रविवार, 23 सितंबर 2012

आत्मज मेरे !

*
मेरे मन में है जो तुम्हारे लिये ,
आत्मज मेरे ,
शब्दों में समा जाये संभव नहीं .
बहुत प्रखर ,जीवन्त वे भाव,
पर भाषा की क्षमता बहुत सीमित है !
*
और प्रशंसा तुम्हारी ,
स्वयं करूँ मैं ?
कभी नहीं कर सकी जो
नहीं होगी  मुझ से .
औरों के मुख से निकली
तुम्हारी सराहना ,
कानों से ग्रहण करना  ,
अधिक सुखदायी है .
*
तृप्त होता है मन ,
आशीष भर कहता है -
यहाँ तक आते-आते पाया जितना ,
आगे बढ़ते  बहुत अर्जित करो ;
जीवन में जो श्रेष्ठ है ,
सुन्दर है ,
प्रिय है ,
वह सब पाने में
सदा समर्थ रहो !
*

बुधवार, 19 सितंबर 2012

नचारी - जय गणेश.


*

जय हो गनेश ,प्रथम तुमका मनाय लेई ,
कारज के सारे ही विघ्न टल जायेंगे !
नाहीं तो देवन के दफ़्तर में गुजर नहीं,
तुमका मनाय सारे काज सर जायेंगे !
*
सारे पत्र-बंधन के तुम ही भँडारी हो ,
हमरे निवेदन को पत्र तुम करो सही,
हमसों पुजापा लेइ आगे बढ़ाय देओ !
बाबू हैं गनेस, तिन्हें पूज लेओ पहले ई !
*
दस चढ़ाय देओ, ई हजार बनवाय दिंगे
कलम की मार बड़े-बड़े नाचि जायँगे ,
उदर बिसाल सब चढ़ावा समाय लिंगे
इनकी किरपा से सारे संकट कटि जाहिंगे !
*
कहूँ जाओ द्वारे पे बैठे मिलि जावत हैं ,
देखत रहत कौन, काहे इहाँ आयो है !
कायदा कनून तो जीभै पे धर्यो है पूरो!
नाक बड़ी लंबी, सूँघ लेत सब उपायो हैं
*
चाहे लिखवार ,तबै लिखन बैठ जाइत हैं
क्लर्की निभात बड़े बाबू पद पायो  है.
वाह रे गनेस, तोरी महिमा अपार
आज तक किसउ से जौन बुद्धि में न हार्यो है!
*
विधना के दफ़्तर के इहै बड़े बाबू हैं
पूजै प्रथम बिना तो काजै न होयगो,
सारी ही लिखा-पढ़ी इनही के हाथ,
जौन उनते बिगार करे जार-जार रोयगो !
*
हाथन में लडुआ धरो , पत्र-पुस्प अर्पन करो ,
सुख से निचिंत ह्वैके जियो जिय खोल के
पहुँचवारे पूत, रुद्र और चण्डिका के है जे,
इनके गुन गान करो, सदा जय बोल के !
(पूर्व रचित)
***

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

भिक्षां देहि !

*
( माँ-भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है: समय का फेर !)

रीत रहा शब्द कोश ,
छीजता भंडार ,
बाधित स्वर ,विकल बोल
जीर्ण  तार-तार .

भास्वरता धुंध घिरी,
दुर्बल पुकार.
नमित नयन आर्द्र विकल,
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां ,
पुत्र ,भिक्षां देहि !'

*
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध.
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,
अव्यक्त हो विलीन.
देखती अनिष्ट वाङ्मयी ,शब्दहीन.
दारुण व्यथा पुकार -
भिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'
*
अतुल सामर्थ्य विगत,
शेष बस ह्रास !
तेजस्विता की आग ,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी,तुम्हारी ,मैं भारती ,
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां,
 पुत्र,भिक्षां देहि'!
*
शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले ,
ऐसे न झिड़को ,व्यवहार से निकालो.
काल का प्रवाह निगल जाएगा
अस्मिता के व्यंजक, अपार अर्थ ,भाव दीप्त,
आदि से समाज-बिंब
जिसमें सँवारे.

