सोमवार, 26 नवंबर 2012

पारायण तक !

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हल्दी रँग हाथों में जिसको ,नत शिर दे जयमाल वर लिया ,
चुटकी भर सिंदूर माँग धर ,जीवन जिसके नाम कर दिया,
सात जनम का कौन ठिकाना,नाम-रूप क्या, कौन-कहाँ पर,
जिसके साथ सात भाँवर लीं ,एक जनम तो उसे निभा दूँ ! 
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 वस्त्राभूषण भेट ज्येष्ठ ,आमंत्रण ले आये कि चलो घर,  
 राह तक रहे  आँगन उतरो ,अब अपने सौभाग्य चरण धर, 
 शुभे पधारो ,राह तक रहा पाहुन-याचक द्वार तुम्हारे .
नये पृष्ठ जो जुड़े कथा में , आगे पारायण तक ला दूँ !
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पग से धान्य भरा घट पूरा  आँगन ज्यों मंगल- राँगोली 
 कितनो नाते साथ जुड़ गये , आई थी मैं एक अकेली .
 अक्षत भरे थाल धर , दोनों पग  पूजे कुल-कन्याओं ने 
उनका यह सम्मान-भाव शिरसा धारे मै रही ,जता दूँ !
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 नाम-धाम पहचान सभी बदला, मैं कौन कहाँ सब बिसरी .
 मैं ही व्याप्ति बन गई ,निजता नेह-रची संसृति में बिखरी 
 मेरी सृष्टि ,भोग भी मेरे , विस्तारित  हो गया अहं जब,
तन से, मन से नेम-धरम से मान और प्रतिमान निभा दूँ  !
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शनिवार, 10 नवंबर 2012

शुभ - दीपावली

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रोशनी के जाल यों बुने ,
किरन-तंतु कात कर  शिखा ,
ओढ़नी उजास की बने ,
श्याम-देहिनी महानिशा !
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वायु-जल सुस्निग्ध-स्वस्थ हों,
करे अष्ट-लक्ष्मि  अवतरण !
खील-सी बिखर चले हँसी ,
शुभ्र फेनि* सा हरेक मन !

(*बताशफेनी)
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दीपावली का पर्व मंगलमय हो !

 - प्रतिभा सक्सेना
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शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

सागर के नाम -

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लिख रही अविराम सरिता,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
कि पूरा पृष्ठ भर दे  .
यह सिहरती लिपि तुम्हारे लिये ,प्रिय.
संदेश के ये सिक्त आखर .
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क्या पता कितना हवा सोखे ,
उडा ले जाय .
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ
 तट की बरज पा
 रेत-घासों में बिखर खो जायँ !
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राह मेरी-
 पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
नियति कितना, कहाँ  भटकाये.
नाम से मेरे कभी पहुँचे ,न पहुँचे
और ही जल -राशि में रल जाय !
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता ,व्यर्थ  यों उड़ जाय !
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लिख रही अविराम ,अनथक
इन सजल लिपि-अंकनों में,
 ले , तुम्हारा नाम !
शेष  कुछ तो रहे तब तक ,
 जहाँ बिखरी पंक्तियाँ
 उद्दाम फेनिल के अतल छू ,
लेश हो ,निहितार्थ का पर्याय !
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शनिवार, 3 नवंबर 2012

सोने का हिरन


 एक मनोदशा -

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !
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अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम ,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे मन !
कंद-मूल ,फल-फूल तुझे काहे न रुचे ,
धन वैभव की चाह कहाँ रखी थी छिपा .
सोने रत्नों की कौंध ,आँख भर ले , सिया !
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वनवास लिया तो भी मन उदासी ना भया ,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया,
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा .
ढल जाय तू ही मूरत न सोने की, सिया!
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घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन,
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन !
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा ,
चुपचाप यहाँ सहेगी, पछतायेगा हिया !
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काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में जा के रह ले सिया !
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इस पुरानी कविता की आज याद आ गई .सबसे बाँटने का मन हुआ ,अतः अपने एक  पुराने ब्लाग 'लोक-रंग' से  यहाँ स्थानान्तरित कर रही हूँ - - प्रतिभा.