शनिवार, 24 दिसंबर 2011

एक नज़्म .


आसरा मेरा ही लें और मुझ पे एहसान करें  ,
बाहरी दुनिया से हुई इस कदर हताश हूँ मैं !
किसी को क्या पता कि क्यों उदास हूँ मैं !
*
मैं इक किताब हूँ ,नंबर लगे सफ़होंवाली ,
इसकी इबारत नहीं कहने से बदल पाएगी ,
लाख टोको या  लानत-मलामत भी करो
और  किसी रूप में ढाले से न ढल पाएगी ,
*
मैं जो मजमून  हूँ  कोरे  सफ़हे पर छपा ,
लाख कोशिश करो उड़ पायेंगं कैसे हरूफ़ ,
भले गल जाय पानी में या लपटों में जले
उभर आएंगी वही सतरें  लिए वो ही वजूद
*
रंग फीके पड़े  ,देखी है कितनी छाँह-धूप .
 वर्क बिखरें  जो हवा  संग ही उड़ जाएंगे ,
मोड़ना चाहो तो वहीं इक दरार आएगी ,
टूटती सतरें  अगर जोड़ीं, भरम  पड़ जायेंगे
*
वक्त के साथ पुराने हुये फीके भी हुये    ,
इन पे लिक्खी जो इबारत वो  बहुत पक्की है ,
क्यों करें परवाह कोई कहता है तो कहता रहे ,
ये जो मुसम्मात है , सचमुच में बड़ी झक्की है .
*
कच्ची मिट्टी नहीं फितरत जो बदल जाय मेरी ,
पक चुकी आंवे में फिर न चाक पे धर पाओगे
टूट के भी ये किसी के काम नहीं आएगी .
चूर कर कोई नई-सी शक्ल न दे पाओगे ,
*
इसका उन्वान सिरफ़ मेरी दास्तान नहीं
सबके अपने ही वहम ,और सबके अपने अहम्,
अपने को  भूलूँ  ,बँटूँ मैं  या कि  बिखर,चुप ही रहूँ
ठीक  किसी को लगे तो मानना क्यों मेरा धरम?
*
मैं भी इक  इंसान हूँ ,तालीम औ तजुर्बा है ,
पाँव पर अपने खड़ी हूँ  तो चल भी लूँगी ,
मैं क्यों गलत हूँ कि तुमसे अगर  सलाह न लूँ ,
हो गई भूल  कहीं   फिर से सही कर लूँगी
*
मैं समझ पाऊँ  दुनिया ख़ुद का नजरिया लेकर
लगेगी ठोकर ज़रा कुछ और सँभल जाऊँगी
 तुमको ही मलाल रह जायगा सुनती ही नहीं
दौड़ के हर बात पे रोने न बैठ जाऊँगी .
*
चल रही हूँ रास्ता कुछ देर एक ही जो  रहे
भूल से कोई न  समझ ले  उसी के साथ हूँ मै ,
तिल का ताड़ करना यहाँ पे शगल पुराना है
सोच कर हैरान हूँ चुप हूँ  कि गुमहवास हूँ मैं ,
किसी को क्या पता ...
*

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

यात्री .


मौन , मै अनजान फिर बोलो कहां आवास मेरा !
*
जिन्दगी की राह रुकने को नहीं विश्राम-बेला ,
आज है यदि साथ लेकिन कल कहीं रहना अकेला !
आज आ पहुँची यहाँ कल लौट जाना ही पडेगा ,
और यह परिचय पहीं पर छोड जाना ही पडेगा !
स्मृतियाँ अनगिन बनी रह जायँगी उर भार मेरा !
*
इन्हीं दो परिचय क्षणों मे ,आज हँस लो बोल भी लो ,
फिर नहीं अवकाश होगा , आज गाँठें खोल भी लो ,
मै नहीं प्रतिबन्ध कोई भी लगाना चाहती हूँ ,
इसी क्रम में ,मित्रवत् ,तुमको समाना चाहती हूँ !
मै प्रवासी ,कहीं बसने का नहीं अधिकार मेरा !

मै स्वयं ही पास आती ,पर यहाँ से दूर जाना ,
रह न जायेगा मिलन के हेतु फिर कोई बहाना !
मंजिलें ये जिन्दगी की विवश रुकती जा रही हूं ,
प्रति चरण पर नेह का उपहार धरती जा रही हूँ !
मोह भर मन साथ पा ले यह नहीं सौभाग्य मेरा !
*
राह मे इस भाँति कितने सुहृद् छूटे ,बन्धु छूटे ,
भार उर पर रह गया सम्बन्ध के सब तार टूटे !
दुख कहीं भी देख मन ,जीने स्वयं लगता उसीको ,
शान्ति से वंचित करूँ क्यों साथ मे लेकर किसी को ,
इन्हीं दो परिचय क्षणों के छोर पर अभियान मेरा !
*
रोक पाये कौन मुझको .ये न चंचल पग थमेगे ,
कौन बाँधेगा,न ये उन्मुक्त बन्धन मे बँधेंगे ,
इसी जीवन यात्रा मे मोह भी है द्रोह भी है ,
है अगर आरोह पहले बाद मे अवरोह भी है
एक उलझन सी अबूझी कौन सा हो नाम मेरा !
*
आज के आवेग बन रह जायँगे बस एक कंपन ,
एक परिचय बन रहेगा आज का यह स्नेह-बंधन !
दो दिनो का साथ देकर याद लेती जा रही हूं ,
औ' तुम्हारे भाव अपने साथ लेती जा रही हूँ ,
आँसुओं के मोल होता हास का व्यापार मेरा !
*
अब यहाँ तो तब वहाँ ,कोई नहीं मेरा ठिकाना ,
आज जी बहला रही हूँ ,शेष है कल दूर जाना ,
आज आई हूँ यहाँ पर है यही मेरी कहानी ,
और स्मृति- शेष होगी एक भूली सी निशानी ,
चार प्रहरों की अवधि फिर तो घिरेगा ही अँधेरा !
*
दो क्षणों से बना जीवन ,यही परिचय ,और क्या दूँ
हास भी है अश्रु भी है अधिक इस से साथ क्या लूं ?
कामना छलना जहाँ औ' शब्द भी हों जाल केवल
भावना अभिनय बने ,लेकर बढूँ मै कौन संबल ,
एक निश्चितत गति भले हो पंथ सीमाहीन मेरा !
*
इस अकेली यात्रा मे राग से वैराग्य तक की ,
मै बनी बेमेल मेले मे ,अनेकों बार भटकी ,
उसी स्नेहिल दृष्टि का अभिषेक चलती बार पा लूँ ,
कर्ण-कुहरों मे गहन ,आश्वस्ति देते स्वर समा लूँ
क्या पता अनिकेत मन लेगा कहाँ जाकर बसेरा !
*
दूर हूं पर पास हूँ मै ,पास हूं पर दूर भी हूं ,
एक परिचय हूं सभी की .दो दिनो की मीत भी हूँ ,
चल रही ,पाथेय लेकर ,जगत की जीवन व्यथा का ,
फिर नया अध्याय रचने के लिये अपनी कथा का ,
मुक्त पंछी मै जहाँ रह लूँ वहीं पर नीड मेरा !
*
यह थकन पथ की, विसंगतियों भरी जीवन -कथा यह,
अनवरत यह यात्रा ,अनुतप्त भटकाती व्यथा यह !
कर्म जो कर्तव्य, मै चुपचाप करती जा रही हूँ,
जगत के अन्तर्विरोधों से गुजरती जा रही हूँ,
यहाँ कुछ अपना न था, क्या नकद और उधार मेरा !
*
रखा जाता यहाँ पर पूरा हिसाब-किताब पल -छिन ,
कर लिया तैयार कागज, बाद मे दीं साँस गिन-गिन !
अब अगर लिखवार ने पूछा ,कहूँगी -' खुद समझ लो !
प्रश्न मुझसे क्यों ,अरे ,लिक्खा तुम्हीं ने,तुम्हीं पढ लो ;
निभा दी वह भूमिका ,जिस पर लिखा था नाम मेरा ! '
*
कहां मेरा जन्म था होगा कहाँ अवसान मेरा
मौन , मै अनजान ,फिर बोलो कहां आवास मेरा !
*
शकुन्तला जी ,
आपने कविता का स्मरण किया .मैं आभारी हूँ (पहले भी मुझसे इसके लिये जिनने कहा - उनकी भी) 
 अपने ब्लाग 'यात्रा - एक मन की ' पर से इसे यहाँ
स्थानान्तरित कर रही हूँ .
- प्रतिभा.

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

लोक - रंग : छिंगुनिया क छल्ला.


*
छिंगुनिया क छल्ला पे तोहि का नचइबे !
नथुनियाँ न झुलनी न मुँदरी जुड़ी ,
आयो लै के कनैठी अंगुरिया को छल्ला !
इहै छोट छल्ला पे ढपली बजइबे !
*
कितै दिन नचइबे ,गबइबे ,खिजइबे
कसर सब निकार लेई ,फिन मोर लल्ला
कबहुँ गोरिया तोर पल्ला न छोड़ब ,
चिपक रहिबे बनिके तोरा पुछल्ला !
करइ ले अपुन मनमानी कुछू दिन
उहै छोट लल्ला तुही का नचइबे !
*
भये साँझ आवै दुहू हाथ खाली
जिलेबी के दोना न चाटन के पत्ता ,
मेला में सैकल से जावत इकल्ला ,
सनीमा के नामै दिखावे सिंगट्टा !
हमहूँ चली जाब देउर के संगै
उहै ऊँच चक्कर पे झूला झुलइबे !
*
काहे मुँहै तू लगावत सबन का
लगावत हैं चक्कर ऊ लरिका निठल्ला !
उहाँ गाँव माँ घूँघटा काढ रहितिउ ,
इहाँ तू दिखावत सबै मूड़ खुल्ला !
न केहू का हम ई घरै माँ घुसै देब ,
चपड़-चूँ करे तौन मइके पठइबे !
*
लरिकन को किरकट दुआरे मचत ,
मोर मुँगरी का रोजै बनावत है बल्ला ,
इहाँ देउरन की न कौनो कमी
मोय भौजी बुलावत ई सारा मोहल्ला !
छप्पन छूरी इन छुकरियन में छुट्टा
तुहै छोड़ छैला,  न जइबे,न जइबे  !
*
मचावत है काहे से बेबात हल्ला ,
अगिल बेर तोहका चुनरिया बनइबे ,
पड़ी जौन लौंडे-लपाड़न के चक्कर
दुहू गोड़ तोड़ब घरै माँ बिठइबे !
छिंगुनियाके छल्ला पे ...!
- प्रतिभा सक्सेना.
*
थोड़ा-सा मनोरंजन  - एक पुरानी रचना .

