सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

मातृभूमि के वीर जवानों से


(मातृभूमि की रक्षा में सतत तत्पर हमारे वीर जवानों के लिये जब कोई आपत्तिजनक भाषा बोलता है तो अंतर उद्वेलित हो उठता है. इस देश की प्रत्येक माँ के हृदय  में अपने व्रती पुत्रों के प्रति जो भाव उमड़ते हैं उन्हें व्यक्त करने का एक प्रयास है यह कविता ..)

मातृभूमि के वीर जवानों से ....

ज़रा झुको तो वत्स, भाल पर मंगल तिलक लगा दूँ 
उमड़े  अंतर के भीगे  आशीषों से नहला दूँ .
उन्नत भास्वर भाल भानु का जिस पर तेज निछावर 
अंकित कर दूँ वहीं यशस्वी जय के संकेताक्षर .

कृती, तुम्हारी ओर नीति है ,न्याय, मनुजता का सच,
कितना संयम रख तुमने स्वीकारा वीरोचित व्रत.
मेरा दृढ़ दाहिना अँगूठा परसे चक्र तुम्हारा,
रंध्र-रंध्र से फूट चले नव-ऊर्जाओं की धारा .
 ले लूँ  सभी बलायें अक्षत-कण धर दूँ चुटकी भर 

द्विधाहीन मन  जो निश्चय  कर डाले वही अटल है ,
तुम न अकेले साथ  सदा मानव-सत्यों का बल है 
 यहाँ  हमीं को निबटाना है पले हुये साँपों को
 भितरघात करते द्रोही  इन  धरती के पापों को 
 शेष न रहने देंगे अब  ऐसे  पामर इस भू पर .

जननी की ममता तुम पर हो छाँह बनी सी  छाई
बहनों के कच्चे धागों में कितनी आन समाई ,
वीर तुम्हारी प्रिया विकल हो पथ हेरे जब  पल-पल ,
युद्धभूमि में उद्धत बनी जवानी तोड़े रिपुबल 
आज हिसाब चुका लेने का मिला प्रतीक्षित अवसर .

हर संकट में व्याकुल हो धरती ने तुम्हें पुकारा ,
व्रती,तुरत आगे बढ़ तुमने हर-विधि हमें उबारा .
कष्टों भरा विषम जीवन जी बने रहे तुम प्रहरी ,
मातृभूमि के लिये  हृदय में धारे निष्ठा गहरी .
अपने सारे पुण्यों का फल आज लुटा दूँ तुम पर !

कृती, प्रभंजन हार चले चरणों की गति के आगे ,
देख पराक्रम थिर न रहे बैरी का अंतर काँपे .
 मत्त चंडिका झूम उठे  पा  अरिमुंडों की माला,
शत्रु स्तब्ध रह जाय कि किससे आज पड़ गया पाला 
 गूँज रहा हो 'जय-जय-जय' की ध्वनि से सारा अंबर !

सिर ऊँचाकर  लौटो , कुशल मनाएँ यह मन पल-पल ,
नयनों के स्नेहाश्रु करें ओ व्रती , तुम्हारा मंगल  !
फिर दीवाली हो,घर-घर फुलझड़ियाँ  खील-बताशे ,
तुम आओ, यश की गाथायें चलें तुम्हारे आगे .
बिछा हुआ मेरा स्नेहांचल  वत्स, तुम्हारे पथ पर .
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- प्रतिभा सक्सेना

15 टिप्‍पणियां:

  1. देश के वीर सपूतों के नाम एक प्रीत भरी पाती..

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  2. वाह सुन्दर उदगार सुन्दर अभिव्यक्ति ।

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  3. वीरांगनाओं और वीरों के लिए उमड़ा भाव अति उद्वेलित कर रहा है । एक ऐसा प्रवाह जो स्वयं में रोक ले । जिसका आज मजाक बनाया जा रहा है ।बहुत दुःखद है ।

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  4. वीर जवानों के लिए हर भारतीय के मन में यही भाव होना चाहिए ... भितरघातियों का नाश भी ज़रूरी है ... ओजपूर्ण भावों से भरी इस रचना ने सैनिकों के जीवन पर भी प्रकाश डाला है ... जय हिन्द .

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  5. मम्मी!
    इस कविता में एक माँ की नहीं तीन माँओं के स्वर समाहित हैं... पहला आपका जो स्वयं एक माँ हैं, दूसरा उस सैनिक की जननी का और तीसरा जन्मभूमि का. किसी नेता ने (दुर्योग से बिहार के) कहा था कि फ़ौज में तो मरने के लिये भर्ती होते हैं लोग, इसमें अफसोस कैसा... अब उन मूढ़ को कौन समझाए कि "कितना संयम रख तुमने स्वीकारा वीरोचित व्रत."

    मम्मी, आपने साधारण ढंग से और बिना अति-साहित्यिक रंग दिए आपने अपनी बात कही है. लेकिन मुझे (जैसा कि हमेशा आपकी रचनाओं के विषय में अनुभव करता हूँ) यह असाधारण रचना लगी - एक देशभक्त सपूत के लिये जो रंग आपने बिखेरे हैं वह किसी इन्द्रधनुष से कम नहीं. एक एक छंद उस सैनिक को दुआ देता है और अपलक, अहर्निष, अखंड सेवा के व्रत लेने वाले उस व्रती के लिये हर देशवासी के मुख से यही आशीष निकले तो कौन आँख उठाने का दुस्साहस कर सकता है.

