सोमवार, 16 नवंबर 2020

कायस्थ

 


                                                                 ।।ॐ श्री चित्रगुप्ताय नमः।।


कायस्थ -

श्री चित्रगुप्त का अंशज जो मसिजीवी,विधि का अनुगाता.

पुस्तिका सहचरी,वर्ण मित्र,लेखनि से जनम-जनम नाता, 

जीवन अति सहज,निराडंबर अनडूबा लोभों-लाभों में ,

अनुशासन शिक्षा संस्कार स्वाधीन-चेत रह भावों में.


व्यवहार,आचरण, खान-पान ,काया संसारोचित स्वभाव,

पर अंतर  का अवधूत, परखता अपने ग्राह्य-अग्राह्य सतत,

सब में रह कर भी सबसे ही कुछ विलग भिन्न-सा रह जाता,

इस चतुर्वर्ण में गण्य न जो, कायस्थ वही तो कहलाता !

 - प्रतिभा

(चित्र- गूगल से साभार)

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

लोग

*
  आज फिर एक डायन ,
बाँसों से खदेड़-खदेड़ यातनायें दे ,
 मौत के घाट उतार दी गई ।
 इकट्ठे हुये थे लोग
 यंत्रणाओं से तड़पती
नारी देह से उत्तेजित आनन्द पाने !

खा गई पति को ,
 राँड है !
जादू-टोना कर चाट जाती बच्चों को ,
नज़र लगा कर ,चौपट कर दे जिसे चाहे ,
काली जीभ के कुबोल इसी के !

अकेली नारी !
बेबस ,असहाय !
कौन सुने उसकी ?
कहीं, कोई नहीं !

कोंच रहे हैं अंग-प्रत्यंग,
जितनी दारुण यातना ,
उतनी ऊँची किलकारियाँ !
ख़ून से लथपथ,
मर्मान्तक पीड़ा से
ऐंठता शरीर ठेल-ठेल ,
ठहाके लगाते लोग !
उन्मादग्रस्त भीड़ और
 अकेली औरत !

बदहवास भागती है !
 जायेगी कहाँ !
कहाँ जायगी, डायन ?
दर्दीली चीखों से रोमांचित-उत्त्तेजित
पत्थर फेंक-फेंक हुमस रहे लोग !
प्राणान्तक यंत्रणायें देते
असह्य सुख में
किलकारियाँ मारते लोग !

कौन सी नई बात !
सदियों से हर बरस
यही लीला देखने
 इकट्ठा होते हैं -बड़े चाव से लोग  !

वही पुरानी कथा -
आती है एक नारी,
स्वयं -प्रार्थिता ,
नारीत्व की सार्थकता हेतु ,
पुरुष की कामना लिये !
और शुरू हो जाता है तमाशा !

प्रर्थिता को एक दूसरे के पास फेर रहे
कंदुक सा बार-बार !
(पुरुष कहाँ अकेला ,
सब साथ होते हैं उसके !)
हो गई विमूढ़ , हास्य-पात्र ,
स्वयं-प्रार्थिता !
ऊपर से तिरस्कार की मनोव्यथा !
लोग रस विभोर !
उठ रहा है रोर !

क्रोध -औ'विरोध,
कटु वचनों के कशाघात,
और आत्म-श्रेष्ठता-ग्रस्त पौरुष का वार.
अंग-भंग कर संपन्न महत्-कार्य ,
मनुजता तार-तार!
समवेत अट्टहास !
गूँजते जयकार  !

 मुख विवर्ण-विकृत ,
लिखी पीड़ा अपार,
 ऐंठता देहाकार !
ठहाके लगाते लोग !

रक्त-धारायें बहाता तन ,
घोर चीत्कार करती ,
भागती है वह, 
अति आनन्द से हुलसते
नाच उठते हैं लोग !

 सदियों से,साल-दर साल
यही मनोरंजन होता आया है.,
 उत्सव यही देखने
 अब भी तो आते हैं ,
वीभत्स आनन्द के प्यासे लोग!

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

हम चिर ऋणी ..

