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बस,अपने साथ .
इसी आपा-धापी में कितना जीवन बीत गया -
अरे, अभी यह करना है ,
वह करना तो बाकी रह गया ,
अरे ,तुमने ये नहीं किया?
तुम्हारा ही काम है ,
कैसे करोगी ,तुम जानो!
दायित्व थे .
निभाती चली गई,
समय नहीं था कि विश्राम कर लूँ.
गति खींचती रही .
थकी अनसोई रातें कहती रहीं थोड़ा रुको,
कि मन का सम बना रहे .
बार-बार उठती रही ,
सँभलती, अपने आप को चलाती रही.
ध्यान ही नहीं आया -
मुझे भी कुछ चाहिये.
अब रहना चाहती हूँ अपने में ,
कोई आपा-धापी न हो,.
कोई उद्विग्नता मन को न घेरे.
बाहरी संसार एहसानो का बोझ लादता
फिऱ मुझे घेर कर
हावी न होने लगे मुझ पर !
फिर शिकायतों का क्रम न चल पड़े.
पाँव मन-मन भर के, बहुत असहज कर दे मुझे,
अनचाहे व्यवधान नहीं चाहियें अब,
धूप भरी बेला बीत जाने के बाद,
शान्त-शीतल प्रहर,
आत्म-साक्षात्कार के क्षण,
मेरे अपने हैं,
बिना किसी दखल के.
निराकुल मन.
अब -
बस अपने साथ रहना चाहती हूँ !
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बस अपने साथ केवल सोच मे रह जाता है
जवाब देंहटाएंकल के इंतजार मेँ आज भी फिसल जाता है |
वाह वाह वाह! मार्मिक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंज़िंदगी भर ज़िम्मेदारियों का जुआ ढोने के बाद चाहे मर्द हो या औरत, यही चाहता है कि कुछ ज़िंदगी अपने लिए भी जी ले, कुछ वक़्त सिर्फ़ अपने साथ भी रह ले। ऐसा भी ख़ुशक़िस्मत ही कर पाते हैं। आपकी बात में गहरी सच्चाई है।
जवाब देंहटाएंसब कुछ मन के अनुकूल रहने पर भी क्या केवल अपने साथ रहना संभव है ? मन की सच्ची अभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंअपने साथ रहने के लिए पहले खुद से मुलाकात जरुरी है
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२६-१०-२०२२ ) को 'बस,अपने साथ' (चर्चा अंक-४५९२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंउम्रदराज होने के बाद इंसान ऐसा ही सोचने लगता है। बिल्कुल सही।
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