कहाँ हो ,घनश्याम मन मोहन कहाँ हो !
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हो कहाँ विषण्ण मन के पार्थ-सारथि,
कर रही विचलित विरत-पथ हो भ्रमित मति .
देह के दुख -व्याध ,अंतर की तपन के,
शान्ति-चंदन,नंद के नंदन ,कहाँ हो !
कहाँ हो घनश्याम ,जीवन- धन कहाँ हो !
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ले चलो उस लोक ,जाग्रत हो वृन्दावन ,
शाप-पाप धुलें जनम भर के अपावन,
वासनाएं घुल चलें जिस श्याम रँग में ,
हे परम विश्रान्तियों के क्षण कहां हो !
कहाँ हो घनश्याम !
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अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो !
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कहाँ हो हे कृष्ण,प्राप्य परम कहाँ हो ! !
कहाँ हो घनश्याम !!!