 *

प्रिय धरित्री,
इस तुम्हारी गोद का आभार  ,
पग धर , सिर उठा कर जी सके .
तुमको कृतज्ञ प्रणाम !
*
ओ, चारो दिशाओँ ,
द्वार सारे खोल कर रक्खे तुम्हीं ने .
यात्रा में क्या पता
किस ठौर जा पाएँ  ठिकाना.
शीष पर छाये खुले आकाश ,
उजियाला लुटाते ,
धन्यता लो !
*
पञ्चभूतों ,
समतुलित रह,
साध कर धारण किया ,
तुमको नमस्ते !
रात-दिन निशिकर-दिवाकर
विहर-विहर निहारते ,
तेजस्विता ,ऊर्जा मनस् सञ्चारते ,
नत-शीश वन्दन !
*
हे दिवङ्गत पूवर्जों ,
हम चिर ऋणी ,
मनु-वंश के क्रम में
तुम्हीं से  क्रमित-
 विकसित एक परिणति -
 पा सके  हर बीज में
अमरत्व की सम्भावना ,
अन्तर्निहित  निर्-अन्त चिन्मय भावना .
श्रद्धा समर्पित !!!
*
- प्रतिभा.

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

जयति-जय माँ,भारती -

*

शारदा,शंकर-सहोदरि ,सनातनि,स्वायम्भुवी,

सकल कला विलासिनी , मङ्गल सतत सञ्चारती.


ज्ञानदा,प्रज्ञा ,सरस्वति , सुमति, वीणा-धारिणी

नादयुत ,सौन्दर्यमयि ,शुचि वर्ण-वर्ण विहारिणी.


कलित,कालातीत,,किल्विष-नाशिनी,कल-हासिनी

भास्वरा, भव्या,भवन्ती ,भाविनी भवतारिणी


शुभ्र,परम निरंजना,पावन करणि,शुभ संस्कृता

अमित श्री,शोभामयी हे देवि, नमन, शरण प्रदा,


धवल कमलासीन,ध्यानातीत धन्य,धुरन्धरा

शब्दमयि,सुस्मित,स्वरा सौम्या सतत श्वेताम्बरा.


जननि,शुभ संस्कार दो ,दृढ़मति, सतत,कर्मण्य हों

राष्ट्र के प्रहरी बने  जीवन हमारा धन्य हो,

*



गुरुवार, 13 अगस्त 2020

ओ ,बाँके-बिहारी !

 ओ ,बाँके-बिहारी !

[तुम्हारी जैसी ही नटखट,मोहक, निराली विधा, नचारी में तुम्हारी महिमा गा रही हूँ ,इसकी बाँकी मुद्रा तुम्हारे त्रिभंगी रूप से खूब मेल खाएगी. अर्पित करती हूँ ,तुम्हारे श्री-चरणों में यह नचारी-]

*

दुनिया के देव सब देवत हैं माँगन पे ,

और तुम अनोखे ,खुदै मँगिता बनि जात हो !

अपने सबै धरम-करम हमका समर्पि देओ ,

गीता में गाय कहत, नेकु ना लजात हो !

*

वाह ,वासुदेव ,सब लै के जो भाजि गये,

कहाँ तुम्हे खोजि के वसूल करि पायेंगे !

एक तो उइसेई हमार नाहीं कुच्छौ बस ,

तुम्हरी सुनै तो बिल्कुलै ही लुट जायेंगे! 

*

अरे ओ नटवर ,अब कितै रूप धारिहो तुम ,

कैसी मति दीन्हीं महाभारत रचाय दियो !

जीवन और मिर्त्यु जइस धारा के किनारे खड़े,

आपु तो रहे थिर ,सबै का बहाय दियो !

*

तुम्हरे ही प्रेरे, निरमाये तिहारे ही ,

हम तो पकरि लीन्हों तुम छूटि कितै जाओगे !

लागत हो भोरे ,तोरी माया को जवाब नहीं,

नेकु मुस्काय चुटकी में बेच खाओगे !

एक बेर हँसि के निहारो जो हमेऊ तनि ,

हम तो बिन पूछे बिन मोल बिकि जायेंगे ! 

काहे से बात को घुमाय अरुझाय रहे ,

तू जो पुकारे पाँ पयादे दौरि आयेंगे !

*

- प्रतिभा.


शनिवार, 8 अगस्त 2020

शिलान्यास के शुभ अवसर पर -

*

 प्रभु, श्रीराम पधारो!

इस साकेतपुरी में, मन में ,रम्य चरित विस्तारो!

*

बीता वह दुष्काल सत्य की जीत हुई,

नया भोर दे,तिमिर निशा अब बीत गई, 

विष-व्यालों के संहारक तुम गरुड़ध्वजी,

मातृभूमि के पाश काटने, धनुर्भुजी ,

 भानु-अंश, तम हरने को पग धारो !  

