रविवार, 19 जून 2016

पितृत्व -

*
नहीं,
मैं नहीं एकान्त निर्मात्री,
इस सद्य-प्रस्फुट जीवन की,
रचना मेरी, आधान तुम्हारा
सँजो कर गढ़ दिया मैंने नया रूप .
प्रेय था!


पौरुष का माधुर्य छलक उठा जब
नयनों में वात्सल्य बन,
जैसे चाँदनी में नहाई बिरछ की डाल,
स्निग्ध कान्ति से दीप्त तुम्हारा मुख!
मुग्ध हो गई मैं .


कृतज्ञ दृष्टि कह गई-
'जहाँ मैं अगुन-अरूप-अव्यक्त रहा,
तुमने ग्रहण किया.
प्रतिष्ठित कर दिया मुझे!
अपने से पार
पुनर्जीवन पा गया मैं,
तुम्हारे रचे प्रतिरूप में! '


सृष्टि का श्रेय आँचल में समाये
मुदित परितृप्ति का प्रसाद,
मिल गया मुझे,
और देहानुभूतियों से परे,
मन की विदेह-व्याप्ति!

*
- प्रतिभा.

सोमवार, 6 जून 2016

लेखन और नारी

*
रचनात्मकता का पर्याय है नारी ,
प्रकृति ने दिया सृजन का वरदान -
नेहामृत से सींच  ,भावनाओं से पाग
नेह-मोह के सूत्रो से संचार
नित नये स्वरूप सजा रंगभूमि पूरे    
 कि अभिनय क्रम टूटे नहीं  ,
 लीला अविराम चले !
*
सब कुछ अनायास ,
सरल-सहज-संगत,
कोई शिकायत नहीं,
मन में प्रतीति लिये
निर्द्वंद्व सहचर  भाव.
नैसर्गिक जीवन.
शान्ति, सहयोग ,अपनत्व आश्वस्ति भरा .    
*
 

    होने लगा पौरुष का भान ,
 सर्वश्रेष्ठ मैं समर्थ .जागा अभिमान
  स्वामी हूँ, कर्ता हूँ ,धरता हूँ भार
 सेवा-सुविधा का अधिकारी विशेष.  .
 नियमन-नियंत्रण के रहें प्रतिमान
 सारी व्यवस्था हो मेरेअधीन
रीति-नीति मान-मर्यादा, व्यवहार
*
शान्ति रहे ,
संसृति न बाधित  हो 
 तुष्टि रहे ,पुष्टि रहे
सुख से समष्टि रहे
चलता रहे गति का  सम  .
समझौता करने में
कौन फ़रक पड़ता है
बात एक ही है 
तुम और मैं मिल हो गये एक - हम ,
*
लेकिन
बात एक कहाँ ?
श्रेय सिर्फ़ स्वामी को मिलता है !
अनुसारी आज्ञा पर चलता है.
भार मैं लिये हूँ,  तुम आश्रय पाती हो
गाती रहो  माँडने सजाती रहो
रहो अनुकूल ,सदा यों ही निभाती रहो,
हो कर समर्पित ,चैन की धुन बजाती रहो .
*
कभी मन मचलता है ,
कुछ कहने देने को अंतस् उबलता है
 मौन नहीं रहता आवेग मुखर होता जब
 बिखर-बिखर जाता  
 कभी चक्की के पाटों सँग ,थकी हुई  रातों में ,
 करुण-मधुर, सुख-दुख के गीत बना
कुछ भी न कह भी बहुत कुछ जताती रही!
 हृदय  भर आये  तो रोती और गाती रही.
हँसा - तभी तो दुर्बलता नाम नारी है .
औरत है ,रोने की आदत है ,
 सोच-समझ कहाँ ,अक्ल से तो अदावत है.
*

एक प्रश्न पूछूँ नर -
कल्पना-कथायें गढ़ लेना है और बात,
 सचमुच संवेदना के साथ निभा पाये क्या ?
 घेर कर दिवारें कभी बना तुम पाये घर ?
शिशु के भिगोये में सोये हो रात भर ?
कन-कन बटोर कभी राँध कर खिलाया,
 भूखे बालक को  कभी नेह भऱ हँसाया ?
लगातार कमियों से जूझे चुपचाप कभी
या कि सब झमेला छोड़ कर गये पलायन 
खोल लिये नये द्वार, नये वातायन?
*
 रोशनी में लाये कौन,
 देखे बिना माने कौन
 सुविधा,और साधन सभी तो तुम्हारे
 ये फैली हुई धरती और  खुला हुआ आसमान.
 किन्तु हर ओर घात ,देखो रे खोल आँख 
 सूचना उसी के लिये -  
 - 'सावधान , सावधान !'    
सच-सच बताओ, अपने समान माना कभी?

व्यक्ति और व्यक्ति का संबंध - पहचाना कभी?
*
कैसा प्रकाशन, हर ओर गिद्ध और बाज़,
केवल अँधेरा पाख ,कहाँ नहीं सौदेबाज़,
 भाँप रहे - कौन चाल चलें, हो जायें निहाल.
शर्तें हज़ार , रपटीली है सारी डगर,
 नारी के लेखन पर ,लगे बड़े मगर-अगर !
 *
- प्रतिभा सक्सेना.

( यह पोस्ट पहले प्रकाशित हुई थी किन्तु किसी त्रुटि के कारण  ग़ायब हो गई अतः पुनः डाल रही हूँ - जो बहुमूल्य टिप्पणियाँ इस पर  अंकित थीं , मुझे दुख अहै कि यहाँ अप्राप्य हैंं .
मैं उनके  लिये  क्षमा प्रार्थी  हूँ .- प्रतिभा. .)