बुधवार, 30 नवंबर 2011

अक्षरित


*
एक  जीवन्त रचना -
नव - नीड़ ,
चिड़ी-चिड़ा - सहचरी-सहचर .
अथक श्रम
रात-दिन,दिन-रात
दौड़ते-भागते श्रम के पहर !
काल - बिरछ की  टहनी पर
जमा लिया चुन-चुन, तिन-तिन
आस- विश्वास की  डोरियों से बाँधं,
नेह-मोह लिपटे आस के रेशों से
 एक संसार !
*
बरसा-बूँदी के घात,
हवाओं की बिखेर झेलते
सेते रहे हिरण्यगर्भी कल्पनायें ,
कि नीड़ से आगे  खुले आकाश में
उड़ेंगे ये  हमारे संस्करण !
पुरी आस ,सफल प्रयास,
खुली दिशायें ,
नये आकाश ,नयी बातास !
*
ऋतुयें आयें-जायेंगी ,
पुराने पात जगह देंगे कि
नई बहार खिलती रहे !
नये अवतरण,
होते रहेंगे बारंबार
वही  नेह जतन !
लघु-लघु अँकनों में ,
एक ही कथा के
आगे के प्रकरणों जैसे .
अध्याय पर अध्याय ,
पंक्ति-बद्ध   ,
अनवरत-अविरल ,अनुक्रम !
*
बिखेर तिनके पुराने
काल - क्रम में चक्कर काटते
उड़ जाएंगे चिड़ा-चिड़ी ,
जीवन की चिर-नव्यता
का पाठ फिर-फिर दोहराने !
सृष्टि की महागाथा के
अक्षरित सम में .
*

रविवार, 13 नवंबर 2011

वृन्दावन- धाम.


*
रे मन,चल वृन्दावन- धाम !
*
जहँ निचिंत, गत शोक-मोह ,व्यापे न कुमति -अज्ञान ,
घिरें न बोझिल मेघ ,तपन के मौसम घिरें न आन !
*
भटक-भटक कर थकी देह औ' सधा न कौनो काम ,
कोई न स्वजन ,अजाना हर जन ,ऐसे  जग हिं प्रणाम !
*
जहां न दुख का लेश ,थकित तन को अनंत विश्राम ,
शंका  ग्रसै,  न डसै भीति ,चल रे, उहि लोक ललाम !
*

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

शार्दुला की आस्था के स्वर.

 आज की पोस्ट में, अपनी मित्र शार्दुला जी की आस्था के स्वर आप सब तक पहुँचाना  चाहती हूँ ,उन्हीं के वक्तव्य के साथ -
     
(भारत की धऱती से  से दूर ,सारे दिन  ऑफ़िस में व्यस्त ) ..इतनी  सरूफ़ियत के बावजूद ये गीत इसलिए लिखा गया क्योंकि अन्नकूट के दिन सुबह अन्नकूट नहीं बना सकी थी सुबह ,जल्दी से बस जो सबके टिफिन के लिए बनाया था, रायता और केला माधव को चढ़ा के आ गई थी... पसाद चढाते समय आँखों में आँसू आ गए और मन ने कहा गोपाला, जो भी जहाँ  भी है सब तेरा है, सब तुझे अर्पित है... अब यही खाओ जब तक लौट नहीं आती घर शाम में...

 रात को फ़िर अन्कूट बनाते बनाते नौ बज गए थे..
बस  गोवर्धन पूजा के दिन दफ़्तर जाते समय मेट्रो ट्रेन में ये कविता बन गई थी ..." जो जैसा है वैसा अर्पण".
.
*

माधव तेरे श्री चरणों में

माधव तेरे श्री चरणों में जो जैसा है, वैसा अर्पित
आर्द्र अरुण अड़हुल का आंचल, नाद शंख सागर में गुंजित
गंध, हवाएं, ऋतु की डलिया, फल-फूलों से भरी-भरी सी
सबमें है तू, तुझमें हैं सब, तू ही याचक, तू ही वन्दित
*
उन्नत शिखर, घुमंतू बादल, रज नटखट शीशे चमकाती
उषा सुन्दरी, निशा सहचरी, संध्या वंदन, लीन प्रभाती
गोचर स्पर्श, खिलौने तेरे, बिखराए तूने गोपाला
तेरे अर्पण को वनदेवी, मोर-पंख पे मणि रख जाती
*
भाव-रुंधे स्वर, प्रीत-जुड़े कर, शुचि, संपन्न, शुभ्र सब तेरे
तिमिर हृदय के, तुमुल विलय के, पातक-हरण ग्रहण कर मेरे
जीवन-धारा, कूल-किनारा, यश-अपयश, सुख-दुःख की लहरें
देय-अदेय, बिंधे छन्दों की बाँसुरिया वनमाली ले रे!
 *
सादर ,
शार्दुला.
(गोवर्धनपूजा, २७ अक्टूबर २०११).
---
मेरी बधाई स्वीकार करो ,प्रिय शार्दुला!

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

धवलिमा


*
भाल पर चंदन टिकुलिया सा चँदरमा,
टाँक कर बैठी शरद की यह धवलिमा.
साँझ भी उजला गई अब तो !
*
स्वच्छ दर्पण सा किया बरसात ने धो, दिन उपरना धूप का काँधे सजाये
गुलमोहर का तिलक माथे  ,झर पड़े अक्षत ,जुही ने पाँखुरी दे जो लगाये,
अमलतासों ने सुनहरे छमक-छल्लेदार झूमर
डाल-डाल सजा लिये अब तो !
*
गगरियाँ ले  बदलियाँ वापस हुईं ,निश्चिंत पच्छिम की हवायें  ,
पोंछ  झरते बूँद जल के, पहन उजले वस्त्र  बैठी हैं दिशायें
गगन के  पट में बँधे बादल धुयें से उड़ गये ,
रुपहली मुस्कान ऋतु की  छा गई अब तो
*
खुल गये सब रास्ते ,परदेस में  भटकी  पिया की याद आये  
उड़ रहे, हिम-श्वेत बादल हंस जैसे चोंच में  पाती दबाये
नयी सी  बातास नव आकाश के रँग,
आस के वर्षा-वनों में नव बहारें आ गईँ अब तो‍
*
दहकते हैं फूल-फूल पलाश तिन पतिया डँगालें खाखरे्# की, l
लहरती है कोर मेंहदी रचे पग पर वन-विहारिन नव-वधू के घाघरे की,
रजत- घुँघरू खनकते रह-रह कि बिछुये बोल-बतलाते हृदय का राग ,
 उठते ही नज़र शरमा गई अब तो !
 *
क्षितिज पर  रंगीन वस्त्र अबाध ,फूले काँस अब ध्वज सा फहरते ,
नाचती है बाजरे की कलगियाँ ,लो खुले जाते  सब्ज़ चुन्नी के लपेटे .
निशि दमकता मुँह उघाड़े, केश ढीले
तारकों से जड़ा नीलांबर झमकती  आ गई अब तो !
*
# ढाक



सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

शरद पूनम .


.*
आकाश से धरती तक
पिघली चाँदी का ज्वार ,
तरल मोती बिखरे बन फेन-स्फार  .
स्निग्ध कान्ति से दीप्त दिशायें ,.
तरंगायित पारावार !
*
ऊपर लुढ़क पड़ा जो, अमृत घट
सारी रात बहेगी पीयूष धार
मुग्ध पर्वत निर्निमेष ,
मगन दिशायें अवाक्
आकंठ तृप्त होंतीं वनस्पतियाँ !
छायी रहे भोर तक.
यह दुर्लभ स्वप्निल माया  ,
खुली रहे जादू की पिटारी
रात्रि का निबिड़ रहस्य लोक .
*
मत जलाओं बिजली के बल्ब,
वह तीखी -तप्त रोशनी
दृष्टि को चौंधिया ,
पी डालेगी सारा माधुर्य .
शीतल  ज्योत्स्ना को धकेल ,
उतार फेंकेगी सारे मोहक आवरण ,
उघाड़ कर रख देगी रुक्ष संजाल !
*
बिजली  मत जलाना आज रात ,
चौंक कर पलट जायेगी चाँदनी
उच्छिन्न कर आनन्द लोक  !
डूबे रहें अविरल  ,
 रजत प्रवाह में,
 लय- लीन हो  ,
 शरद पूनम की
अतीन्द्रिय रम्यता में !
 **  

बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

भू- स्तवन. ( उत्तरार्द्ध ).


