ओ, सुरभि -चन्दना,
उल्लास की लहर सी
आ गई तू !
*
मेरे मौन पड़े प्रहरों को मुखर करने ,
दूध के टूटे दाँतों के अंतराल से अनायास झरती
हँसी की उजास बिखेरती ,
सुरभि-चन्दना ,
परी- सी , आ गई तू !
*
देख रही थी मैं खिड़की से बाहर -
तप्त ,रिक्त आकाश को ,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू ,
सरस फुहार -सी झरने!
उत्सुक चितवन ले ,
आ गई तू !
*
चुप पड़े कमरे बोल उठे ,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने ,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं ,
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अन्दर की ओर ,
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में .
आ गई तू !
*
सहज स्नेह का विश्वास ले ,
मुझे गौरवान्वित करने !
इस शान्त -प्रहर में ,
उज्ज्वल रेखाओं की राँगोली रचने ,
रीते आँगन में !
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर ,
आ गई तू !
*
ओ सुरभि-चन्दना, परी सी
आ गई तू !
*
(रिटायरमेंट के बाद लिखी गई थी)
देख रही थी मैं खिड़की से बाहर -
तप्त ,रिक्त आकाश को ,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू ,
सरस फुहार -सी झरने!
उत्सुक चितवन ले ,
आ गई तू !
*
चुप पड़े कमरे बोल उठे ,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने ,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं ,
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अन्दर की ओर ,
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में .
आ गई तू !
*
सहज स्नेह का विश्वास ले ,
मुझे गौरवान्वित करने !
इस शान्त -प्रहर में ,
उज्ज्वल रेखाओं की राँगोली रचने ,
रीते आँगन में !
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर ,
आ गई तू !
*
ओ सुरभि-चन्दना, परी सी
आ गई तू !
*
(रिटायरमेंट के बाद लिखी गई थी)