*

युग-युग के दुष्पाप शमित हो, रहे शुभम् 

सुकृति-सुमति से पूरित हो तन-मन जीवन 

कुलांगार कर क्षार ,भाल   चंदन धर दो 

राष्ट्र-पुरुष का माथ तिलक से मंडित हो ,

मनुज लोक में पुण्य-श्लोक संचारो!

*

सहस बरस बीते  अँधियाते, टकराते

रहे सशंकित ,पग-पग पर  धक्के खाते,

 इस भू से कलंक चिह्नों को निर्वारो,

परित्राण दो,क्षिति-तल के संकट टारो,

परम वीर ,हे महिमावान पधारो .

*

दुर्मद-दुर्मति का निष्कासन संभव हो 

मिटा दैन्य ,सामर्थ्य नवोर्जाएँ  भर दो ,

भूमा का वरदान ,विश्व में शान्ति रहे 

बाधाएँ हट जायँ न कोई भ्रान्ति रहे,

करुणामय , निज जन के काज सँवारो !

*

कर्मों में रत जीवन ,जब निस्पृह  जीता ,

शीश वहीं पर अखिल विश्व का नत होता -

सिद्ध किया तुमने निज को दृष्टान्त बना ,

दिव्य कर दिया पञ्चभूतमय तन अपना.

आ ,साक्षात् विराजो,  निज लीला धारो!

 अब, श्री राम पधारो !

*

- प्रतिभा.

सोमवार, 8 जून 2020

मैं कविता हूँ -

मैं कविता हूँ --

कविता हूँ  मुक्त विचरती हूँ,मैं मानव होने का प्रमाण ,  
 पहचान बताऊं कैसे मैं ,हर भाव ,रंग में विद्यमान .
अवरुद्ध पटों को खोल,वर्जनाहीन अकुण्ठित बह चलती,
जो सिर्फ़ उमड़ता बोझिल सा, मैं सजल प्रवाहित कर  कहती.  

प्रकटी अरण्य ऋषि-चिन्तन में पाने जीवन का दिव्य मूल,
ऋक्सामयजुर् में प्रकटी बन मानव-प्रज्ञा का धवल फूल .
विश्वानुभूति के स्वर भरती समभाव लिए विचरण करती ,
भावना लोक की वासी हूँ संवेदन में साँसें भरती.

सागर के सीने मे उफान ,फूलों में वर्ण-वर्ण बिखरी,
सरिताओं में लहराई भी  ,निर्झर सी औचक  फूट पड़ी. 
विधना ही प्रथम सिरफिरा कवि, लिख शून्य पटलपर लिपि विचित्र,
मनमौजी,रचता  दृष्य-काव्य चलते-फिरते अनगिन चरित्र.

तापस की करुणा छंद बनी, सात्विक आवेगों  की पुकार, 
कविता का स्रोत बह चला लौकिक जीवन का रस ले अपार .
मैं लोकगीत बन ,धऱती  पर आकाश नया ही रच देती, 
लालित्य राग बिखराता तो,मैं बनी विश्व मोहन बंसी.

दुख में जन्मी अभावमें पल, आँसू से सिंच पल्लवित हुई  
अंतर्सत्यों की व्याप्ति,गिरा की भेंट,सुकृति-साधनामयी,
मैं  युद्ध क्षेत्र में गीता हूँ  उलझे प्रश्नों का समाधान ,
हो जन्म-मरण के आर-पार मैं रही निरंतर विद्यमान . 

होकर विषाद आच्छन्न मनुज उद्विग्न मनस् होता विषण्ण,
 मैं ही  विराग का लेप लगा फूंकती कान में कर्म-मर्म.
 रुक सकती नहीं दिवारों से,मैं हथकड़ियों में और प्रबल ,
शत-शत आयुध कर निष्प्रभाव, रह जाती सरल तरल निश्छल.

जीवन-वेदी पर जो अर्पित ,यश बन  पीछे-पीछे चलती ,
भू- नभ की माप करे यौवन तो रीझ बलाएं मैं लेती. 
पर्वत से फूट निकलती ऐसी व्याकुलता सिरधरे कौन ,
पागल हो जिये और अपनी पीड़ा न कह सके रहे मौन.


कहते-कहते रह जाती किसी महिम की गाथा के कुछ पल 
आगत प्रेमीजन को कोई अनुचित संदेश न करे विकल.
कल्पना सखी का योग माँग कुछ का कुछ करती बात बदल
दुष्यंत शापवश भूल गया था, न  था प्रेम में कोई छल.