*
देह को परिमापते अक्षाँश-देशान्तर सुकल्पित ,
रुचिर रेशम-डोरियाँ  ज्यों कसें तन-संभार सुललित
शिखर हिम के धर धरणि, हेमल किरीटी हो रहीं तुम
दिवस के स्वर्णावरण , हर रात्रि का अभिसार नूतन ,
*
स्वर्ण -रत्नों भरा अंतर सजल करुणा से भरा उर
.खग-मृगों से क्रीड़िता ,कल्लोल कलरव से रहीं भर
नित नया धन-धान्य पूरित धारतीं भंडार अक्षय
सहन शक्ति अपार सबका ही बनी आधार निर्भय ..
*
स्नेह उर से हो निसृत  अमृतमयी पय धार सरसा
पर्णपाती कहीं सदाबहार वन ,के रोम हरषा,.
घाटियाँ फूलोंभरी ,तरुराजियों से पूर गिरि वन ,
ले अमित वरदान जगती के लिये वात्सल्यमयि तुम
*
आदि- अंत विहीन अव्यय-नाद की अनुगूँज धारे  
धरणि-गंधा रज बनाती औ'समाती रूप सारे
शरण्ये,,श्री-सहचरी, तुम रेणुमयि परमा परम् हे
महा करुणा रूपिणी जननी तुम्हें शत-कोटि वंदन .
*
किन्तु जब अतिचार पर उद्धत मनुज स्वार्थांध होकर
लालसाओं के लिये औचित्य को दे मार ठोकर  ,
 निराकृत हो रूप धर  प्रतिकार हित बन सर्वनाशी
सृष्टि के उस पाप को जड़-मूल से उच्छिन्न करतीं ..
*
थरथरातीं दिशायें  ,अँगड़ाइयाँ जब क्रुद्ध भरतीं  ,
तुम्हीं ले भूकंप ,सागर जल उलटतीं औ'पलटतीं ,
फूँक ज्वालायें   गगन में धूम की जलती फुहारें
 तरल अग्रि -प्रवाह सा  लावा उगलतीं क्रुद्ध धारें.
*
रौद्र रूप धरे ,कि अंतर में उठे जब क्षुब्ध ज्वाला,
प्रलय सी उद्धत ,तुम्हीं बन चंडिका काली कराला,
कर रहीं प्रतिकार लिप्सा -लोभ अति दुर्नीतियों का ,
द्रोह का ,निस्सीम बढ़ती लालसा के  संवरण का .
*
माँ धरणि के पुत्र तुम मानव समर्थ सुबुद्ध दृढ़मति
मिली क्षमतायें सभी, मत स्वा,र्थ वश करना न तुम अति
बने एक कुटुंब वसुधा  ,जीव-जग सब ही सहोदर
सभी को अधिकार देना और उनका भाग सादर..
*
पूर्ण विकसित रूप दे मानव तुझे  माँ  ने  सहेजा,
शुभाशंसा सृष्टि की ले सर्वभूतों की कुशलता ,
मान कर दायित्व अपना ,आत्म निष्ठ विचारणा से
भावना से भर  विवेकी बुद्धि से, शुभ-कामना से .
*
फिर धरा के मंच पर नव-सृष्टि का शुभ अवतरण हो,
कुटुंबिनि का रूप धऱ सब प्राणियों में भाव सम हो !
.हो सभी चैतन्य पाकर दिव्यता के अमृत स्पंदन,
इसी रज से रचित हो कर सुवासित तन ,धन्य जीवन .
**

शनिवार, 24 सितंबर 2011

भू- स्तवन. (पूर्वार्द्ध).

*

एक पग को टेक तिरछी नृत्य की मुद्रा बनाये.

ऊष्ण शीत सुबंध, विषुवत् मेखला कटि में सजाये

देह के हर लास्य का लालित्य वर्तुल द्वीप खाड़ी ,

हरित अँगिया मखमली सागर लहरती नील साड़ी.

*

ऋत नियम धारे, धरे हो , सृष्टि का अनिवार्य यह क्रम

घूम भर भऱ लट्टूओँ सा, ललित लीला लोल नर्तन ,

सूर्य उत्तर और दक्षिण अयन रह रह कर निहारे

सप्त-विंशति कलायें धर चन्द्रमा आरति उतारे

*

नित नये परिधान ले ऋतुयें बनी परिचारिकायें ,

गमन का पथ घेर चलतीं व्योम की नीहारिकायें.

इस अपरिमित नील के विस्तार में लीला-विलासिनि ,

अवनि देवि वसुन्धरे ,हरि-पत्नि प्रकृति की सुकृति तुम

*

अनगिनत उडुगन तुम्हारे पंथ पर दीपक जलाये ,

सप्तऋषि देते परिक्रम, अटल ध्रुव माथे सजाये.

हवाओं के रुख तुम्हारे इंगितों पर हो विवर्तित

घाटियों में शंख ध्वनि भऱ गिरि- शिखर हर छोर गुँजित.

*

शुक्ल-कृष्ण द्विपक्षिणी धीमे उतरतीं रात्रियाँ जब

विभुमयी होकर दिशाओं में कुहक-सा पूरतीं नव

चँवर लहराता चतुर्दिश घूमता पवमान चंचल

मेघ-मालायें उढ़ायें बिजलियों से खचित आँचल ,

*

ताप हरने के लिये भर-भर अँजलियाँ अर्घ्य का जल

रजतवर्णी राशि हिम की कहीं,, मरुथल कहीं वनथल ,

सप्त द्वीप सुशोभिता, पयधार मय पर्वत अटल दृढ़

घाटियाँ ,मैदान, सर, सरिता, सहित गिरि-शृंखला धर ,

*

खग-मृगों से सेविता ,गुँजित गगन रंजित दिशांगन ,

जन्म लेने जहाँ लालायित रंहे हरदम अमरगण .

अंतरिक्षों की प्रवाहित व्योम गंगा में थिरकती ,

नील द्युति धारे गगन की वीथियों को दीप्त करतीं

*

वृक्ष नत-शिर पुष्प-पल्लव प्रीति हेतु तुम्हें चढ़ाते

खग-कुलों के गान ,स्तुति मंत्र की शब्दावली से

नित नये आकार रचतीं ,पोसतीं,  विस्तारतीं तुम

काल की गलमाल को दे दान, नित्य सँवारतीं तुम .

*



शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कितने रूप ,कितने नाम.


कितने रूप ,कितने नाम,
तुम्हें समझना कहाँ आसान !
*
कभी  भान भुलाती बाँसुरी की तान  ,
तोड़ सारी वर्जनायें
रीति-नीति -मर्यादा ,
रास की रस- मग्नता में  .
आत्मविस्मृति के लोकान्तरों तक  ,
सब हो गईं तुम्हारे नाम .
*
कहता रहे जिसे जो कहना हो ,
निपटता रहे संसार
अपनी मिथ्या मान्यताओँ से,
सोलह हज़ार अपहृताओं के माथे से
धो-पोंछ  लांछन के दाग़.
ब्याह लिया  अनायास !
मान-सम्मान , पत्नीत्व का गौरव दे ,
सार्थक कर नारी -जीवन,
रह गये निरे तटस्थ स्वयं,  
निर्लिप्त ,निष्काम ,निर्बाध !.
* ,
न दैन्य,न पलायन ,
जय-पराजय , यश-अपयश ,सुख-दुख, से.
निस्पृह-निर्भय .
सारे सिद्धान्त,सारे आचार-व्यवहार ,
प्रेम ,भक्ति, ज्ञान ,
कर्मशीलता का संपूर्ण मर्म
जीवन- व्यवहार का निराडंबर धर्म
व्यक्त कर  आचरण में,
तुम्हीं तो रहे प्रतिमान !
*
अनवरत  मंथन का सार तत्व ,
गीता का संपूर्ण निरूपण ,
साक्षात तुम्हारा  जीवन ,
रे माखन चोर,
 समेटते ,संचित करते रहे थे जो,
विपत-काल में
विषादमग्न पार्थ को सौंप
चुका दिया सारा उधार ,
ब्याज समेत !
*
सिर धर गान्धारी का शाप
देखते रहे वंश-नाश ,
निरुद्विग्न ,शान्त,!
रे गिरधारी ,
 ग्रहण कर सभी के शोक-ताप
 हो गये स्वयं विश्वात्म ,विश्व-रूप ,
आकुल मन-मृग के पूर्ण -विश्राम !
*

