अंतर्यामी से -
बहुत हुए अध्याय कथा के, रहे-बचे सो और निबेरो,
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मेरे चाहे से क्या, होगा वही तुम्हारी जैसी इच्छा,
और कहाँ तक इसी तरह लोगे पग-पग पर विषम परीक्षा,
भार बढ़ रहा प्रतिपल कुछ तो सहन-शक्ति की सीमा हेरो .
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मेरी लघु सामर्थ्य ,तुम्हारी अपरंपार अकथ क्षमताएं
कितना और सँभाल सकेंगी थकी हुई ये निर्बल बाहें ,
दीन न हो आश्वस्त रहे मन , ऐसे विश्वासों से घेरो !
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थोड़ा सा विश्राम मिले जीवन भर के इस थके पथिक को ,
मेरा क्या था ,अब तक देते आए तुम अब वही समेटो.
चरम निराशाएं घेरें जब कोई किरण-सँदेश उकेरो ,
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उतनी खींचो डोर कि तनकर हो न जाय सब रेशा -रेशा ,
थोड़ा- सा विश्वास जगे तो, विचलित करता रहे अँदेशा .
अंतर की उत्तप्त व्यथाओं पर प्रसाद-कण आन बिखेरो !
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मेरे अंतर्यामी ,दो सामर्थ्य कि निभा सकूँ अपना व्रत,
अंतिम क्षण तक खींच सकूँ इन चुकती क्षमताओं का संकट,
'थोड़ा-सा बस और' यही कह-कह कर अवश हृदय को प्रेरो !
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