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हल्दी रँग हाथों में जिसको ,नत शिर दे जयमाल वर लिया ,
चुटकी भर सिंदूर माँग धर ,जीवन जिसके नाम कर दिया,
सात जनम का कौन ठिकाना,नाम-रूप क्या, कौन-कहाँ पर,
जिसके साथ सात भाँवर लीं ,एक जनम तो उसे निभा दूँ !
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वस्त्राभूषण भेट ज्येष्ठ ,आमंत्रण ले आये कि चलो घर,
राह तक रहे आँगन उतरो ,अब अपने सौभाग्य चरण धर,
शुभे पधारो ,राह तक रहा पाहुन-याचक द्वार तुम्हारे .
नये पृष्ठ जो जुड़े कथा में , आगे पारायण तक ला दूँ !
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पग से धान्य भरा घट पूरा आँगन ज्यों मंगल- राँगोली
कितनो नाते साथ जुड़ गये , आई थी मैं एक अकेली .
अक्षत भरे थाल धर , दोनों पग पूजे कुल-कन्याओं ने
उनका यह सम्मान-भाव शिरसा धारे मै रही ,जता दूँ !
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नाम-धाम पहचान सभी बदला, मैं कौन कहाँ सब बिसरी .
मैं ही व्याप्ति बन गई ,निजता नेह-रची संसृति में बिखरी
मेरी सृष्टि ,भोग भी मेरे , विस्तारित हो गया अहं जब,
तन से, मन से नेम-धरम से मान और प्रतिमान निभा दूँ !
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