सोमवार, 5 सितंबर 2011

वसुषेण


*
 यह  कविता लिखने को प्रेरित किया था  मेरी मित्र शार्दुला जी ने.
जिनने पूर्ति हेतु एक वाक्यांश दिया था -'कर्ण! क्या तुमने था सोचा'
मैंने जो  पंक्तियाँ लिखीं ,उनके आगे  उनके दो प्रश्न खड़े हो गये.
( उनकी पूरी कविता न दे कर दोनों प्रश्नों वाला अंश प्रस्तुत कर रही हूँ )
जिेनके समाधान हेतु 'वसुषेण ' की रचना हुई.--
*
. कर्ण!
मैं तुम्हारी हूँ प्रशंसक, ये प्रकाशित
मात्र दो ही उत्तरों की हूँ अपेक्षित
अपमान कर के द्रौपदी का, चैन आया हाथ?
अभिमन्युवध के बाद  क्या तुम सो सके एक रात?
क्यों  श्रृंगालों सा सिंह शावक दबोचा ?
कर्ण! तुमने क्या था सोचा!
-शार्दुला, 
**
मेरी बात -
दीर्घ अवधि से संचित क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला जब धधक उठती है तो इन्सान को कुछ नहीं सूझता .मनुष्य अंततः मनुष्य है- अपनी दुर्बलताओं और सामर्थ्य दोनों के साथ ..
-वसुषेण ( कर्ण )की उस मनस्थिति की कल्पना कर सकती हूँ .
.प्रस्तुत है -
*
वसुषेण -
मेरा बस कब रहा कहीं ,यों ही यह जीवन बीता
देख लिया कितने आडंबर कितने मिथ्यावंचन,
अंक लिखे विधि ने ,जाने कितनी काली स्याही से,
सारा कुछ कलंक बन बैठा ,जो कर पाया अर्जन.
*
अपना कभी न समझा जिनने मुझे हीन ही माना, .
यहाँ एक के ही कारण तो हुआ सदा अपमानित,
प्रतिद्वंद्वी सा पार्थ खड़ा हो जाता बाधा बन कर
पैने व्यंग्य-बाण लहराती कृष्णा भी चिर-परिचित !
*
नामी वंश ,काल के क्रम में छायायें डस लेतीं
कुछ होते  शृंगार किन्तु कुछ बन  अंगार दहाते ,
कुल ही क्या अनिवार्य योग्यता मान न कुछ पौरुष का
पौरुषहीन  नपुंसक रोगी भी कुलीन  कहलाते ,
*
मानव के संस्कार ,भंगिमा ,वाणी , दीपित अंतर,
तन-मन का विन्यास ,सहज औदात्य तत्व पूरित उर
सारी क्षमताएं फिर भी मैं  हीन रहा परपेक्षी ,
कौन शमित कर पाया विषम व्यथा देते वे कटु स्वर !
*
जिसने  बहा दिया पानी में बड़ी कुलीना होगी
हतभागा वसुषेण  ,भाग्यशाली  कितना द्वैपायन
 कुमारिका धीवर -माता  की ममता की  स्वीकृति पा
जो उदाहरण  सम्मुख उसको मेरा शत-शत वंदन  !
*
एक दूसरी कुलवंती का हठ 'अभिमान प्रबल था ,
मेरा पौरुष प्रखर , शौर्य  हर बार रह गया ओझल,
सारे पूर्वाग्रह लेकर अपने ऊहापोहों में,
आत्मकेन्द्रित हो मेरा व्यक्तित्व कर दिया निष्फल !
*
वहाँ सभा के बीच सभी को टेर-टेर कर हारी ,
एक बार ,बस एक बार  चाहती कर्ण का संबल ,
टकरा जाता स्वयं काल से लाज बचाने के हित ,
किन्तु उपेक्षित रहा वहाँ भी , दहक उठा अंतस्तल
*
टूट गया मैं , सारे पिछले घाव हरे हो आये
.क्रोध और प्रतिशोध अंध कर गया विभ्रमित मति को ,
कौन विचार करे उस पल तुल गया कि कुछ कर बैठूँ ,
कौन लगाता अंकुश तब विक्षुब्ध हृदय की गति को
*
कौन बचायेगा अब देखूँ ,बहुत परीक्षा ले ली ,
देखूं यह कुलीन तन औरों से कितना न्यारा है
हार नहीं मानी पर मेरा यह अस्तित्व अभागा
अपनी मान-प्रतिष्ठा खो कर लगता बेचारा है..
*
इस अकुलीन कर्ण से, कृष्णा कैसे कुछ चाहेगी ,
इतना द्वेष प्रतारण का कुछ तो चुक जाये बदला
और उसी आवेशित क्षण में क्षुब्ध हृदय पगलाया
आज अभी चुकता कर लूँ  सारा अगला-पिछला.
*
और दूसरी बार युद्ध में किसने नीति निभाई ,
धर्म राज ने मिथ्या को सच का पर्याय बनाया
वासुदेव ने बड़ा कुशल नीतिज्ञ रूप धारण कर ,
कितने नाटक रचे उन्हीं के हित में खेल रचाया.
*
पार्थ- पुत्र मेरे पुत्रों को हीन सदा समझेगा ,
स्वाभिमान गौरव-गरिमा से वंचित सदा करेगा,
सारे गुण -गरिमा इनके ही लिये सदा आरक्षित ,
मेरी संन्ततियों को भी यह मनस्ताप ही देगा .
*
हर दम नीचा दिखलाना ही जिनका मन रंजन है ,
किसमें कितना संवेदन है कहाँ न्याय, नैतिक बल
 तभी कृष्ण के भागिनेय को घेर लिया था उस दिन
 भीषण ज्वालाओं से फिर धधका मेरा अंतस्तल.
*
यहाँ नहीं आदर्श किसी का,सब अवसर तकते हैं ,
कैसे किसे नीति से छल से अपना दाँव चलाते.
उस दिन जब अभिमन्यु अड़ गया विपुल सैन्य के आगे,
तोड़ दिये मैंने  चटका कर रीति-नीति के धागे .
*
मैं तो त्यक्त रहा जीवन भर मुझसे क्या आशायें ,
किन्तु अंततः मैं मनुष्य हूँ ,गुण-दोषों का पुतला,
अपनी बार भूल जाते है जहाँ युधिष्ठिर जैसे,
दुर्वलता से कौन बच सका ,ज्यों कि दूध से निकला
.*
 फिर मैं तो अकुलीन ,क्षम्य हूँ ,मेरी  हस्ती ही  क्या
कृष्ण सरीखे मायावी से मैने भी गुर सीखे ,
कुछ प्रतिमान बदल जाते हैं यही विवशता मन की ,
दुस्सह लगने लगते सारे स्वाद अचानक तीखे
*
विषम काल में जिसने साधा ,सिर ऊँचा करवाया ,
सारा कौशल रीति-नीति भी  उसके दाँव धरूँगा
आज मित्र के प्रति ही मेरी निष्ठा का दर्शन हो ,
जिससे मान मिला उसके हित मैं अपमान सहूँगा ,
*
उसका हित सर्वोपरि अपना तुच्छ  स्वार्थ क्यों साधूँ ,
सुयश दिया कब किसने उसका कैसा सोच अभागे ,
जिसने मान दिया उसका हित अपने से आगे कर, ,
सारे यश-अपयश के  अपने मानक मैंने त्यागे ,
*
कुछ क्षण जिनमें सोच-समझ की क्षमता ही चुक जाये,
भान और औसान ,कहाँ टिक सके  क्रोध के आगे ,
आवेगों आवेशों के बादल  ऐसा छा लेते
टूट बिखर जाते उस पल सारे संयम के धागे ,
*
मैं एकाकी रहा ,कौन था मीत और गुरु ऐसा
हारे क्षण में साहस देता ,विभ्रमता  में संबल ,
कृष्ण ,कभी तुम आये थे अति निकट सांत्वना लेकर
अब भी छा लेते हैं जब-तब छाया बन कर वे पल .
*
जो कुछ भला-बुरा संचा,अब झोली पलट दिखा दूँ ,
यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो,
चाहे कोई और न समझे ,नहीं किसी की चिन्ता,
मेरे अंतर के  सच को विश्वेश, तुम्ही पहचानो !
*
मेरे पाप-पुण्य,अनुराग-विराग , तृप्ति-तृष्णायें ,
लीन करो निज में चिर-व्याकुल मन, अशेष संवेदन !
अब ,स्वीकार करो कि अवांछित समझ झ़टक दो तुम भी ,
 विषम यात्रा की परिणतियाँ ,ठाकुर, तुमको अर्पण !
**
- प्रतिभा.

शनिवार, 27 अगस्त 2011

अभी बहुत आहुतियाँ बाकी.



*
यज्ञ अभी तो शुरू हुआ है ,समिधायें चेती हैं अब तो,
अभी फूल-फल अक्षत रोली दे-दे कर  पूजा है सबको,
अभी होम का धूम उठेगा    ,कडुआहट से दृष्टि आँजने 
 अभी आँच से दूर हाथ हैं ,सघन ताप का क्रम है बाकी .

अभी नारियल तन का  धरा समूचा , फोड़ा किया न अर्पित ,
देवि चंडिका कहाँ हुई  हैं अभी रक्त-चंदन से चर्चित
खप्पर कहाँ भभूति भस्म बन हुआ साधकों के हित रक्षित
तन की राख व्यर्थ काहे को , पावन हो भभूति बन जाती .
*
समिधाओं की ज्वालायें हत हो, मंद न पल भर को हो पाये ,
हवन कुंड में आहुतियों के अर्पण का क्रम टूट न जाये ,
 पुरश्चरण तक कोई भी व्यवधान ,विघ्न ना आये आड़े  
  होता  आहुति बन बैठा रक्ताभ हुईं आवेशित आँखी ,
*
अभी न श्रीफल चढ़ा वेदिका , कैसे अधबिच भोग चढ़ाये
अभी कहाँ यजमान ,स्वस्ति-वाचन को अंजलि में जल पाये ! 
अभी राख तल में बैठी है अभी उड़ रही हैं चिन्गारी  ,
दहके अंगारों से उठती लपटें अभी कहाँ हैं नाची !
*.
अभी पुरोहित मंत्र पाठ कर  ,बोल उठेगा ,स्वाहा-स्वाहा
चूक न हो जाये कि  कुंड से हट कर  व्यर्थ नसाये काया ,
होम गंध यों व्यापे सारा कल्मष-कपट हवा हो जाये 
दुर्निवार आमंत्रण की ध्वनि ,आर-पार दिशि छोर  कँपाती ,
*
और प्रज्ज्वलित हो यह ज्वाला ,थोड़ी घी की धार समर्पो  ,
भर दो   थाल   हवन सामग्री तन-मन प्राणों का मिश्रण दो
ओ यजमान ,तुम्हारा व्रत पूरा हो, पुरे सभी मनचाहा
महायज्ञ की अग्नि दहकती, मंत्र-पाठ की ध्वनि घहराती !
अभी बहुत आहुतियाँ बाकी !


- प्रतिभा.
*

शनिवार, 20 अगस्त 2011

बाँसुरी मैं .


