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देख रही हूँ अपनी आँखों ,
युग को करवट बदलते.
कितना शोर था
कीचड़ में उछलते लोग
शोर ,छींटे ,बौखलाहटें ,
कितनी बार ,कितने रूप ;
और हर बार
और,और गिरावट .
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उठा था कभी
एक परिव्राजक का शंखनाद -
"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से,
भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से;
निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।"
झकझोर दिया था जिसने जन-मानस !
वह नरेन्द्र #था .
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धार वही नामाक्षर
मिल गया प्रत्युत्तर .
निकल आया
हाट से, बाज़ार से,
सामान्य ही विशिष्ट बन,
माँ के प्रकाश -स्नान हेतु.
अपरिग्रही जीवन की आरती लिए !
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लक्ष-लक्ष करांकित सहस्रमाली
अश्व-वल्गाएँ सँभाल,
रथ-चक्रों से तमस् विदारता ,
स्याही के धब्बे खँगारता,
रोशनाई घोल लिख दे ,
नये युग का उपोद्घात !
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शमित हों सारे उत्पात ,
निर्मल हो गगन ,वायु ,
क्षिति ,जल-प्रवाह.
जाग उठे नया विश्वास ,
शुभमय हो , मंगलमय ,
अरुणोदय का नया उजास !
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(# नरेन्द्र-स्वामी विवेकानन्द)
- प्रतिभा सक्सेना