    अंत में, यही सोच रहा हूँ कि इस रचना को कोई मधुर धुन और भावुक स्वर मिल जाए तो यह रचना अमर हो जाएगी. ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि यह मेरी मम्मी की रचना है, बल्कि इसलिए कि उन जवानों के लिये कई कविताएँ, गीत और गज़लें तक लिखी गईं हैं, फिर भी ऐसी दुआ और शुभकामना मैंने नहीं देखी, सुनी और पढ़ी.

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    1. बहुत अच्छा लगा तुमने उतने ही मन से पढ़ी ,जितने मन से मैंने लिखी थी.और सलिल ,धुन और स्वर में बाँधने की बात मेरे वश की कहाँ!मेरे पास तो केवल शब्द हैं.तुम्हारा आभार कि तुमने इतना सोचा भी ...

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  6. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 6-10-16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2487 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  7. मेल से प्राप्त-

    'बहुत दिनों बाद अपने जवानों के प्रति इतनी सशक्त आशीर्वादात्मक रचना पढ़ कर सचमुच बहुत प्रसन्नता हुई | आपके शब्दों में मातृ-मय अनुभूति की एक गहरी,स्नेहिल, पर सशक्त गुहार है, एक अधीरता है, एक अपनापन है :
    उमड़े अंतर के भीगे आशीषों से नहला दूं| ....जैसी पंक्तियाँ अभिव्यक्ति की उस अधीरता को सजीव करती हैं|
    और "ज़रा झुको तो वत्स,......" एवं "मेरा दृढ दाहिना अंगूठा..." आपके पूरे स्नेह को आँखों के समक्ष चित्रित कर देते हैं|

    "उन्नत भास्वर भाल भानु का....." और "युद्धभूमि में उद्धत बनी जवानी ....." जैसे छंदांशों में व्यक्त आपकी अद्भुत शैली हिंदी-काव्य के स्वर्ण -युग की याद दिलाती है|

    आपके ये छंद; नेपाली जी की " तू चिंगारी बन कर उड़ री, जाग जाग मैं ज्वाल बनूँ..." दिनकर जी की " ...थामो इसे शपथ लो बलि का कोई क्रम न रूकेगा ...', सुभद्रा कुमारी चौहान की " हैं वीर वेश में किन्तु कंत, वीरों का कैसा हो वसंत..' जैसे बीते युग के छंदों की तरह अग्रणी रहेंगें, स्मरणीय रहेंगें| बहुत बहुत साधुवाद आपको, और अपने जवानों की जाबांजी को याद करने के लिए मेरा व्यक्तिगत सतशः धन्यवाद| '
    सादर
    सुरेंद्र नाथ तिवारी

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    1. जिनके लिये यह कविता लिखी थी ,उन्हीं में से एक ने मेरी उन भावनाओं को समझा ,अनुभव किया ,और अपनी प्रतिक्रिया दी - मेरा लिखना सफल हो गया .
      अपने इन वीरों के प्रति किस माँ की ममता नहीं जागी होगी , और जब वे सामने झुके होंगे तो किसका मन आत्म-गौरव से नहीं भर उठा होगा !
      उन सब का पुनः अभिनन्दन करती हूँ .
      आपका बहुत-आभार कि आपने महत्व दे कर मुझे इतनी तत्परता से सूचित किया .

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  8. प्रतिभा जी, तिवारी जी और बिहारी जी के लिखने के बाद ऐसा कुछ शेष नहीं रहा है , जिसे कहने का मैं साहस करूँ । अपने मन की अनुभूति तो मैं आपको पहले ही मेल पर लिख चुकी हूँ। नेत्रों के समक्ष चित्र सा प्रस्तुत करती इस ओजपूर्ण किन्तु मन को छूने वाला गीत मेरे लिये गूँगे के गुड़
    जैसा है ।एक साथ इतने भाव उमड़ घुमड़ कर आ रहे हैं जिनको अभिव्यक्त
    करने में स्वयं को अक्षम पा रही हूँ । अनुपम एवं अद्भुत है ये गीत !!

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  9. इस कृति के लिए शत-शत नमन. सच में सलिल दा और तिवारी जी के कमेन्ट के बाद कुछ शेष नहीं है कहने को. मन पढ़कर आनंद विभोर हुआ. आभार.

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  10. देर से आने का क्षमाप्रारती हूँ ... कुछ कारण ऐसे रहे आ नहीं सका पर इस रचना और सभी को पढने के बाद लगा की देर से सही पर न आने का क्षोभ मिट गया ... सेनिक और भारत माँ के मन के भाव जैसे शब्द बनकर सागर सामान उछालें मार रहे हों ... ये सच अहि की कुछ और केवल कुछ लोगों के स्वार्थ से मन में ग्लानी भर जाती है पर फिर ऐसी कालजयी रचना पुनः रक्त संचार कर जाती है ...

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