*
ग्रंथियों के बंध से कर मुक्त तुमने
काठ थी सूखी, कि रच-रच कर सँवारा ,
रंध्र, रच ,जड़ सुप्त उर के द्वार खोले
राग से भर कर मुझे तुमने  पुकारा,
*
पोरुओं से परस, कैसा तंत्र साधा
 कर दिया तुमने सकारथ वेदना को ,
मंत्र जाग्रत कर दिया फिर-फिर स्वरित  कर ,
दीप्ति दी , धुँधला रही-सी चेतना को .
*
जुड़ गई जिस क्षण तुम्हारी दिव्यता से
देह की जड़ता जकड़ किस भाँति पाये ,
नहीं कुछ भी व्यापता तन्मय हृदय को
बोध तो सारे तुम्हीं में जा समाये .
* ,
बाह्य से हो कर विमुख अंतस्थता में
डूब कर ही तो व्यथा से त्राण पाया ,
आत्म-विस्मृति से उबर किस भाँति पाऊँ,
उच्छलित आनन्द जब उर में समाया .
*
पात्रता दी राग भर अपना   तुम्हीं ने  ,
साध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
   *
फूँक दे तुमने कि मोहन मंत्र साधा
गा उठीं जीवन्त हो कर तंत्रिकायें ,
भर दिये उर में अचिर अनुराग के कण
नाच उठतीं  मोरपंखी चंद्रिकायें .
*
चल रहा अभिचार यह कैसा तुम्हारा,
 प्राण , वीणा से सतत झंकारते हैं ,
उमड़ आते ज्वार ,मानस के जलधि में,
  तोड़ते तटबंध तुम्हें पुकारते हैं  .
*  
फिर वही स्वर जागते अंतरभुवन में,
 रास राका ज्योत्स्ना जमुना किनारे .
प्रेम का संदेश जब भी गूँज भरता ,
 तुम्ही -तुम हर ओर शत-शत रूप धारे .
*
वंश की लघु- खंडता से  मुक्ति दे,
अवरुद्ध अंतर-वासना तुमने सँवारी .
पूर्णता पाई तुम्हारे अंग से लग ,
चिर-सुहागिन, बाँसुरी मैं हूँ तुम्हारी !
*

सोमवार, 8 अगस्त 2011

शप्त कस्तूरी

*
 कहाँ तू स्वच्छंद ,तेरे छंद कस्तूरी ,

गंध योजन भर बिखेरे ,

दूर से ही जो दिपे रे ,

तंत्र में जब से बसी अभिशप्त कस्तूरी.

*

बन गया संदेश दुर्धर,

फूटता यह गंध निर्झर

नाभि-मंडल में समाये,

मर न पाये, जी न पाये

भटकती आकुल, किये मद-अंध कस्तूरी !

*

सूर्य कर से दमकता तन ,

दे रहा हो स्वर्ण का भ्रम

री मृगी ,वन-पर्वतों में,

खोजती फिरती तृणों में

प्रबल आकर्षण विकल, हर रंध्र कस्तूरी !

*

देह के अस्तित्व में धर ,

दिया कैसा गंध निर्झर !

किस तरह निज में  समेटे

बोध अपने ही ठगे से,

स्वयं से अनभिज्ञ रची अनंग कस्तूरी!

 *

प्राण तेरे खींचने को

बाण साधा व्याध ने जो

 कर रहा संधान पीछे ,

एक भी अवसर न चूके.

व्याध से दूरी निभे किस ढंग कस्तूरी  ,

*

और फिर देता   निमंत्रण ,

साँस से महका समीरण

शत शरों के दंशवाली 

चुभन भरती नोक ढाली     ,

मार्ग क्षण-क्षण हो रहा  दुर्लंघ्य कस्तूरी .

*

दहकते  क्रीड़ा-वनों में

छिटकते जलते तृणों में

प्रज्ज्वलन हर ओर दारुण,

बने अग्नि-स्तंभ तरुगण

नाभि कुंडल रची वही अदम्य कस्तूरी !

*

रूप-गुण  ने बैर साधा,

श्वास भी बन जाय बाधा

दौड़ अंधाधुंध तब तक,

रक्त  आलक्तक  रचें  पग.

 करुण मरण-मृदंग  कर दे मौन  कस्तूरी ,   !

*

मत्त बन, कर लिया धारण  ,

किस तरह हो फिर निवारण,

शाप बन कर ग्रस रहा वर

टीसता अंतर विषम-शर.

एक दिन तुझको करे निस्पंद कस्तूरी ,

*

प्राण ले कर भागती डर,

काल से कैसे बचे पर,

वही कर्षण खींच लाता

दिशा देता  पथ बताता.

इन्द्रियों के बोध भी अवसन्न कस्तूरी.

*

आ गई क्यों इस धरा पर ,

वेदना- संस्कार लेकर?

कुछ न पायेगी यहाँ तू

दुसह व्रत-आचार लेकर,

सिर्फ़ सहना ही,  भटक निस्संग कस्तूरी !

*

अब कहाँ का शान्ति औ-सुख ,

कुछ नहीं री.  मनोवांछित.,

भाग कर जाये कहाँ

हिरनी शरण पाये कहाँ  ?

कुरंगिनि री,  मरण का अनुबंध कस्तूरी !

तू कहाँ स्वच्छंद तेरे छंद कस्तूरी !

*

रविवार, 10 जुलाई 2011

रचयिता से -

*
श्री गणेश के धर शुभांक चल पड़ी लेखनी  भूर्ज-पत्र पर
स्वर- शब्दों की गंगा-यमुना सरस्वती मय त्रिगुण  रूप धर
उर पर धरा  कठिन हिमगिरि सा भारत का यह  महा कथानक
 वाणी में ढल, वेद  व्यास के शब्दों में  बह चला अचानक !
*
ले उद्विग्न मनस्थिति , अनुभव ले कुछ कड़वे खट्टे ,तीते ,
अंतर-बहिर्द्वंद्व मनस-तल तक  मथते जैसे युग बीते
तानो-बानो में पूर-पूर सारे आँसू, सारे अँगार
जय महाकाव्य  की रचना में बुन डाला युग को आर-पार.
*
अंधे पांडुर ,विदुर सभी का वंश ,   तुम्हारा ही तो अंशज,
 कौन दूध का धुला वहाँ पर, सब  फिसले पड़ते ही संकट  ,
क्या बीता तुम पर लिखने में अपनी संततियों का लेखा ,
 कैसे यों  निर्लिप्त भाव धर  लिखा दिया सब आँखों देखा ,
*
कथरी जो  ओढ़ी थी ,उसके टाँकों में जो शाप सिल गये ,
उन पात्रों को निज में जीते , सारे ही विश्वास हिल गये
 उन पापों का  अनुभव करते पाए हों कितने  पश्च-ताप ,
तुम से विरक्त ने ओढ़ लिया   पूरे युग  का गहरा विषाद
*
अपने लिक्खे  से  छुटकारा ओ व्यास,कभी क्या मिल पाया
या घिरी रही अंतर्नभ पर वह छल-छद्मों वाली छाया
बाढ़ लौट  जाए सारे तट पर ज्यों   कूड़-कबाड़ छोड़     ,
अट्ठारह दिन सच और झूठ का द्वंद्व भरे आतंक ओढ़  !
*
और युद्ध के बाद नशा सा उतरा जब ,अवसाद शेष बस .
क्या समझा था किन्तु हुआ क्या फीका सब उछाह का उत्सव
 क्या  दायित्व निभा पाया ,ले शंका और हताशा मन में
प्राण भीष्म ने त्यागे होंगे इसी विषम चिन्ता के क्षण में ,,
*
उस दिनान्त के बाद अँधेरी रात ,व्याध के शर सी बेधक ,
गीता के गायक के स्वर चिर मौन हो गये होंगे लेखक
जिसने सबकी पीर सही ,जो अनासक्त ही रहा जनम भर ,
लिख उसका अवसान व्यास,क्या कर पाये थे तुम मन को थिर
*
 युग के घटकों का संयोजन जिसके संकेतों पर निर्भर
कर लीला का संवरण  गया वह एक रहा जो- परम्पूर्ण नर
काल-व्याध का एक तीर कर गया उसे भी एक  किनारे
भील लूटते कुल-वधुओं को  ,उघड़ी लज्जा कौन उबारे ,
*
कृष्ण बिना सब विरस,विषण्ण हताशा से संसार भर गया
शंकाओं से बोझिल सारा  लोक -वेद  व्यवहार रह गया
व्यास ,कहाँ ला छोड़ा तुमने नारायण से हीन धरा पर ,
सखा ,सारथी और गुरु बिना  ,हत-सामर्थ्य मलीन हुआ नर !
*
पृष्ठों के उजलेपन पर भी फैल गई होगी कुछ  स्याही
अंक विरूपित बिखरे होंगे ,घुले नयन जल में सहसा ही
लिखते हुये लेखनी रोई ,लगा कालिमा सी घिर आई
हे हेरंब ,लेखनी ठिठकी होगी नयन दृष्टि  धुँधलाई!
*
जीता कौन ,पराजय किसकी किस पर राज करे हारा मन ,
सारे ही संबंध झूठ थे  व्यर्थ हुआ सारा आयोजन
कौन सुखी हो सका ,कौन संतुष्ट हुआ क्या हाथ लगा रे
डूबे कितने वंश और कितने रोदन-रत साँझ-सकारे  !
*
बर्बरीक* का मुंड वृक्ष पर टँगा  देखता आँखें फाड़े,
सब विरूप ,विशृंखल हो आ जाता दृष्टि पटल के आड़े
अमर पीर ले भटक रहे हैं  अश्वत्थामा* कजरी वन में
मणिविहीन माथा चिर  शापित-घाव टीस भऱता क्षण-क्षण में.
*
घटना क्रम का रंगमंच षड्यंत्र,छलों से रहा सजा है    !
गीता का सारांश सौंपते लगा कि कुछ तो हाथ लगा है,
व्याकुलता को ढाँक सके जो मिला शान्ति का  कहीं आवरण      
 उस अव्यक्त अथाह दाह से कैसे मुक्त हुए द्वैपायन ?  
*
जब तक वाणी की करुणा-धारा से सिक्त न हो अंतरतम,
सघन शान्ति की मनोभूमि में जग न जाय कोई रचना-क्रम
वेदव्यास ,बस यह बतला दो ,,उबरे किस विध कठिन दाह से
महा समर के बाद कि जैसे शीतल औ'अतिशान्त  तपोवन
*
फिर तुमने कुछ लिखा कि जिससे मन को कुछ आश्वस्ति मिल सके ,
अंतर्दाह शमित हो जाए , थकित चेत  विश्रान्ति मिल सके ,
उस अन्याय अनीति कथा के बाद ,स्वस्थ  हो सका विकल चित्
 कुछ उपाय कर  पाया हो तो व्यास बता दो स्वस्ति प्राप्ति हित .
*
हर रचना के बाद शेष  रह जाता भीतर चुभता सा कुछ
जिसने भी दुख कथा लिखी उसके पल्ले बँध गया वही दुख
वह  अभिशप्त जिये आजीवन, जीवन-विजन बने प्रायश्चित ,
कोई ठौर नहीं बचता केवल एकाकी औ'बीहड़ पथ !
*
अब तो सब लिख गया सदा को  सोच हृदय अकुलाया होगा  
वेदव्यास ,वह दाह कठिन  किस तरह सहन कर  पाया होगा
किस उपाय से शान्त कर सके   वह उद्विग्न अवस्था मन की
या कि उसी द्विविधा में जीना नियति बनी बाकी जीवन की
 *
रच युगंधरी गाथा तुम क्या  पूर्णकाम हो सके व्यास या
घिर आया श्लथ मन पर प्रतिक्षण भारी होता घना कुहासा
वेद व्यास रचना के क्रम में ,आदि अंत तक सब जी डाला ,
सारा द्वापर आत्मसात् कर एक महाभारत रच डाला
*
 सागर तक  अविराम यात्रा करता व्याकुल एकाकी मन ,
 महाविलय के साथ समर्पित  आत्म-कथामय व्यथा कथा-क्रम
पाये करुणा-वरुणा के  कण ,शाप-ताप से त्रस्त थकित स्वर,
व्यथित तप्त अचला को शीतल कर दे स्वस्ति शान्ति का निर्झर !  
*
यह अपार गाथा मानव के संबंधों की ,दुर्बंधों की
तृष्णा ,लोभ अनीति असत्यों की दुर्मन के  षड्यंत्रों की
कुछ सुन्दर करणीय नीति वच के पर खुले नये वातायन
महाकाव्य के महा रचयिता तुम्हें प्रणाम कृष्ण द्वैपायन!
*
बर्बरीक -
वे महान पाण्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया।
कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। नका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया  गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
 -
अश्वत्थामा -
 को मुख्यतः कौरव राजकुमार दुर्योधन के परम मित्र के रूप में जाना जाता है। जब भीम ने दुर्योधन का वध किया तो क्रोधित हो अश्वत्थामा ने पांडवों के सभी पुत्रों को मार डाला । जब पांडवों को पता चला तो वे उसे मारने को उद्यत हो गए। लेकिन कृष्ण ने उन्हें रोका । पर अश्वत्थामा ने उन सभी की हत्या करने के लिए ब्रह्मास्त्र निकाल लिया। लेकिन ब्रह्मा के यह उसे यह समझाया और उसने वह महाविनाशक अस्त्र उत्तरा के अजन्मे शिशु की तरफ मोड़ दिया । इस प्रकार वह बना इतिहास का सर्वप्रथम भ्रूण-हत्यारा। क्रोधित हो कृष्ण ने उसे शाप दिया और उसे मृत्यु से वंचित कर दिया । से मृत्यु -तुल्य पीड़ा का अनुभव तो मिलना था परन्तु मृत्यु नहीं ।
वहअमर है  .
सूचना - अब कुछ समय यात्राओँ पर ,अतः 10-12 दिन की छुट्टी .

