शनिवार, 27 अगस्त 2011

अभी बहुत आहुतियाँ बाकी.



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यज्ञ अभी तो शुरू हुआ है ,समिधायें चेती हैं अब तो,
अभी फूल-फल अक्षत रोली दे-दे कर  पूजा है सबको,
अभी होम का धूम उठेगा    ,कडुआहट से दृष्टि आँजने 
 अभी आँच से दूर हाथ हैं ,सघन ताप का क्रम है बाकी .

अभी नारियल तन का  धरा समूचा , फोड़ा किया न अर्पित ,
देवि चंडिका कहाँ हुई  हैं अभी रक्त-चंदन से चर्चित
खप्पर कहाँ भभूति भस्म बन हुआ साधकों के हित रक्षित
तन की राख व्यर्थ काहे को , पावन हो भभूति बन जाती .
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समिधाओं की ज्वालायें हत हो, मंद न पल भर को हो पाये ,
हवन कुंड में आहुतियों के अर्पण का क्रम टूट न जाये ,
 पुरश्चरण तक कोई भी व्यवधान ,विघ्न ना आये आड़े  
  होता  आहुति बन बैठा रक्ताभ हुईं आवेशित आँखी ,
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अभी न श्रीफल चढ़ा वेदिका , कैसे अधबिच भोग चढ़ाये
अभी कहाँ यजमान ,स्वस्ति-वाचन को अंजलि में जल पाये ! 
अभी राख तल में बैठी है अभी उड़ रही हैं चिन्गारी  ,
दहके अंगारों से उठती लपटें अभी कहाँ हैं नाची !
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अभी पुरोहित मंत्र पाठ कर  ,बोल उठेगा ,स्वाहा-स्वाहा
चूक न हो जाये कि  कुंड से हट कर  व्यर्थ नसाये काया ,
होम गंध यों व्यापे सारा कल्मष-कपट हवा हो जाये 
दुर्निवार आमंत्रण की ध्वनि ,आर-पार दिशि छोर  कँपाती ,
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और प्रज्ज्वलित हो यह ज्वाला ,थोड़ी घी की धार समर्पो  ,
भर दो   थाल   हवन सामग्री तन-मन प्राणों का मिश्रण दो
ओ यजमान ,तुम्हारा व्रत पूरा हो, पुरे सभी मनचाहा
महायज्ञ की अग्नि दहकती, मंत्र-पाठ की ध्वनि घहराती !
अभी बहुत आहुतियाँ बाकी !


- प्रतिभा.
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शनिवार, 20 अगस्त 2011

बाँसुरी मैं .


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ग्रंथियों के बंध से कर मुक्त तुमने
काठ थी सूखी, कि रच-रच कर सँवारा ,
रंध्र, रच ,जड़ सुप्त उर के द्वार खोले
राग से भर कर मुझे तुमने  पुकारा,
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पोरुओं से परस, कैसा तंत्र साधा
 कर दिया तुमने सकारथ वेदना को ,
मंत्र जाग्रत कर दिया फिर-फिर स्वरित  कर ,
दीप्ति दी , धुँधला रही-सी चेतना को .
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जुड़ गई जिस क्षण तुम्हारी दिव्यता से
देह की जड़ता जकड़ किस भाँति पाये ,
नहीं कुछ भी व्यापता तन्मय हृदय को
बोध तो सारे तुम्हीं में जा समाये .
* ,
बाह्य से हो कर विमुख अंतस्थता में
डूब कर ही तो व्यथा से त्राण पाया ,
आत्म-विस्मृति से उबर किस भाँति पाऊँ,
उच्छलित आनन्द जब उर में समाया .
*
पात्रता दी राग भर अपना   तुम्हीं ने  ,
साध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
   *
फूँक दे तुमने कि मोहन मंत्र साधा
गा उठीं जीवन्त हो कर तंत्रिकायें ,
भर दिये उर में अचिर अनुराग के कण
नाच उठतीं  मोरपंखी चंद्रिकायें .
*
चल रहा अभिचार यह कैसा तुम्हारा,
 प्राण , वीणा से सतत झंकारते हैं ,
उमड़ आते ज्वार ,मानस के जलधि में,
  तोड़ते तटबंध तुम्हें पुकारते हैं  .
*  
फिर वही स्वर जागते अंतरभुवन में,
 रास राका ज्योत्स्ना जमुना किनारे .
प्रेम का संदेश जब भी गूँज भरता ,
 तुम्ही -तुम हर ओर शत-शत रूप धारे .
*
वंश की लघु- खंडता से  मुक्ति दे,
अवरुद्ध अंतर-वासना तुमने सँवारी .
पूर्णता पाई तुम्हारे अंग से लग ,
चिर-सुहागिन, बाँसुरी मैं हूँ तुम्हारी !
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सोमवार, 8 अगस्त 2011

