तुमने जो भी दिया ,निबाहा क्षमता भर ,धर सिर-आँखों पर ,
ले इतना विश्वास , कि मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
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मेरी त्रुटियाँ ,दुर्बलताएँ,मेरे मति-भ्रम ,मेरे विचलन,
मेरे यत्न देखना केवल बाकी सभी तुम्हारे अर्पण ,
दिशा-ज्ञान की कौन कहे अनजाना हो गंतव्य जहाँ पर
बोध-शोध सब परे धर दिये ,आगे ध्यान तुम्हीं रक्खोगे !
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लीन स्वयं में करना लेना मन , सारी चित्त-वृत्तियाँ धारे
जब स्व-भाव भी डूब, विलय हो इस अगाध सागर में खारे .
निस्पृह हो धर चलूँ यहीं पर ,राग-विराग, जिन्हे ओढ़ा था,
सारी डूब समाई तुम में, अब संधान तुम्हीं रक्खोगे !
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क्षमा-दान मत दो कि,साध्य हो प्रायश्चित तप-तप कर धुलना,
निर्मलता में सँजो तुम्हारी करुणा का कण-कण किं-बहुना.
तुमसे कौन शिकायत,शंका या आशंका चिन्ता मुझको .
मन दर्पण बन रहे तुम्हारा , तब तो भान तुम्हीं रक्खोगे !
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बस इतना विश्वास कि मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
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