शनिवार, 2 जुलाई 2011

जोड़-घटा.



*
जीवन में कितने दुख हैं ,
जीवन में कितने सुख हैं,
जोड़ घटा कर देख ज़रा ,थोड़ा सा अंतर होगा .
*
कितना थोथापन घेरे ,
थोड़ा कहीं वज़न हो रे ,
छान पछोर अलग कर ले ,असली उतना भर होगा .
*.
आती-जाती हैं राहें,
उठती है हरदम चाहें,
 सारा रोना है मन का ,फिर काहे का डर होगा .
*
मेले की दूकानों में
बिके हुए इन  नामों में
भरमाते हैं विज्ञापन ,  चेताता कुछ स्वर होगा .
*
शंका मत कर और न डर,
अपने को समझाये चल ,
जितना बने  निभाये जा  ,अंत परम सुन्दर होगा !
*




बुधवार, 15 जून 2011

अंतर्यामी से -

बहुत हुए अध्याय कथा के, रहे-बचे सो और निबेरो,
*
मेरे चाहे से क्या, होगा वही तुम्हारी जैसी इच्छा,

और कहाँ तक इसी तरह लोगे पग-पग पर विषम परीक्षा,

भार बढ़ रहा प्रतिपल कुछ तो सहन-शक्ति की सीमा हेरो .
*
मेरी लघु सामर्थ्य ,तुम्हारी अपरंपार अकथ क्षमताएं

कितना और सँभाल सकेंगी थकी हुई ये निर्बल बाहें ,

दीन न हो आश्वस्त रहे मन , ऐसे विश्वासों से घेरो !
*

थोड़ा सा विश्राम मिले जीवन भर के इस थके पथिक को ,

मेरा क्या था ,अब तक देते आए तुम अब वही समेटो.

चरम निराशाएं घेरें जब कोई किरण-सँदेश उकेरो ,
*
उतनी खींचो डोर कि तनकर हो न जाय सब रेशा -रेशा ,

थोड़ा- सा  विश्वास जगे तो,    विचलित करता रहे अँदेशा .

अंतर की उत्तप्त व्यथाओं पर प्रसाद-कण आन बिखेरो !
*
मेरे अंतर्यामी ,दो सामर्थ्य कि निभा सकूँ अपना व्रत,

अंतिम क्षण तक खींच सकूँ इन चुकती क्षमताओं का संकट,

'थोड़ा-सा बस और' यही कह-कह कर  अवश हृदय को प्रेरो !
*

मंगलवार, 7 जून 2011

हम चुप हैं .

हम चुप हैं ,

इसलिए नहीं कि कहने को कुछ नहीं .

कहानी जब

अपने आप कहने लगे ,

कि व्यक्ति की कुंठा

कितनी सीमाएँ लाँघ सकती है ,

उम्र का तकाज़ा सुने बिना,

लाज-लिहाज़ से किनारा कर

सिर्फ़ अहं की तुष्टि हेतु .,

हम बोल कर क्या करें ?

*

ऊपर लिपटे आवरण

पर्त-दर पर्त खुल रहे हों

उद्घाटित हो रहा हो जो स्वयं !

बोल कर बीच में ,

गुनहगार क्यों बने हम?

*

कुत्सित निर्लज्ज लाँछन,

पनपे जो द्वेष की खाद में .

बताते हैं विकृत रोगी मानसिकता का इतिहास ,

असलियत सामने आ कर बोलती है ,

इतना क्यों गिरें हम कि सफ़ाई देते फिरें .

चुप रह जाना श्रेयस्कर,

कि असली चेहरा ख़ुद सामने आए

अब तक के भुलावों के अर्थ खुल जाए,

टूट जायें बहुतों के भ्रम !

*

सच दीपक की लौ है ,

काले आवरणों में भी उजागर .

समझनेवाले समझ लेंगे ,

न समझे कोई

तो क्या फर्क पड़ता है?

*

लाउडस्पीकरी विलाप-प्रलाप से,

फैलाए गए प्रवाद से ,

निर्लिप्त-निर्विकार रह रे मन ,

बिना विरोध ,बिना अपराध -बोध .

शान्त-सुस्थिर, अविचलित ,

अपने स्वयं में स्थित .

*

गंभीर मौन सर्वश्रेष्ठ उपक्रम -

कि इस दुर्बंध का

कण भर संस्कार भी

तेरे किसी आगत काल खंड को

छू न पाए ! !

*

सोमवार, 30 मई 2011

नचारी (वर की खोज), भाग 2 - . & भाग 3 - .

 भाग 2 -
(परीक्षा.)

परीच्छा अहै बहुत भारी ,

इहाँ देखौ कौने हारी!
*

मात-पिता के माथ नवाइल षड्मुख तुरत पयाने,

चढ़ि मयूर- वाहन पल भर में हुइ गे अंतरधाने!

परिल सोच में गनपति ,मूसा देखि वियाकुल भइले,

एतन भारी बदन पहिल, कइसन परिकम्मा कइले!

कौन विधि साधौं पितु महतारी!
*

वेद-पुरान ग्रंथ सुमिरे ,कोऊ उपाय मिलि जाई,

आपुन बुद्धि भरोसो करि ई बाजी जीतौं जाई!

हँसि परनाम किहिल दोउन को विधिवत करि परिकम्मा

सम्मुख आइल चरन परस फिर बोले पाइ अनुज्ञा-

'  तीनि लोकन ते तुम भारी !

*

'तिहुँ लोकन की परकम्मा सम माय-पिता की भइली,

सबहि लोक इन चरनन में देखिल ,अस बानी कहली!'

'धन-धन पूत , बड़ो सुख दीन्हों तुहै बियाहिल पहिले,

सब लोकन में बुद्धि प्रदाता ,विघ्न-विनाशक भइले!

अब तुम्हरे बियाह की बारी!'
*
 भाग - 3.
(विवाह)

षड्मुख घूमि तीन लोकन में आइ चरन सिर नाये !

स्रम से थकित आइ बइठे, देखित गणेश मुस्काये !