शप्त कस्तूरी

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 कहाँ तू स्वच्छंद ,तेरे छंद कस्तूरी ,

गंध योजन भर बिखेरे ,

दूर से ही जो दिपे रे ,

तंत्र में जब से बसी अभिशप्त कस्तूरी.

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बन गया संदेश दुर्धर,

फूटता यह गंध निर्झर

नाभि-मंडल में समाये,

मर न पाये, जी न पाये

भटकती आकुल, किये मद-अंध कस्तूरी !

*

सूर्य कर से दमकता तन ,

दे रहा हो स्वर्ण का भ्रम

री मृगी ,वन-पर्वतों में,

खोजती फिरती तृणों में

प्रबल आकर्षण विकल, हर रंध्र कस्तूरी !

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देह के अस्तित्व में धर ,

दिया कैसा गंध निर्झर !

किस तरह निज में  समेटे

बोध अपने ही ठगे से,

स्वयं से अनभिज्ञ रची अनंग कस्तूरी!

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प्राण तेरे खींचने को

बाण साधा व्याध ने जो

 कर रहा संधान पीछे ,

एक भी अवसर न चूके.

व्याध से दूरी निभे किस ढंग कस्तूरी  ,

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और फिर देता   निमंत्रण ,

साँस से महका समीरण

शत शरों के दंशवाली 

चुभन भरती नोक ढाली     ,

मार्ग क्षण-क्षण हो रहा  दुर्लंघ्य कस्तूरी .

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दहकते  क्रीड़ा-वनों में

छिटकते जलते तृणों में

प्रज्ज्वलन हर ओर दारुण,

बने अग्नि-स्तंभ तरुगण

नाभि कुंडल रची वही अदम्य कस्तूरी !

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रूप-गुण  ने बैर साधा,

श्वास भी बन जाय बाधा

दौड़ अंधाधुंध तब तक,

रक्त  आलक्तक  रचें  पग.

 करुण मरण-मृदंग  कर दे मौन  कस्तूरी ,   !

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मत्त बन, कर लिया धारण  ,

किस तरह हो फिर निवारण,

शाप बन कर ग्रस रहा वर

टीसता अंतर विषम-शर.

एक दिन तुझको करे निस्पंद कस्तूरी ,

*

प्राण ले कर भागती डर,

काल से कैसे बचे पर,

वही कर्षण खींच लाता

दिशा देता  पथ बताता.

इन्द्रियों के बोध भी अवसन्न कस्तूरी.

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आ गई क्यों इस धरा पर ,

वेदना- संस्कार लेकर?

कुछ न पायेगी यहाँ तू

दुसह व्रत-आचार लेकर,

सिर्फ़ सहना ही,  भटक निस्संग कस्तूरी !

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अब कहाँ का शान्ति औ-सुख ,

कुछ नहीं री.  मनोवांछित.,

भाग कर जाये कहाँ

हिरनी शरण पाये कहाँ  ?

कुरंगिनि री,  मरण का अनुबंध कस्तूरी !

तू कहाँ स्वच्छंद तेरे छंद कस्तूरी !

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