बिलकुल नही सो पाती ,
यों ही बिलखते ,
कितने दिन हो गए !
झपकी आते ही
चारों ओर वही भयावह घिर आता है -
नींद के अँधेरे में अटकी मैं,
पिशााचों का घेरा .
बस में खड़ी बेबस झोंके खाती देह ,
आगे पीछे,इधऱ से उधर से ,उँगलियाँ कोंचते
ज़हर भरी फुफकार छोड़ते बार-बार .
सिमटती देह पर .
अँगुलियाँ नहीं, लपलपाते साँप हैं ये ,
देह से लटके, नर के प्रतीक.
आँखों में गिजगिजी तृष्णा लिये
चीथते हैं अंग-अंग.
चीख निकलती नहीं,जीभ काठ,
हाथ-पाँव सुन्न
दिमाग़ शून्य.
चारों ओर वही सब ,
कहीं छुटकारा नहीं.
देह नुच-नुच कर चीथड़ा ,
हर साँस ज्यों तीर की चुभन .
वीभत्स , घोर यंत्रणा ,
उफ़्फ़ ,कहाँ जाऊँ ?
कैसे पार पाऊँ?
अरे, कोई काट फेंको
इन ज़हरीले साँपों को .
डसते-दाघते रहेंगे ,
नारी देह हो बस
बचपन ,जवानी ,बुढ़ापा
कोई अंतर नहीं पड़ता इन्हें.
घबरा कर आँखें खोल देती हूँ.
समय वहीं थम गया है .
नहीं, नहीं सो सकती,
मुझे नींद से डर लगता है.
*
यों ही बिलखते ,
कितने दिन हो गए !
झपकी आते ही
चारों ओर वही भयावह घिर आता है -
नींद के अँधेरे में अटकी मैं,
पिशााचों का घेरा .
बस में खड़ी बेबस झोंके खाती देह ,
आगे पीछे,इधऱ से उधर से ,उँगलियाँ कोंचते
ज़हर भरी फुफकार छोड़ते बार-बार .
सिमटती देह पर .
अँगुलियाँ नहीं, लपलपाते साँप हैं ये ,
देह से लटके, नर के प्रतीक.
आँखों में गिजगिजी तृष्णा लिये
चीथते हैं अंग-अंग.
चीख निकलती नहीं,जीभ काठ,
हाथ-पाँव सुन्न
दिमाग़ शून्य.
चारों ओर वही सब ,
कहीं छुटकारा नहीं.
देह नुच-नुच कर चीथड़ा ,
हर साँस ज्यों तीर की चुभन .
वीभत्स , घोर यंत्रणा ,
उफ़्फ़ ,कहाँ जाऊँ ?
कैसे पार पाऊँ?
अरे, कोई काट फेंको
इन ज़हरीले साँपों को .
डसते-दाघते रहेंगे ,
नारी देह हो बस
बचपन ,जवानी ,बुढ़ापा
कोई अंतर नहीं पड़ता इन्हें.
घबरा कर आँखें खोल देती हूँ.
समय वहीं थम गया है .
नहीं, नहीं सो सकती,
मुझे नींद से डर लगता है.
*
लाजमी है। लैम्प पोस्ट के रोशनी करने वाले बल्ब फोड़े जा रहे हैं। पहरेदार उनींदे से बीमार नजर आ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसामयिक एवं सत्य चित्रण,जो मन पर सीधे गहरा आघात करता है। भयाक्रांत करता है।
जवाब देंहटाएं"चिंता जायज है" सम सामयिक एवं सटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंझकझोड़ रही है आपकी रचना ...
जवाब देंहटाएंये क्या होता जा रहा है पुरुष को ... ये अहम् नहीं पाशविकता है ... शेम सी झुक जाता है सर अपना ... शर्म आती है खुद को पुरुष समाज का अंग कहते हुए ... डर लगने लगा है ...
समसामयिक कटु परिस्थितियों का सजीव चित्रण ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं, मन को उद्वेलित करती रचना, जो एक नारी अंतस में व्याप्त भीषण असुरक्षा का बोध कराती है। आदरणीय प्रतिभा जी मैंने आपको ज्यादा नहीं पढ़ा, पर आज आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा। मेरी शुभकामनाये ब्लॉग बुलेटिंन के एक दिन के अतिथि बनने पर 🙏🙏🙏🙏🌹💐🌹💐🌹
जवाब देंहटाएंआपकी रचना वर्षों से पढ़ती उद्वेलित होती आ रही थी.. कल आपसे मिलना.. हदप्रद रह गई.. बेहद सुखद पल रहा सामने आपको सुनना
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