'गये न तुम ,काहे से अपनो वाहन देख डेराने ?'

'पूरन काज कियो बुधिृबल ते गजमुख परम सयाने .

गणपति पहिल बियाहे कन्या ,पहिल पूजि सनमाने !'

शंकर कहिन ,'सबै साधन में श्रद्धा -बुधि है भारी !'

गुस्सइले कुमार,' बातन से मोहे पितु महतारी ,

गई सबहिन की मति मारी !'
*

'समरथ औ सुभ-मति से पूरन उचित पात्र अधिकारी,

इनका धारन करै बिस्व हित होवे मंगल कारी !

तनबल ,मनबल और बुद्धिबल की हम लीन परीच्छा ,

जा सों होय सकारथ रिधि -सिधि हमरी इहै सदिच्छा !'

शिकायत षड्मुख की भारी !
*

'पार्वती समुझावैं ,' तुम अति वीर महा-बलधारी ,

साधन और उपाव सहज करि देत काज सब भारी !

बल ते सरै न काज अगम, तब बुद्धि उपाय सुझावै ,

हर्र-फिटकरी बिना रंग पूरो-पूरो चढ़ि जावे !

पूत तुम समुझौ बात हमारी !'

*

'बुद्धि वीर बे ,वे बाहु वीर तुम दोनिउ मोर दुलारे ,

दुइ कन्यन सों दोऊ भैया ब्याह करहु मोरे बारे !'

खिन्न कुमार उठे बोले 'तुम जौन कहा हम कीन्हा ,

आज्ञा सिर धरि दौरि थक्यो, तौहूँ जस नेक न दीन्हा !

करो तुम ,जो भावै महतारी !
*

'स्रम पुरुषारथ भयो अकारथ हम बियाह ना करिबे ,

उचटि गयो मन, अब हम जाइ कहूँ अनतै ही रहिबे !'

गौरा गनपति करैं जतन ,पै अइस कुमार रिसाने .

बहुत करी विनती कर जोरे ,विधि निरास पछिताने ,

*

पसुपति करि परबोध थकाने केहू भाँति न मानै ,

दोनिहुँ कन्या एकहि बर सों ब्याहन की तब ठाने !

'लिखी जो कउन सकै , टारी !'

*

भयो बियाह वेद-विधि गिरिजा परिछन कीन्ह बधुन को ,

गौरा को परिवार निरखि अति अचरज देव-मुनिन को !

गनपति पाये रिद्धिृ-सिद्धि ,द्वौ पुत्र लाभ-सुभ जनमे ,

सुर-मुनि सबै सिहात कामना करत कृपा की मन में !

बिघनहर्ता गजमुख धारी ,
 
देउ सारी बाधा टारी !
*

शनिवार, 28 मई 2011

नचारी - वर की खोज

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बर खोजन चले विधना ,
 कन्या दोउ गुनखानी !


'ऋद्धि-सिद्धि दोउ जुड़वाँ बहिनी अब लौ क्वाँरी रहलीं,

का सों का भइल सँजोग ',विधात्री आकुल विधि सों कहिलीं !

'सुघर सयानी दोनिउ बहिनी बहुत जतन सों पालीं,

सुर नर देखि सिहावैं ,न जनौ केहिके भाग जगइलीं!

सुलच्छनी कल्यानी !

बर खोजन की ठानि मनहिं मन ठाड़े भै बिधना,

लायक लरिका होय, न जने दौरन परि है केतना !

सतुआ बाँध निकलि गे घर ते काँधे डारि अँगौछा,

बाँधि गठरिया धरि लीनो तिन संग डोर औ' लोटा!

मन में चिन्त समानी!

सूरज तपत ,चंद्रमा रोगी अइसन बर ना चहिले,

पवनदेव को ठौर-ठिकाना केऊ जान न पइले!

देवराज के देखि चरित्तर मुँह घुमाइ हँस रहिले,

पुरुसोत्तम हरि सेसनाग परि छीरसिन्धु में सोइले!

शिव-शंकर अवढर दानी !

सोर भयो सब लोकन में ,बर खोजन विधना आयेल

ऋषि-मुनि ललचैं ,रिधि-सिधि कारन ,जप-तप सबै हेराइल,

कौन उपाय मिलहि कन्या, जागी हिय अस अभिलासा,

भारी सोच कौन विध जीत लेहुँ विधि को बिसबासा!

मति सबहिन केर हिरानी !..

तीनहुँ लोक कउन अस जन्म्यो कन्यन के संजोगे,

घूमि,घूमि थक गइले विधना कोउ न लग अनुरूपे!!

आइ देवता सारे सजि-बजि , बढ़ि आपुन गुन बरनै!

विधि विसमित अब हँसैं कि रोवैं ,सिर पीटल खिसियौंने!

का सों कहों कहानी!

देवि सुरसती दया लागि -' काहे कैलास न गइले,

दुइ कुमार गिरिजा के अब तो ब्याहन लायक भइले

अन्नपूरणा सासु ,बहुरियाँ रिधि-सिधि अनुपम जोगा,

अरपन करि निज कर सों नरियल तुरतै करो बरीच्छा!

आपुन मन में ठानी!'

देखि्य़ो नारियर ,कुँवर मुदित भे ,हर-गिरजा हरषइले,

घूम मचिल सारे शंकर गण ताली दै-दै नचिले!

गौरा हँस चुप रहलीं ,बोलेल विधना ते तुरतै हर,

'पहिल परिच्छा होइल करबे काहू को केहि का बर!

दोउ कन्या गुनखानी!'

षड्मुख -गणपति देखि आँखि भऱ विधना सब सुख लहिले,

कोउ ब्याहिल पीछे तो का , कोऊ ब्याहिल पहिले!

'परिकरमा तीनिहुँ लोकन करि जौन पहिल जस लहिले

समरथ होइल , गुणमंती कन्या सो निहचय पइले!'

सुनि मुसुकाहिं भवानी

जबै बर खोजन चले बिधना !
***


..

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

चलती बार ..



प्रस्थान की बेला,

चिर-प्रतीक्षित गंतव्य की ओर,

उत्तर दिशि वन-पगडंडियाँ ,

मन शान्त ,पुलकित !

*

सारा कुरुक्षेत्र बीता ,

राज पाट निरर्थक.

मान-अपमान ,शाप-ताप, सुख-दुख ,

सारे मनस्ताप छूटें यहीं .

इन्द्रियों के पाँच पाण्डव ,

अंतराग्नि-संभवा द्रौपदी सहित चलते हैं

देवात्मा हिमालय का

अपरिमित विस्तार है जहाँ !

*

अनायास होते रहे

मोहमयी मानसिकता के

दोष-अपराध,क्षमा कर

बिदा दो मीत ,

और आशीष भी

कि इस यात्रा का पुनरावर्तन न हो !

*

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

नचारी - राम जी


*

सीता जी की मैया तो सासू तुम्हार भईँ ,राम जी कहाते तुम धरती के भरता ,

ताही सों कैकेयी दिबायो बनबास,तहाँ जाय के निसाचरन के भये संहर्ता.

मंथरा ने जाय के जनाई बात रानी को सुनि के बिहाल भई चिन्ता के कारनैं ,

दोष लै लीन आप ,कुल को बचाय दियो केकय सुता ने अपजस के निवारने ,

फिर हू तुम आय लै लीनो राज-पाट, तासों अवनि-सुता के भाग आयो वनवास है ,

बेटी और मात दोनों एक घरै कइस रहें कारन यही रह्यो हमारो मन जनात है .

सुधि हौ न लीन ,वा की मरत कि जियत ,बनैं माँ पठाय निहचिन्त भये राम जी .

ऐतो अपवाद सुनि ,छाँड़ि दियो साथ औ'विवाह के बचन को न राख्यो नेक मान जी,

अंत काल धरती में सीता समानी सरजू के जल माँहिं तुम लीन भए जाय के .

हुइ के गिरस्थ पूत-जाया न साथ , धर्म लीनो निभाय एक मूरत बनाय के .

पतनी की कनक मयी काया सों काज ,ताके मानस की थाह काहे पाई ना विचारि के,

अस्वमेघ जीत्यो जभै सीता के पुत्रन नें लै आए तिन्हें सब ही विधि हारि के .

पालक प्रजा के न्याय बाँटत जगत को पै आपनी ही संतति के पालक कहाए ना ,

राज-काज हेतु तीन भाई समर्थ तहूँ , जाया के सँग सहधर्मी बनि पाये ना .

लछिमन सो भाई ,हनुमान सो सुसेवक तुम्हार लागि आपुनो जनम जो न वारते ,

बड़ो नाम है तुम्हार,साधि रहे इ है चार, जो न होते राम- काज केहि विधि सँवारते .

सीता और कैकयी बिरथ बदनाम भईँ इन सम कोउ नहीं देख्यो निहकाम जी ,

भरत सो भाई ,विभीषण सो भेदी गए सुजस तिहारे ही नाम लिख्यो राम जी !

*

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

नव-संवत्सर पर


पथ के साथी !
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नव-संवत्सर पर हम सबकी शुभ-कामनाएँ विश्व-मंगल का हेतु बने !


भारतीय-मनीषा ने जीवन को कभी देश,धर्म आदि की संकुचित सीमाओं में नहीं बाँधा ,वसुधा को एक कुटुंब सम देखा है - सबके साथ आप और हम भी आनन्द और उत्कर्ष को प्राप्त करें !

माँ ,नव-ऊर्जा के इस उदय-काल में तुम्हारी शक्तियों के सभी स्वरूप मंगल का विधान और अमंगल का शमन करें !
**
- प्रतिभा सक्सेना.

मंगलवार, 29 मार्च 2011

वही मैं

*

जब होती हूँ अपने आप में

वर्जना-हीन ,अबाध, मुक्त .

