हे ,भगवान !
तूने उसे माँ होने का वरदान दिया ,
अच्छा किया .
सृष्टि का तारतम्य चला .
तूने विशिष्ट बनाया नारी को
यहीं से शुरू हो गया दोहन ,
दाँव चढ़ गया सारा जीवन .
*
करती रही धर्म मान
मातृत्व का निर्वहन.
पलते-समर्थ होते पकड़ते अपनी राह .
रह जाती ढलती - छीजती,
फिर एक-एक दिन
गिनती,काटती.
*
नहीं,
भूले नहीं वे -
साल में एक दिन नियत
वंदना पूजा-परितोष का विधान .
कवियों ने रच दिये एक से एक स्तुति गान .
तान दिए महिमा के वितान.
व्यक्ति का अवसान,
मानवीय चोला हटा
अतीन्द्रिय देवी प्रतिष्ठान.
*
अरे, अब बस भी करो .
भाषण और व्यवहार के आकाश -पाताल
सम करो ,
बंद करो -
देह-मनःमय जीवन
अश्मित कर ,
भावों की बाढ़ का प्रदर्शन!
हर साल गोदाम से निकाल
अपनी गढ़ी मूरत का पूजन,
ये भावुक आयोजन
बंद करो !
*
हो सको संयत अगर -
तमाशबीनों की भीड़ बन
किसी नारी का अपवंचन
बंद करो ,
मत रहो तटस्थ ,
हो सके तो दे दो वातावरण
कि बेबस - विषण्ण न हो,
नारी -मात्र ,जीवित है जब तक
पा सके
सहज-मानवी गरिमामय जीवन!
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