मान-मूल्य सारे सँजोये, ये महाअर्घ
सिरधर ,स्वीकारो !
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष -
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि !
पुत्र ,देहि भिक्षां !'
*
फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,
देह दुर्बल ,मलीन भारती निहार रही.
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां ,
पुत्र, भिक्षां देहि !'
*

बुधवार, 5 सितंबर 2012

शिक्षक-दिवस के बाद -

*
मंजु ने आवाज़ दी ,'अरे, डॉ.राय,
पिछले साल तो आपने वाक्आउट दिया कराय !
कहा कि पेपर जा रहा आउट ऑफ़ द कोर्स,
एकदम है ये बेतुका लड़कों को कर फ़ोर्स ।'
*
चलते-चलते रुक गये एकदम .डॉ राय
'हम क्यों जुम्मेदार हैं ,हमने दी थी राय !
लड़कों ने हल्ला किया हमने समझी बात ,
वहाँ बेतुके प्रश्न थे ,कुछ बिल्कुल बकवास ।'
*
'तब फिर तो इस बार वे होंगे ही संतुष्ट ,
पेपर जो था  आपका ,सिद्ध हो गया इष्ट .'
'तो वह भी सुन लीजिये वह भी किस्सा एक .
डॉ.मंजु, खुश हुये हम लड़कों को देख.'
*
पूछा -' क्यों कैसा रहा पेपर अबकी बार ?'
'कौन हरामी था, किया सेट पेपर बेकार '?
दूजा बोला 'परीक्षक साला खाकर भंग,
सारे कोश्चन चर गया,जो चेप्टर के संग.
*
भाषा थी बदली हुई ,समझ आय क्या ख़ाक,?
गधा ,नलायक दे गया हम लोगों को शॉक .'
उठा ठहाका एक फिर, मानी हमने हार .
इस पीढ़ी का किस तरह हो पाये उद्धार !
*
(उपरोक्त में  कुछ शब्दों  पर आपत्ति हो सकती है ,पर वे मेरे अपने नहीं है.उनका प्रयोग ,एक सच है ,जिसे सामने ला देना ही उचित लगा .)
*
 प्रतिभा सक्सेना .

सोमवार, 3 सितंबर 2012

नये संस्करण


(शिक्षक-दिवस पर ) -

*
आज सामने हो मेरे ,
कल नहीं होगे !
तुम्हारे साथ होने का यह काल
जीवन का बहुत सार्थक,
बहुत सुन्दर ,काल रहा !
पढ़ाते हुये और पढ़ते हुये तुम्हें,
निरखती रही अपने ही नये संस्करण,
मेरे परम प्रिय छात्र !
*
कोशिश करती रही
तुम्हें जानने की -समझने की.
अगर बूझ सकी तुम्हें
तो मेरे प्रयास सार्थक .
अन्यथा -
ये उपाधियाँ व्यर्थ ,
प्रयास खोखले,
अध्ययन-अध्यापन मात्र दंभ.
सब निष्फल !
उपलब्धि शून्य !
*
पर मैं देख रही हूँ
कुछ बेकार नहीं गया -
लगातार एक नई समझ
पाते रहे हम-तुम.
मेरे अंतस की ऊर्जा में पके,
अक्षरों के नेह सिझे बीज
सही माटी में पड़े.
इस आत्म का एक अंश तुममें प्रस्थापित,
और मैं निश्चिन्त!
*
तुम्हारे नयनों में पाई
उजास-किरणों की पुलक.
यही था काम्य मेरा !
तुमसे पाया अथाह स्नेह-सम्मान,
अजस्र भाव-प्रवाह .
मेरी उपलब्धि!
सँजोये लिये जा रही हूँ,
गाँठ में बाँध-
मेरा पाथेय यही !
*
संभावनाओं भरे जीवन की
आगत पौध विकसते देख रहे हैं ,
मेरे तरलित नयन !
आज यह अध्याय भी समाप्त -
मेरे तुम्हारे बीच के पाठ
पूरे हुये !
*
मैं जहां तक थी,
तुम्हें ले आई.
अब बिदा !
इस कामना के साथ -
कि आगे का उचित मार्ग
द्विधा रहित होकर ,
तुम स्वयं चुन सको,
और मंगलमय भविष्य
तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो !
*
(पूर्व-रचित)