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बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

कहाँ हो !


कहाँ हो ,घनश्याम मन मोहन कहाँ हो !
*
हो कहाँ विषण्ण मन के पार्थ-सारथि,
कर रही  विचलित विरत-पथ हो भ्रमित मति .
देह के दुख -व्याध ,अंतर की तपन के,
 शान्ति-चंदन,नंद के नंदन ,कहाँ हो !
कहाँ हो घनश्याम ,जीवन- धन कहाँ हो !
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ले चलो उस लोक ,जाग्रत हो वृन्दावन ,
शाप-पाप धुलें जनम भर के  अपावन, 
वासनाएं घुल चलें जिस श्याम रँग में ,
हे परम विश्रान्तियों के क्षण कहां हो !
कहाँ हो घनश्याम !
*
अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो ! 
*
कहाँ हो हे कृष्ण,प्राप्य परम कहाँ हो ! !
कहाँ हो घनश्याम !!!

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

मलाला यूसुफ़ज़ई.


*
राख का ढेर समझा तुमने 
जहाँ  दबे पड़े थे  शोले  !
लो ,उड़ी एक चिंगारी  ,
मलाला यूसुफ़ज़ई !
*
हवा चलेगी ,अंगारे दहकेंगे ,
एक नहीं अनगिनत.
मटमैला पट हटा कर,
सुलग उठेंगे एक साथ !
कैसे रोक सकोगे 
लपटों को दहकने से !
*
अकेली नहीं तुम ,
 हम सब तुम्हारे  साथ ,.
हम जो मानते हैं अभिव्यक्ति को 
व्यक्ति का अधिकार और 
औरत को पूरे आकार में खड़े होने का 
हक़दार !
*
मलाला ,
कोटि कंठों की  ,
दबी आवाज़ें खोल दीं तुमने !
ज़मीर जाग उठा .
अब तो बदल डालेंगे  ,
दोहरे पैमाने ये सारे !
पूरे हो कर रहेंगे ,
आँखों के ख़्वाब तुम्हारे !
*