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बुधवार, 15 जून 2011

अंतर्यामी से -

बहुत हुए अध्याय कथा के, रहे-बचे सो और निबेरो,
*
मेरे चाहे से क्या, होगा वही तुम्हारी जैसी इच्छा,

और कहाँ तक इसी तरह लोगे पग-पग पर विषम परीक्षा,

भार बढ़ रहा प्रतिपल कुछ तो सहन-शक्ति की सीमा हेरो .
*
मेरी लघु सामर्थ्य ,तुम्हारी अपरंपार अकथ क्षमताएं

कितना और सँभाल सकेंगी थकी हुई ये निर्बल बाहें ,

दीन न हो आश्वस्त रहे मन , ऐसे विश्वासों से घेरो !
*

थोड़ा सा विश्राम मिले जीवन भर के इस थके पथिक को ,

मेरा क्या था ,अब तक देते आए तुम अब वही समेटो.

चरम निराशाएं घेरें जब कोई किरण-सँदेश उकेरो ,
*
उतनी खींचो डोर कि तनकर हो न जाय सब रेशा -रेशा ,

थोड़ा- सा  विश्वास जगे तो,    विचलित करता रहे अँदेशा .

अंतर की उत्तप्त व्यथाओं पर प्रसाद-कण आन बिखेरो !
*
मेरे अंतर्यामी ,दो सामर्थ्य कि निभा सकूँ अपना व्रत,

अंतिम क्षण तक खींच सकूँ इन चुकती क्षमताओं का संकट,

'थोड़ा-सा बस और' यही कह-कह कर  अवश हृदय को प्रेरो !
*

मंगलवार, 7 जून 2011

हम चुप हैं .

हम चुप हैं ,

इसलिए नहीं कि कहने को कुछ नहीं .

कहानी जब

अपने आप कहने लगे ,

कि व्यक्ति की कुंठा

कितनी सीमाएँ लाँघ सकती है ,

उम्र का तकाज़ा सुने बिना,

लाज-लिहाज़ से किनारा कर

सिर्फ़ अहं की तुष्टि हेतु .,

हम बोल कर क्या करें ?

*

ऊपर लिपटे आवरण

पर्त-दर पर्त खुल रहे हों

उद्घाटित हो रहा हो जो स्वयं !

बोल कर बीच में ,

गुनहगार क्यों बने हम?

*

कुत्सित निर्लज्ज लाँछन,

पनपे जो द्वेष की खाद में .

बताते हैं विकृत रोगी मानसिकता का इतिहास ,

असलियत सामने आ कर बोलती है ,

इतना क्यों गिरें हम कि सफ़ाई देते फिरें .

चुप रह जाना श्रेयस्कर,

कि असली चेहरा ख़ुद सामने आए

अब तक के भुलावों के अर्थ खुल जाए,

टूट जायें बहुतों के भ्रम !

*

सच दीपक की लौ है ,

काले आवरणों में भी उजागर .

समझनेवाले समझ लेंगे ,

न समझे कोई

तो क्या फर्क पड़ता है?

*

लाउडस्पीकरी विलाप-प्रलाप से,

फैलाए गए प्रवाद से ,

निर्लिप्त-निर्विकार रह रे मन ,

बिना विरोध ,बिना अपराध -बोध .

शान्त-सुस्थिर, अविचलित ,

अपने स्वयं में स्थित .

*

गंभीर मौन सर्वश्रेष्ठ उपक्रम -

कि इस दुर्बंध का

कण भर संस्कार भी

तेरे किसी आगत काल खंड को

छू न पाए ! !

*