बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

मीराँ.

ओ, राज महल की सूनी सी वैरागिन ,
ओ अपने मन मोहन की प्रेम-दिवानी ,
ओ मीरा तेरी विरह रागिनी जागी ,
तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

चिर-प्यासे मरुथल की कोकिल मतवाली ,
तू कूक उठी तो गूँजा जग का आँगन !
तेरी वाणी अंतर का स्वर भर छाई ,
तो मुखर हो उटा संसृति का सूनापन !
जिसके प्राणों की करुणा भरी व्यथायें
बन कर वरदान विश्व के नभ में छाईं ,
आनन्द फलों को अबतक बाँट रही है
जो प्रेम-बेलि आँसू से सींच उगाई !
अनुराग भरा तेरा वैरागी जीवन ,
करुणा से प्लावित तेरी प्रणय कहानी !

बस रहा श्याम का रूप नैन मे मन में ,
फिर कैसी झूठी लोक-लाज की माया !
कर दिया हृदय ने पूरा आत्म समर्पण ,
फिर शेष बचा क्या अपना और पराया !
जब आँसू गाने लगे वेदना रोई ,
तो मधुर-मधुर संगीत प्राण ने पाया ,
अविनाशी प्रिय को पाने के पथ पर भी,
तब सभी जगत ने व्यंग्य , किया ठुकराया !,
जीवन के छायाहीन अजाने पथ में ,
जिसके प्राणों की पीर न जग ने जानी !

अब भी तो बाज रहे हैं तेरे घुँघरू
जग के आँगन मे वे स्वर गूँज रहे हैं ,
मनमोहन की वह मीरा नाच रही है .
गीतों में अँतर के स्वर कूक रहे हैं !
तू स्नेह दीप की ज्वलित वर्तिका बन कर
जब अमर ज्योति ले अलख जगाने आई ,
पीयूष स्रोत बन गई व्यथा की गाथा ,
प्रतिबिंब बन गई वह पावन परछाईं !
वरदान बना वह शाप विश्व जीवन को ,
मंगल मय हो तेरे नयनों का पानी !

साधना पंथ की अथख अकेली यात्री ,
तुम मूर्तिमती योगिनी बनी करुणा की ,
चिर-तृषित हृदय की आराधना जगा कर ,
तुम जलो आरती की निष्कंप शिखा सी !
ओ मीरा ,तेरी स्वर लहरी से खिंचकर ,
तेरा चिर-प्रियतम आयेगा,आयेगा ,
चिर- विरह भरी जीवन की दुख-यात्रा पर
वह मधुर मिलन क्षण बन कर छा जायेगा !
ओ चरण कमल की जनम-जनम की दासी,
अविजेय वेदना के गीतों की रानी !
ओ मीरा तेरी विरह रागिनी जागी ,
तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कम लोग ऐसी छाप छोड़ते हैं, आपके बारे में अधिक जानने की उत्सुकता है, आशा है प्रोफाइल में अपने बारे में कुछ और लिखेंगी !
    आपके ब्लॉग को अपने पसंदीदा ब्लॉग में शामिल करके अच्छा लग रहा है !
    शुभकामनायें !

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  2. ओ मीरा तेरी विरह रागिनी जागी ,
    तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

    ..मीरा के बारे में जानने की बहुत उत्कंठा होती थी मुझे.....प्रेम और भक्ति के मामले में मेरी आदर्श हैं wo........चूंकि बहुत डूब के ''मीरा चरित'' पढ़ा है मैंने..कई कई बार दोहराया है और ज़्यादा पढ़ने की इच्छा है......इसलिए ही बस आपकी कविता शब्दों के माध्यम से अंतर में प्रवाहित होती महसूस हुई.........एक एक पंक्ति ने दृश्य उपस्थित किया आँखों के सामने.....
    और आपने जिस विरह वेदना का जिक्र किया अपनी कविता में...उसे शायद इतनी शिद्दत से पढ़ती नहीं...अगर मीरा को न जाना होता......:)
    बहुत बहुत लिखने की इच्छा हो रही है मीरा के लिए......जाने क्यूँ आपकी कविता का स्वाद ज़ेहन के लबों से जाता ही नहीं.......:)
    बहुत प्यारी कविता.......बधाई

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  3. 'प्रेम और भक्ति के मामले में मेरी आदर्श हैं'
    पर तरु,मीराँ का विद्रोह नहीं देखा तुमने ?
    रूढ़ियों से टकराईँ ,समझौता नहीं किया.'मेरा कोई न रोकनहार' कह कर एक राजरानी गृह त्यागकर चल दे और,कोई मनानवेवाला -रोकनेवाला नहीं ! मगन हो कर चली होंगी या सब ओर से मन विरक्ति से भर गया होगा ?
    कोई अपने ऊपर रख कर देखे तो पता चले !

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