*
ओ नारी ,
अब जाग जा,
उठ खड़ी हो !
कब तक भरमाई रहेगी?
मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़,
कब तक दुबकी रहेगी,
परंपरा की खाई में ?
*
चेत जा,
उठ खड़ी हो!
मार्ग मत दे ,
निरा दंभी , मनुजता का कलंक
कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा तेरा
अहंकारी हो कितना भी .
अपने आप में क्या है?
जान ,समझ!
पहचान अपने को ,
सृजन सार्थक कर !
*
किसका भय ?
तू दुर्बल नहीं ,
तू विवश नहीं ,
तू नगण्य नहीं
धरा की सृष्टा,
निज को पहचान!
*
अतिचारों का कैंसर,
पनप रहा दिन-दिन,
विकृत सड़न फैलाता कर्क रोग.
निष्क्रिय करना होगा
तुझे ही वार करना होगा ,
निरामय सृजन के
दायित्व का वास्ता !
*
लोरी में भर जीवन-मंत्र ,
पीढ़ियाँ पोसता आँचल का अमृत-तंत्र ,
तू समर्थ हो कर रह ,
अपनी कोख लजा मत !
*
शीष उठा कर रह
सहज, अकुंठित स्वरूप में .
अन्यथा
विषगाँठ का पसरता दूषण,
और धरती का छीजता तन ,
मृत पिंड सा
टूटता -बिखरता अंतरिक्ष में
विलीन हो जाएगा !
*