सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

सुरभि -चन्दना

 *
ओ, सुरभि -चन्दना,
उल्लास की लहर सी
आ गई तू !
*
 
मेरे मौन पड़े प्रहरों को मुखर करने ,
दूध के टूटे दाँतों के अंतराल से अनायास झरती
हँसी की उजास बिखेरती ,
सुरभि-चन्दना ,

                                                       
परी- सी , आ गई तू !
*
देख रही थी मैं खिड़की से बाहर -
तप्त ,रिक्त आकाश को ,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू ,

सरस फुहार -सी झरने!
उत्सुक चितवन ले ,
आ गई तू !

*
 चुप पड़े कमरे बोल उठे ,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने ,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं ,
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अन्दर की ओर ,
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में .
आ गई तू !
*
 
सहज स्नेह का विश्वास ले ,
मुझे गौरवान्वित करने !
इस शान्त -प्रहर में ,
उज्ज्वल रेखाओं की राँगोली रचने ,
रीते आँगन में !
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर ,
आ गई तू !
 

*
ओ सुरभि-चन्दना, परी सी 
आ गई तू !

(रिटायरमेंट के बाद लिखी गई थी)

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

धनवंतरि- वंदना एवं अभिनन्दन!


(धन-तेरस  के शुभ-दिवस हेतु  मेरी मित्र  'शार्दुला नोगजा ' ने यह सुन्दर 'धनवंतरि-वंदना ' प्रेषित की है ,ये कल्याणकारी भावनाएँ मेरे सभी मित्र एवं परिजन  आत्मस्थ कर सकें , इसलिए यहाँ  प्रस्तुत कर रही हूँ.
मैं आभारी हूँ  प्रिय शार्दुला की,   इन मंगलमय-वचनों  के लिए - )

*
धनवंतरि, वंदन अभिनन्दन
दैनन्दिन जीवन में नित हम 
पाएं आशातीत पराक्रम 
खिलती रहे हर्ष की बगिया 
मिलती रहे सफलता अनुपम 

चिंतन में सच्चिदानन्द का 
महक उठे चन्दन ही चन्दन 
धनवंतरि, वंदन अभिनन्दन!

हम निश्छल हों, रहें निरामय 
हमें बना दो निर्मल निर्भय 
न्याय नीति स्थापित कर जग में 
दूर करें जन-जन का संशय 

उपकारों का नेह बहा कर 
हरें दीन दुखियों का क्रंदन 
धनवंतरि, वंदन अभिनन्दन 

स्वस्थ रहे हम, करो अनुग्रह 
भार न बनने पाये दुर्वह 
रोम-रोम में रहे हमारे 
अंतहीन उर्जा का संग्रह 

हमें लक्ष्य के इस जय-पथ में 
दीर्घ आयु का दो अवलम्बन 
धनवंतरी वंदन अभिनन्दन!
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( बचपन में  किसी अखबार से उतारी थी ये प्रार्थना। लेखक का नाम नहीं उतारा था. हर साल आरती की तरह इसे ही गाते हैं! - शार्दुला नोगजा )
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श्री  धनवंतरि-वंदन के अनंतर
 आप सब को अर्पित हैं ज्योतिपर्व की मंगल-कामनाएँ -
*
रोशनी के जाल यों बुने ,
किरन-तंतु कात कर  शिखा ,
ओढ़नी उजास की बने ,
श्याम-देहिनी महानिशा !
*
वायु-जल सुस्निग्ध-स्वस्थ हों,
करे अष्ट-लक्ष्मि  अवतरण !
खील-सी बिखर चले हँसी ,
शुभ्र फेनि* सा हरेक मन !

(*बताशफेनी)
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दीपावली का पर्व मंगलमय हो !
 - प्रतिभा सक्सेना
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 (चित्र - गूगल से साभार)




रविवार, 12 अक्टूबर 2014

पहला दीप -

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मेरे बच्चों, दीवाली का पहला दीप वहाँ धर आना...

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जिस घर से कोई निकला हो अपने सिर पर कफ़न बाँधकर ,
सुख-सुविधा, घर-द्वार छोड़ कर मातृभूमि के आवाहन पर .
बच्चों, उसके घर जा कर तुम उन सबकी भी सुध ले लेना
खील-बताशे लाने वाला कोई है क्या उनके भी घर.
अपने साथ उन्हें भी थोड़ी ,इस दिन तो खुशियाँ दे आना .
*
छाँह पिता की छिनी सिरों से जिनकी, सिर्फ़ हमारे कारण 
हम सब रहें सुरक्षित .जो बलिदान कर गए अपना जीवन
बूढ़े माता-पिता विवश से , आदर सहित चरण छू लेना,
अपने साथ हँसाना ,भर देना उनके मन का सूनापन ,
आदर-मान और अपनापन दे कर उनका आशिष पाना !
*
दीवाली की धूम-धाम से अलग न वे रह जायँ अकेले ,
तुम सुख-शान्ति पा सको, इसीलिए तो उनने यह दुख झेले.
उन सबका जीवन खो बैठा धूम-धाम फुलझड़ी पटाखे ,
रह न जायँ वे अलग -थलग जब लगें पर्व-तिथियों के मेले.
उनकी जगह अगर तुम होते, यही सोच सद्भाव दिखाना .
 *
हम निचिंत हो पनप सके वे मातृभूमि की खाद बन  गये ,
रक्त-धार से सींची माटी  ,सीने पर ले घाव सो गए  .
वह उदास नारी, जिसके माथे का सूरज अस्त हो गया ,
तुम क्या दे पाओगे ,जिसके आगत सभी विहान  खो गए !
उसने तो दे दिया सभी कुछ, अब तुम उसकी आन निभाना.
*
अपने जैसा ही समझो, उन का मुरझाया जो बेबस  मन ,
देखो ,बिना दुलार -प्यार के बीत न जाए कोई बचपन .
न्यायोचित व्यवहार यही है- उनका हिस्सा मिले उन्हें ही ,
वे जीवन्त प्रमाण रख गए, साधी कठिन काल की थ्योरम
अपनी ही सामर्थ्यों से, बच्चों तुम 'इतिसिद्धम्' लिख जाना !
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थ्योरम = Theorem.,प्रमेय .

