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बुधवार, 13 जुलाई 2016

काँच की चूड़ियाँ -

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स्वर्ण मुक्ता रतन की ठनक है बहुत ,
काँच की चूड़ियों की खनक और है .
मोल उनका बज़ारों में खुल कर लगे ,
पाप इनके लिये  दूसरा ठौर है .
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झिलमिली सी झनक में बिखरती 
लहर सी ,तरंगित तरल-सी मधुर व्यंजना.
रेशमी रंग की पारदर्शी दमक
पर सँभल कर कि कस कर पकड़ना मना .
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टूटने का ,बिखरने का, चुभने का डर
 चूड़ियाँ मौल जायें तो जुड़ती नहीं 
काँच की चूड़ियाँ लिख गईं नाम से 
रत्न-मु्क्ता किसी के हुये हैं कहीं !
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काँच की चूड़ियों में प्रणत स्वर लिये  ,
मान भीनी,सहज भंगिमा भाव की
कुछ लजीली झिझक की निमंत्रण भरी 
मोहमय एक मनु हार  सुकुमार-सी .
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चार दीवार औ' छाँह सिर पर मिले ,
घर बनातीं ,रहो  तुम कि अधिकार से ,
काम रोके बिना ही खनक या छनक
मूड़ अपना जतातीं मुखर नाद से  .
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राग सुन ,बेलने का इशारा समझ ,
लोइयाँ नाचतीं  गोल रोटी बनीं ,
दाल  में तुर्श तड़का झनाके भरा, 
सब्जि़याँ  बिन छनाके के रसती नहीं  . 
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 मिल गईं भाग से तो जतन से रखो   ,
चोट खाकर न चटकें  चुभन से भरें .
 ये असीसों भरी चूड़ियाँ  रँग-रची ,
 नेह-बाती बनी पंथ रोशन करें !
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गुरुवार, 7 जुलाई 2016

कृष्ण या राधा !

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प्रेम की परिकल्पना राधा ,
जहाँ कोई भी न भव बाधा !


भावना सशरीर, मर्यादा अभौतिक,
गहनतम अनुभूति की यह डूब ,
मग्नता का कहीं ओर न छोर.

बिंब औ'प्रतिबिंब दोनों एक ,
 राग की अभिव्यंजना राधा !
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विरह पलती  प्रेम  की गाथा ,
निविड़ उर- एकान्त ने साधा.

सम समर्पण जहाँ दोनों ओर,
शेष रह जाता अरूपित भाव
नाम हो फिर कृष्ण या राधा ! 

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