अपनी पूरी मानसिक सत्ता के साथ,

इन मानो-प्रतिमानो से निरपेक्ष.

किसी का कहना सुनना

कोई अर्थ नहीं रखता मेरे लिए !

आत्म में निवसित ,

शीष उठाए संनद्ध ,

अविभाजित ,अनिरुद्ध ,

अपनी संपूर्णता में स्थित !

वही हूँ मैं ,

बस वही !
*

गुरुवार, 17 मार्च 2011

वाह रे ,चाँद !

*
वाह रे ,चाँद !
तुम्हें भी चैन नहीं पड़ता !
इतना पानी बरसा
आसमान तो क्या साफ़ होता
सारे में किच-किच और हो गई .
काले-काले,दल-दल बादल जहाँ-तहाँ .
*
तुम भी चाँद ,बाज़ नहीं आते
खेल रहे दौड़-दौड़ छिपा-छिपी !
बात ,सुनते ही नहीं
फिसल रहे बार-बार .
उफ़, वहीं लोट गए ,
दल-दल -बादल में डूबी -सी देह .
*
चलो उठो, उठो ,
साबुन लगा कर नहला दूँ .
चलो साथ ,
धुले पुछे, फिर से चमक जाओगे !
*
कोई मत आना .
सारे कपड़े उतार
नहा रहा है मेरा चंदा .
हँसते फेन-बुलबुलों वाली
हर-हर गंगा !
*
आसमान में बादल दल-दल,
मेरा धुला-पुँछा चंदा चमक गया रे !
कोई नज़र न लगा दे
ये लो, काजल का टीका .
वाह,
लो,अब देखो सब लोग.
है कोई मेरे चंदा सरीखा ?
*

रविवार, 13 मार्च 2011

ओ अरुणा !

*

बहुत अस्थिर हो उठती हूँ ,

पल-पल अनुभव करती हूँ तुम्हें अपने में ,

कि नींद में चलती चली आती हो मुझ तक !

अरुणा,

सैंतीस साल बीत गए

लोग जगाना चाहते हैं !

जगोगी?

बड़ी मुश्किल होगी ,

झटके पर झटके .

आँखें फाड़ देखोगी चतुर्दिक

सब अजनवी ,

माँ-पिता भाई-बहिन मित्र संबंधी,

कहींकुछ नहीं .

ख़ुद का वजू़द एक सवाल-सा .

दर्पण से ताकेगी

टूटी-हारी ढली एक पस्त औरत.

अपने को कहां ढूँढोगी ,

कैसे पार पाओगी ?

*

तुम जो थीं -

अंतर में रह-रह फूटता

आनन्द का उत्स,स्वप्निल नयन,

मधु- गंध व्याकुल पुष्पित पुलकित

यौवन भार नत,

प्रतीक्षाकुल तरुणा-अरुणा

 समर्पित होने अपने  प्रिय पुरुष को !

एक पिशाच लीला रौंद गई ,

ऊर्जा के अमृत-कण खींच ,

रोम-रोम में तेज़ाब उँडेल गई .

*

पच्चीस साल की युवती

जो सो गई थी उस दिन,

कभी नहीं जगेगी .

सामने है हत विद्रूप ,

ढहता जा रहा भग्नावशेष !

*

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

मुक्त कर दो अब मुझे -

*
कब से ,

छटपटा रही हूँ

कुचली हुई विरूप देह के पंजर में .

रोम-रोम जकड़ा

वहीं के वहीं जड़ीभूत

आहत मन ,

पल-पल तड़पते

प्राणों की रगड़.

*

सैंतीस साल !

दारुण यंत्रणा ,

सच पर अड़ने का ,

नारी होकर नर के आगे

न झुकने का दुस्साहस .

परिणाम ?

*

परिणाम ?

यही -मैं ,

कभी रही थी -

अरुणा शानबाग.

आज उदाहरण मात्र !

टू़टी -फूटी खंडित देह की कारा ,

वही  भयंकर भूमिका

निश्चेत, जकड़ा  मन ,

न जीवन न मृत्यु,

अहर्निश ,असह्य !

*

उदाहरण बनी पड़ी हूँ ,

सँजोओगे कब तक ,

मानवी देह का उपहास ?

या नारीत्व ही एक शाप !

सिमटी-लिपटी ममी हूँ ,

या ज़िन्दा लाश ?

*

दे दो अब छुटकारा !

मत बाँधे रहो

साँसों की जर्जर डोर ,

कटे इस जनम का पाप,

बस मुक्त कर दो ,

मुक्त कर दो अब मुझे !

*

सोमवार, 7 मार्च 2011

नचारी - काहे सरमाति है !


दूध- जल कोऊ लाय तुमका समर्पि देय,

नाँगेँ बैठ जहाँ-तहाँ तुरतै न्हाय लेत हो!

लाज करौ कुछू ज्वान लरिकन के बाप भये,

ह्वै के पुरान-पुरुस नेकु ना लजात हो.

*

''ऋद्धि-सिद्धि बहुरियाँ घरै माँ, तहूँ सोचत ना.

भाँग औ'धतूरा बइठ अँगना माँ खात हौ!

लाभ-सुभ बारे पौत्र, निरखत तुम्हार रंग ,

माई री, मैं देखि धरती माँ गड़ी जात हौं !''

*

हँसे नीलकंठ,''जनती हतीं रीं गौरा,फिन

काहे लाग माय-बाप हू की सीख ना सुनी!

तोहरे ही कारन गिरस्थी स्वीकार लई,

काहे हठ धारि लियो मोर दुल्हनियाँ बनी ?

*

''लोग हँसे तो का ,आधे अंग में धरे हों तोहि,

मेरे साथ-साथ तू भी उहै जल न्हाति है,

आध-आध दोऊ जन साथ-साथ देखें सब,

मोर-तोर प्रीत, अइस काहे सरमाति है !''

*

पल्लू मुँह दाबे ,हँसे जाय रहीं पुत्र-वधू ,

ऋद्धि-सिद्धि आँगन तिरीछे से नैन भे,

चौकी पे बैठे गनेस झेंप-खीज भरे,

समुझैं न माय-बाप ही सों जाय का कहैं !

*

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

देवि,चिर-चैतन्यमयि !

*
आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर-नयन में

मंत्र से स्वर फूँकती अंतःकरण में :
देवि,चिर-चैतन्यमयि ,तुम कौन ?,
*
मैं स्वरा हूँ ,ज्ञान हूँ ,विज्ञान हूँ मैं,
मैं सकलविद्या कला की केन्द्र भूता !
व्यक्ति में अभिव्यक्ति में ,
अनुभूति -चिन्तन में सतत हूँ,
नाद हूँ शब्दात्मिका मैं,
सभी तत्वों की प्रसूता !
*
वैखरी से परा-पश्यंती तलक,-
मैं ही बसी संज्ञा,क्रिया के धारकों में
भोगकर्त्री हूँ स्वयं,प्रतिरूप धारे,
भूमिका नव धार आठों कारकों में !
*
मैं प्रकृष्ट विचार जो प्रत्येक रचना मे सँवरता ,
मूल हूँ, शाखा- प्रशाखा में सतत विस्तार पाती ,
धारणा बन शुद्ध, अंतर्जगत में अभिव्यक्त होती ,
बाह्य प्रतिकृति सृष्टि है,प्रकृत्यानुरूप स्वरूप धरती !
*
पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है ,
मैं फूँक भर- भर कर बजाती ,
नाद की झंकार हर आवर्त में भर ,
उर- विवर आवृत्तियाँ रच- रच गुँजाती !
*
सतत श्री -सौंदर्य का अभिधान करती ,
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती
स्फुरित हो अंतःकरण की शुद्ध चिति में ,
कल्पना मे सत्य का अवधान धरती !
*
सप्त रंग विलीन ऐसी शुभ्रता हूँ ,
सप्त-स्वर लयलीन अपरा वाक् हूँ मैं !
अवतरित आनन्द बन अंत-करण में,
पार्थिव तन में विहरती दिव्यता हूँ !
*
साक्षी मैं और दृष्टा हूँ निरंतर ,
ऊर्जस्विता ,अनिरुद्ध मैं अव्याकृता हूँ !
काल बेबस निमिष-निमिष निहारता,
मै स्वयं मे संपूर्ण अजरा अक्षरा हूँ !
अप्रतिहत मै, सहित, द्वंद्वातीत हूँ मै,
मै सतत चिन्मयी अपरूपा गिरा हूँ !
*
- प्रतिभा.


गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सद्य स्नाता -

*


झकोर-झकोर धोती रही ,

सँवराई संध्या,

पश्चिमी घाट के लहरते जल में ,

अपने गैरिक वसन .

फैला दिये क्षितिज की अरगनी पर

और उतर गई गहरे

ताल के जल में .

*

डूब-डूब , मल-मल नहायेगी रात भर .

बड़े भोर निकलेगी जल से .

उजले-निखरे स्निग्ध तन से झरते

जल-सीकर घासों पर बिखेरती ,

ताने लगाते पंछियों की छेड़ से लजाती,

दोनों बाहें तन पर लपेट

सद्य-स्नात सौंदर्य समेट ,

पूरव की अरगनी से उतार उजले वस्त्र

हो जाएगी झट

क्षितिज की ओट  !
*

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

एक नचारी - नोंक-झोंक.

'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,

ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'

फुलाये मुँह पारवती !
*

'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,

मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !

समुन्दर को दे आऊँगा !'
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'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,

और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'

सोच में है पारवती !
*

'तू माँस-सुरा* पे राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .

मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !

शंका न कर पारवती !'
*

'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,

ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,

भसम गति देही की !'
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बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,

फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !

कुढ़े काहे को पारवती !'
*

'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !

जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'

मगन हुई पारवती !
*
(* शाक्तमत में सुरा&;मांस विहित है)