों बैठी आज अकेली,
क्यों सिसक-सिसक कर रोतीं ,क्यों आँसू से मुँह धोतीं,
क्या अम्माँ ने फटकारा ,कुछ होगा कसूर तुम्हारा ,
या गुड़ियाँ हिरा गई हैं, या सखियाँ बिरा गई हैं?
*
भइया ने तुम्हें खिजाया ,क्यों इतना रोना आया ?
अम्माँ को बतलाती हूँ मैं अभी बुला लाती हूँ , .'
सिसकी भर कहे चमेली,'मैं तो रह गई अकेली
 देखो वह पिंजरा सूना ,उड़ गई हमारी मैना !
*
मैं उसे खिला कर खाती ,बातें भी करती जाती
कितना भाती थी मन को ,क्यों छोड़ गई वह हमको?'
'इक बात मुझे बतलाओ तुम भी यों ही फँस जाओ
जब कोई तुम्हें पकड़ के, पिंजरे में रखे जकड़ के!
*
खाना-पानी मिल जाए फिर बंद कर दिया जाए
 तो कैसा तुम्हें लगेगा किस तरह समय बीतेगा?
तुम रह जाओगी रो कर, खुश रह पाओगी क्योंकर ?
वह उड़ती थी मनमाना, सखियों सँग खेल रचाना!
*
ला उसे कैद में डाला ,कितना बेबस कर डाला !
पिंजरे में थी बेचारी, पंखोंवाली नभ-चारी .
अब उड़-उड़कर खेलेगी ,वह डालों पर झूलेगी .
छोटा सा नीड़ रचेगी ,अपनो के साथ हँसेगी.
*
उसको सुख से रहने दो ,अपने मन की कहने दो !
 धर देना दाना-पानी, खुश होगी मैना रानी !'
तब हँसने लगी चमेली, तूने सच कहा सहेली,
'ये पंछी कितने प्यारे ,आयेंगे साँझ-सकारे !'
*
( बाद के  चार छंद मूल कविता के नहीं हैं ,किसी को पता हो तो बता कर उपकृत करे!-  प्रतिभा.  )

सोमवार, 4 मार्च 2013

उत्तर दोगे ?

 *
नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं !
सहज रूप से प्यार करती हूँ  तुम्हें!
आदर भी तुम्हारी क्षमताओं का, सामर्थ्य का!
आकाश जैसे छाये कई रूप -
पिता ,भाई ,पति, पुत्र, मित्र  ,
अभिभूत करते हैं.
जीवन के हिस्सेदार सब,
स्वीकार करती हूँ .
*
पर पुरुष मात्र होते  -
जब इनमें से कुछ नहीं
एक व्यक्ति मात्र, 
संबंधों की सीमा से  मुक्त.
तब ?हाँ ,तब--

रूप बदल जाता है  झट् से .
वह कौतुक भरी तकन
 नापती -तोलती, असहज करती नारी-तन .
नर का चोला खिसका
झाँकने लगता  पशु ,
क्या पता  कब  हो जाओ
भूखे ,आतुर, दुर्दांन्त,
रौंदने को तत्पर !
विश्वास नहीं करती,
घृणा करती हूँ तुमसे !
*
एक बात और -
 अपना कह, सब कुछ अर्पण कर
 धन्यता मानी थी!    .
पर क्या ठिकाना तुम्हारा ,
घबरा कर,ऊब कर,
आत्म-कल्याण-हित, 
परमार्थ खोजने चल दो,
कीचड़ में छोड़,
भुगतने को अकेली.
खुद का किया धरा मुझ पर लाद ,
कायर असमर्थ ,दुर्बल तुम!

*
 क्यों ? कल्याण के मार्ग 
 मेरे लिये रुद्ध हैं?
अगर हैं,
तो तुमने  रूँधे हैं ,
कि संसार 
अबाध चलता रहे !
*
 क्या कभी तुम्हें 
बीच मँझधार छोड़,
अपने लिये भागी मैं ?
- उत्तर दोगे ?
*