( कभी की लिखी एक कविता आज हाथ लग गई . प्रस्तुत है -)
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सच कहो ,
या फिर कहीं जा मुँह छिपाओ,
अब न मिथ्या वचन ,
पूरा सच कबूलो ,
अन्यथा जा कृष्ण -विवरों में समाओ !
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झूठ ठाने ,पग धरे
अक्षांश वह जड़ से मिटा दूँ ,
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल में डुबा दूँ ,
एक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
रेख विषुवत् मोड़, दोनों मकर-कर्क समेट धर दूँ
खोल डालूँ ऊष्ण-हिम कटिबंध दोनों ,
इन खड़ी देशान्तरों को पकड़ कर दे दूँ झिंझोड़े
चीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकें झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
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यह दिशाओँ का विभाजन भूल जाओ!
इस क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा , मुख को छिपा
तम -कूप में जा डूब जाओ !
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