*
बीतते जाते प्रहर निःशब्द ,नीरव
नाम लेकर कौन अब आवाज़ देगा!
खड़ी हूँ अब रास्ते पर मैं थकी सी
पार कितनी दूरियाँ बाकी अभी हैं.
बैठ जाऊँ बीच में थक कर अचानक
अनिश्चय से भरी यह मुश्किल घड़ी है.
जब कि ढलती धूप का अंतिम प्रहर हो
कौन आकर साथ चलने को कहेगा.
कंटकों के जाल- ओझल डगर ढूँढूँ,
नयन धुँधलाते,विकल मन,फिर शिथिल पग,
चाव खो कर, भाव सबके देखना है,
चलेंगे कब तक विवश पग,यह विषम पथ.
क्या कहूँ किससे रहूँ किसको पुकारू ,
हारते को यहाँ हिम्मत कौन देगा .
जब कुशल व्यापार के गुर ही न जाने ,
लाभ के व्यवहार को अपना न पाया ,
कौन से गिनती-पहाड़े सीख लूँ अब
ब्याज कैसा, गाँठ का ही जब गँवाया.
दाँव अपना ही सुनिश्चित कर न पाऊँ ,
नियति का झटका कहाँ फिर ठौर देगा.
भीड़ में भटकी हुई पड़कर अकेली
हर तरफ टकरा रही किस ओर जाऊँ .
नींव जब विश्वास की ही हिल गई हो.
कौन से अधिकार की आशा लगाऊँ.
जब सरे बाज़ार निकला हो दिवाला
साँझ की बेला उधारी कौन देगा!
बीतते जाते प्रहर निःशब्द ,नीरव
नाम लेकर कौन अब आवाज़ देगा!
खड़ी हूँ अब रास्ते पर मैं थकी सी
पार कितनी दूरियाँ बाकी अभी हैं.
बैठ जाऊँ बीच में थक कर अचानक
अनिश्चय से भरी यह मुश्किल घड़ी है.
जब कि ढलती धूप का अंतिम प्रहर हो
कौन आकर साथ चलने को कहेगा.
कंटकों के जाल- ओझल डगर ढूँढूँ,
नयन धुँधलाते,विकल मन,फिर शिथिल पग,
चाव खो कर, भाव सबके देखना है,
चलेंगे कब तक विवश पग,यह विषम पथ.
क्या कहूँ किससे रहूँ किसको पुकारू ,
हारते को यहाँ हिम्मत कौन देगा .
जब कुशल व्यापार के गुर ही न जाने ,
लाभ के व्यवहार को अपना न पाया ,
कौन से गिनती-पहाड़े सीख लूँ अब
ब्याज कैसा, गाँठ का ही जब गँवाया.
दाँव अपना ही सुनिश्चित कर न पाऊँ ,
नियति का झटका कहाँ फिर ठौर देगा.
भीड़ में भटकी हुई पड़कर अकेली
हर तरफ टकरा रही किस ओर जाऊँ .
नींव जब विश्वास की ही हिल गई हो.
कौन से अधिकार की आशा लगाऊँ.
जब सरे बाज़ार निकला हो दिवाला
साँझ की बेला उधारी कौन देगा!
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