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मंगलवार, 7 जून 2011

हम चुप हैं .

हम चुप हैं ,

इसलिए नहीं कि कहने को कुछ नहीं .

कहानी जब

अपने आप कहने लगे ,

कि व्यक्ति की कुंठा

कितनी सीमाएँ लाँघ सकती है ,

उम्र का तकाज़ा सुने बिना,

लाज-लिहाज़ से किनारा कर

सिर्फ़ अहं की तुष्टि हेतु .,

हम बोल कर क्या करें ?

*

ऊपर लिपटे आवरण

पर्त-दर पर्त खुल रहे हों

उद्घाटित हो रहा हो जो स्वयं !

बोल कर बीच में ,

गुनहगार क्यों बने हम?

*

कुत्सित निर्लज्ज लाँछन,

पनपे जो द्वेष की खाद में .

बताते हैं विकृत रोगी मानसिकता का इतिहास ,

असलियत सामने आ कर बोलती है ,

इतना क्यों गिरें हम कि सफ़ाई देते फिरें .

चुप रह जाना श्रेयस्कर,

कि असली चेहरा ख़ुद सामने आए

अब तक के भुलावों के अर्थ खुल जाए,

टूट जायें बहुतों के भ्रम !

*

सच दीपक की लौ है ,

काले आवरणों में भी उजागर .

समझनेवाले समझ लेंगे ,

न समझे कोई

तो क्या फर्क पड़ता है?

*

लाउडस्पीकरी विलाप-प्रलाप से,

फैलाए गए प्रवाद से ,

निर्लिप्त-निर्विकार रह रे मन ,

बिना विरोध ,बिना अपराध -बोध .

शान्त-सुस्थिर, अविचलित ,

अपने स्वयं में स्थित .

*

गंभीर मौन सर्वश्रेष्ठ उपक्रम -

कि इस दुर्बंध का

कण भर संस्कार भी

तेरे किसी आगत काल खंड को

छू न पाए ! !

*

15 टिप्‍पणियां:

  1. भावों से सजी कविता... उद्वेलित करती सी...

    जवाब देंहटाएं
  2. सच दीपक की लौ है ,

    काले आवरणों में भी उजागर .

    समझनेवाले समझ लेंगे ,

    न समझे कोई

    तो क्या फर्क पड़ता है?

    आद. प्रतिभा जी,
    बहुत दिनों बाद आया , आपकी कविताओं की गहराई में डूबना अच्छा लगता है !
    आभार !

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी रचना हर परिस्थिति में खरी उतर रही है ..चाहे वो राजनैतिक हों या सामजिक या फिर पारिवारिक ...विचार करने योग्य मंथन

    जवाब देंहटाएं
  4. सच दीपक की लौ है ,

    काले आवरणों में भी उजागर .

    समझनेवाले समझ लेंगे ,

    न समझे कोई

    तो क्या फर्क पड़ता है?
    सांच को आंच नहीं! विचारोत्तेजक कविता।

    जवाब देंहटाएं
  5. जब बवंडर मचा हो चहुँ ओर, मौन की शक्ति हमें बचाती है।

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  6. गंभीर मौन सर्वश्रेष्ठ उपक्रम -
    कि इस दुर्बंध का
    कण भर संस्कार भी
    तेरे किसी आगत काल खंड को
    छू न पाए ! !

    सत्य वचन! श्रेष्ठ, श्रेयस्कर पथ !!

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  7. आपको पढ़कर लगता है कि ब्लॉग लेखन पर भी विशिष्टता उपलब्ध है ! सादर

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  8. मौन भी ठीक है , सच तो सामने आएगा ही।

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  9. संगीता जी से पूर्णत: सहमत हूँ.....मगर फिलहाल के राजनीतिक माहौल पर ज़्यादा केंद्रित लगी रचना......कुछ दिन पहले दैनिक भास्कर के संपादकीय में एक बहुत खूबसूरत आलेख आया था......जिसका शीर्षक याद नहीं...मजमून यही था....''अपने सुखों के लिए हो रही राजनीति..और उसमे आम आदमी का दखल और उसकी सोच..''
    आपकी रचना पढ़ते पढ़ते उस आलेख की बहुत सी बातें दिमाग में घूमती रहीं..|

    रचना की विशिष्टता उसके भिन्न भिन्न आयाम ही हैं....जो उसे सदाबहार रखने में समर्थ हैं.......

    बहरहाल,
    सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई !

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  10. निर्लिप्त-निर्विकार रह रे मन ,

    बिना विरोध ,बिना अपराध -बोध .

    शान्त-सुस्थिर, अविचलित ,

    अपने स्वयं में स्थित .

    प्रतिभा जी बहुत ही जबरदस्त रचना है यह । आपका ये मौन करा सोना है जो प्रवादों विवादों की आग में तप कर और निखरता है ।

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  11. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी (कोई पुरानी या नयी ) प्रस्तुति मंगलवार 14 - 06 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    साप्ताहिक काव्य मंच- ५० ..चर्चामंच

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  12. गंभीर मौन सर्वश्रेष्ठ उपक्रम -
    कि इस दुर्बंध का
    कण भर संस्कार भी
    तेरे किसी आगत काल खंड को
    छू न पाए ! !


    -निश्चित ही यही सर्वश्रेष्ठ उपक्रम है...गहन रचना.

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  13. संतुलित विचार। सत्य प्रखर है, सामने आकर रहता है, यह उसकी प्रवृत्ति है।

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  14. कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते। अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते।
    जो स्वयं प्रकट होरहा है फिर बीच में बोलने की जरुरत भी क्या है।
    सबसे भली चुप
    सामने बाला जब वैसे ही समझ ले तो बोलने की जरुरत ही क्या है
    बहुत बढिया निर्विकार निर्लिप्त रह ,मन भी विचलित नहीं होगा शान्ति भी मिलेगी।
    एक मौन और कितने फायदे ।

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