(एक बहुत पुरानी मित्र (यह भी पता नहीं कि अब कहाँ है)की कविता ,जिसे अब तक सँजोये रखे रही , यहाँ देने से अब अपने को रोक नहीं पा रही हूँ .)
*
न जाने क्यों मुझे वह दृष्य रह-रह याद आता है ,
तुम्हारा झिझकते जाते बताना याद आता है ,
न आ पाये कभी ,संकोच इतना क्यों मुझी से था ,
सभी तो साथ थे पर एक बचना क्यों मुझी से था !
*
मुझी से दूर क्यों थे ,जब कि सबके पास में तुम थे
मुझी से दूरियां थीं और सबकी आँख में तुम थे ,
नहीं मैं जानती थी यह कि खुद आ कर बताओगे
बिदा की बेर आकर कुछ कहोगे ,लौट जाओगे !
*
हमेशा के लिये तुम कुछ खटकता छोड़ जाओगे ,
सरल सी राह को आकर अचानक मोड़ जाओगे !
कहाँ हो तुम ,पता मैं खोजती चुपचाप रह कर ही ,
कि शायद सामने आ जाओ अनजाने अचानक ही .
*
एकाएक चौंक जाऊँ सामने पा कर तुम्हें अपने,
अचानक पूर्ण हो जाएं असंभव जो रहे सपने
यही बस एक रह-रह कर खटक मन में उठाता है ,
कभी जो सुन न पाया आखिरी पल क्यों सुनाता है .
*
बहुत स्तब्ध ,उमड़े आँसुओं को रोकती सी मैं
नयन धुँधला गये से किस तरह से देख पाती मैं
न कुछ भी बोल पाऊँ ,देख भी पाऊँ न वह चेहरा
हमेशा के लिये मन पर रहे अपराध सा गहरा .
*
न कोई रास्ता ,कोई न कुछ धीरज बँधाने को ,
न आगे बढ़ सकूँ अब, औ' न पीछे लौट जाने को
अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .
*
मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
तुम्हें तो पता भी शायद न हो कि कैसे ज़िन्दगी बीती
ख़बर भी हो न तुमको ,किस तरह हरदम रही रीती .
*
कि कितने आँसुओं ने धो दिये सब आँख के सपने .
कि कितने शून्यता के बीज मन में ही लगे रुपने
इसी की छाँह में जो शब्द कानों ने सुने थे तब
उन्हीं की गूँज रह-रह लौटती है सिर्फ़ क्यों मुझ तक
*
अगर तुम चाहते तो क्या कभी कुछ तो पता लेते
अगर कुछ जोड़ था मन का, उसे थोड़ा निभा देते .
वहीं पर खड़ी हूँ अब भी ,कभी यह बात कह जाओ -
'न देखो राह मेरी अब कहीं तुम और बढ़ जाओ !'
*
- कल्पना.
(कविता उसी रूप में है ,मैंने कोई फेर-बदल नहीं किया )
*
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न जाने क्यों मुझे वह दृष्य रह-रह याद आता है ,
तुम्हारा झिझकते जाते बताना याद आता है ,
न आ पाये कभी ,संकोच इतना क्यों मुझी से था ,
सभी तो साथ थे पर एक बचना क्यों मुझी से था !
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मुझी से दूर क्यों थे ,जब कि सबके पास में तुम थे
मुझी से दूरियां थीं और सबकी आँख में तुम थे ,
नहीं मैं जानती थी यह कि खुद आ कर बताओगे
बिदा की बेर आकर कुछ कहोगे ,लौट जाओगे !
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हमेशा के लिये तुम कुछ खटकता छोड़ जाओगे ,
सरल सी राह को आकर अचानक मोड़ जाओगे !
कहाँ हो तुम ,पता मैं खोजती चुपचाप रह कर ही ,
कि शायद सामने आ जाओ अनजाने अचानक ही .
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एकाएक चौंक जाऊँ सामने पा कर तुम्हें अपने,
अचानक पूर्ण हो जाएं असंभव जो रहे सपने
यही बस एक रह-रह कर खटक मन में उठाता है ,
कभी जो सुन न पाया आखिरी पल क्यों सुनाता है .
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बहुत स्तब्ध ,उमड़े आँसुओं को रोकती सी मैं
नयन धुँधला गये से किस तरह से देख पाती मैं
न कुछ भी बोल पाऊँ ,देख भी पाऊँ न वह चेहरा
हमेशा के लिये मन पर रहे अपराध सा गहरा .
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न कोई रास्ता ,कोई न कुछ धीरज बँधाने को ,
न आगे बढ़ सकूँ अब, औ' न पीछे लौट जाने को
अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .
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मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
तुम्हें तो पता भी शायद न हो कि कैसे ज़िन्दगी बीती
ख़बर भी हो न तुमको ,किस तरह हरदम रही रीती .
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कि कितने आँसुओं ने धो दिये सब आँख के सपने .
कि कितने शून्यता के बीज मन में ही लगे रुपने
इसी की छाँह में जो शब्द कानों ने सुने थे तब
उन्हीं की गूँज रह-रह लौटती है सिर्फ़ क्यों मुझ तक
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अगर तुम चाहते तो क्या कभी कुछ तो पता लेते
अगर कुछ जोड़ था मन का, उसे थोड़ा निभा देते .
वहीं पर खड़ी हूँ अब भी ,कभी यह बात कह जाओ -
'न देखो राह मेरी अब कहीं तुम और बढ़ जाओ !'
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- कल्पना.
(कविता उसी रूप में है ,मैंने कोई फेर-बदल नहीं किया )
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