*
ओ नारी ,
अब जाग जा,
उठ खड़ी हो !
कब तक भरमाई रहेगी?
मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़,
कब तक दुबकी रहेगी,
परंपरा की खाई में ?
*
चेत जा,
उठ खड़ी हो!
मार्ग मत दे ,
निरा दंभी , मनुजता का कलंक
कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा तेरा
अहंकारी हो कितना भी .
अपने आप में क्या है?
जान ,समझ!
पहचान अपने को ,
सृजन सार्थक कर !
*
किसका भय ?
तू दुर्बल नहीं ,
तू विवश नहीं ,
तू नगण्य नहीं
धरा की सृष्टा,
निज को पहचान!
*
अतिचारों का कैंसर,
पनप रहा दिन-दिन,
विकृत सड़न फैलाता कर्क रोग.
निष्क्रिय करना होगा
तुझे ही वार करना होगा ,
निरामय सृजन के
दायित्व का वास्ता !
*
लोरी में भर जीवन-मंत्र ,
पीढ़ियाँ पोसता आँचल का अमृत-तंत्र ,
तू समर्थ हो कर रह ,
अपनी कोख लजा मत !
*
शीष उठा कर रह
सहज, अकुंठित स्वरूप में .
अन्यथा
विषगाँठ का पसरता दूषण,
और धरती का छीजता तन ,
मृत पिंड सा
टूटता -बिखरता अंतरिक्ष में
विलीन हो जाएगा !
*
बहुत जरूरी है सटीक सुन्दर
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
अनेकानेक धन्यवाद,रवीन्द् सिंह जी ,चर्चा में सम्मिलित करने के लिए.
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनारी की अदम्य शक्ति को जगाती सुंदर प्रभावशाली रचना, वास्तव में अपनी आंतरिक शक्ति को भुलाना ही उसके दुखों का कारण है
जवाब देंहटाएंनारी को उसके अस्तित्व से परिचित कराती सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंजब नारी स्वयं ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारे तो क्या किया जाय । स्वयं ही अपने आप को छलती है । आदमी साहसी होते हुए भी निर्मम अत्यचारों के सामने घुटने टेकती है ।।
जवाब देंहटाएंनारी मन के भाव को बखूबी उकेरा है आपने। नारी विमर्श पर उत्कृष्ट रचना ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
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