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

कुँआरी नदी (समापन).

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गूँजी आकुल टेर शोण की , सुन  हियरा काँपे
चौंके सारे अपन-पराये,  भागे   घबरा के ,
माँ की ममता लहर-लहर कर परसे अँसुअन साथ
मैखल पितु का हिरदा दरके कइसन धी रुकि जाय!
2
जुहिला रोवे ,सोनवा पुकारे तोरे पड़ें हम पाँय !
रेवा तो  सन्यास लिये, प्रण है - ना करूँ विवाह
 पंडित-पुरोहित पहाड़न से जम ,रोकन चहैं बहाव
बिखर सहस धारा बन छूटी अब कह कौन उपाय!
3
 राहों में पड़ गय बीहड़ बन माली और कहार ,
 नाऊ बारी ,अड़ते टीले, देखे आर न पार .
 हठ कर समा गई  तुरतै ही  गहरा भेड़ा घाट,
ताप हिया में ,नयनों में जल धुआँ-धुआँ,आकाश !(धुआँधार)
4
दासी-दास बियाकुल रोवैं झुक-झुक देवें धोक
वा को कुछू ना भाय. नरमदा ,कहीं न माने रोक
और अचानक अगले डग पर आया तल  गहवार
घहराकर नरमदा हहरती जा कूदी अनिवार
5.
वेग धायड़ी कुंड मथे हो खंड-खंड चट्टान ,
रगड़  प्रचंड कठिन  पाहन घिस  हुइ गए शालिगराम
केऊ की बात न कान सुनावे ,केऊ क मुँह ना लगाय
भाई-बहिना  फिर-फिर  टेरें रेवा ना सनकाय.
6.
दिसा दिसा की लगी टक-टकी थर-थर कँपै अकास
चित्र-लिखे   तरु-बीरुध ठाड़े पवन न खींचे साँस.
मारग कठिन ,अगम चट्टानें वा को कछु न लखाय
धरती पर जलधार बहाती रेवा बढ़ती जाय !
7.
उधर शोण अनुताप झेलता चलता रहा विकल चित,
व्यक्त कभी हो जाता बरसातों की उमड़न के मिस
 पार हुए  पच्चीस कोस , यों लगा बहुत चल आया ,
 गंगा को अर्पित कर दी तब गुण-दोषों मय काया
8.
 सुना नर्मदा ने ,पर उर  की पीड़ा किसे सुनाए ,
कोई ठौर विराम न पाये  जो थोड़ा थम जाए .
 व्रत ले लिया, निभाना होता नहीं सदा आसान,
 अँधियारे आदिम वन , मारग बीहड़ औ'सुनसान .
9.
जीव जगत की साँसों की धुन छा जाती  इकसार,
झिल्ली की झन्-झन् का बजने लगता जब इकतार ,
 प्रकृति   नींद में डूबी  ,  औँघा जाती सभी दिशाएँ
 करुण रुदन के स्वर सुन थहरा जातीं स्तब्ध निशाएँ !

10.
कुछ अधनींदे राही ,सुन लेते हलकी सी सिसकी ,
लगता जैसे  रुकी पड़ी है कहीं कंठ में हिचकी.
किसे सौंप दे जल कि अपावन पड़े न कोई छाया.
रेवा रही खोजती ऐसी दिव्य पुनीतम काया !
11.
पिता गरल पायी, वह भी पी गई सभी कड़ुआहट ,
इस जग के जीवन के पथ में है  कौन, न हो जो आहत?
कितना लंबा मार्ग और जीवन की उलझी रेखा,
पार किया आ गई  नर्मदा, ले कर अपना लेखा !
12.
भृगु कच्छ तीर्थ सीमान्त ,

वहीं पितृ-चरणों में झुक गई क्लान्त .
पा सोमनाथ की नेह दृष्टि सोमोद्भव रेवा हुई  शान्त.
पग-पग कर कल्याण, जगत हित करती आई धन्या
उस निर्वाण-प्रहर में सिन्धु बन गई पर्वत-कन्या !
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प्रणाम -

 विपुल पश्चाताप में आश्वस्ति तुम प्रयश्चितों सी ,
तुम्हीं शुभ आवृत्ति अंतर्भावना के धारकों सी!
तुम सतत सौन्दर्य के लिपि-अंकनों से पूर क्षिति को,
 शाप-ताप विनाशिनी मम वाक् पर आशीष बरसो1

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 आदि मकरारूढ़ जीवन-जलधि की तुम दिव्य-कन्या,
शुभ्रता की राशि , कलुष निवारिणी तुम ही अनन्या ,

लो अशेष प्रणाम ,मन-वच-कर्म की सन्निधि तुम्हीं हो,
प्रलय में भी लय न, चिद्रूपे  ,सतत ऊर्जस्विनी हो !

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