सर्पिल राहें चलते-चलते, पा किसी बिरछ की छाँह सघन
जाने क्या-क्या  घिर आता मुझ पर मुँद जाते ये थके नयन 
हाँ ,कभी अकेलेपन में कोई तान विरह की ले लेती, 
पर अंतर के भीगे स्वर,जग के नाम  सुरक्षित कर देती.

अवरुद्ध द्वार खोलूँ उर के, हर वातायन से झाँक सकूँ ,
यह मेरे लिए विहित कि कहाँ कितनी गहराई, आँक सकूँ .
रो लेती बिलखाते शिशु सँग, वेदना देख कर बह आती  
अन्याय देख जल उठती मैं, दुर्धर्ष विपथगा बन जाती.

मीरा सँग गाती विरह-गीत, प्रमदा हित मैं  उर्वशी बनी,
सूरा के माखनचोर सजा,जय में अर्जुन की रथी बनी .  
कल्पना जगा, रच नई सृष्टि, जीवन को रस से प्लावित कर ,
संताप दग्ध मानस को करती स्निग्ध, तरलता भावित कर.

चन्दन में भरती आग ,अस्थियाँ वज्रों में करती परिणत  ,
जल-थल-अंबर में रणित ज्योतिकण अपने स्वर में अंतर्हित  
वाणी की निर्मल धारा हूँ मैं सरस्वती का व्यक्त रूप,
युग-युग की अंतर्धारा बन मैं प्रवहमान ,अविरल,अविरत.

रोना न, प्रेम का दिखा स्वांग ,स्वाहा होना सिखलाती हूँ , 
जीवन-यज्ञों की समिधाएँ अभिमंत्रित करती जाती हूँ .
निमिषों में गिन देती युग को,पर कुछ पल ,सदियों तक गाती,  
कविता हूँ ,रच जीवन्त  चित्र, जीवन के रँग बिखराती हूँ !
*

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

कितने जन्म..

*
मैं उतने जन्म धरूँ तेरी गोदी में ,
तुम बिन बीतें जितनी सुबहें-संध्यायें ........'
उच्छल लहरों में खिलखिल हँसता रह तू
इन साँसों का सरगम तुझको ही गाए,

जाना आसान नहीं है दूर कहीं भी ,
मैं रहूँ कहीं भी लौट-लौट आऊँगी,
तेरे पावन दर्शन का संबल पा कर ,
खारे जल से कलुषों को धो जाऊँगी.

 सम्मोहन से मन बाहर कब आ पाया ,
मृगतृष्णाओँ से प्यास बुझी कब कोई,
इस मानस में जो गहरे उतर समाए  ,
उन सपनों की भी थाह नहीं है कोई 

तू एक प्रेरणा है इस अंतर्मन की,
जो सदा जगाती रही भटकते मन को.
तेरा निरभ्र नभ प्रतिबिंबित प्राणों में
आश्वस्ति सतत देता अतृप्त जीवन को.

श्यामला धरा के हरे-भरे आँचल में
नाचो, मदमस्त धान की बालों नाचो
चिरतृप्ति समेटे अपनी उर्वरता में 
जीवन के अणु-अणु को करुणा से पागो !
*

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

अरी गिलहरी -

अरी भाग मत, रुक जा पल भर कर ले हमसे बात, गिलहरी . 
बना पूँछ को कुर्सी अपनी ,पीपल छैंया बैठ दुपहरी !

इतनी झब्बेदार पूंछ के साथ,बड़ी तू प्यारी लगती .
 बैठी हो तो भोली-भाली बड़े सलीकेवाली लगती
कैसे आहट पा जाती है  बड़े चाव से आते जब हम  
सरसर चढ़ जाती ऊँची शाखों, पर दौड़ लगाती हरदम,
हाथों में ले बड़े ठाठ से खाती दाना और फलहरी.

धारीदार कोट फ़रवाला किससे नपवा कर सिलवाया ,
ये दमदार ,निराला कपड़ा कौन जुलाहे से बुनवाया ?
सजा दिया है बड़ी डिज़ाइनदार और झबरीली दुम से
हमको नाम बता दो जिसने यों पहनाया नेह  जतन से, 
सुन्दर भूरे श्यामल तन पर कितनी प्यारी  रेख रुपहरी .

साफ़ और सुथरा रख  हरदम, झाड़-पोंछ कैसे कर पाती,
चिट्चिट् चिट्चिट् करती करती झट नौ-दो-ग्यारह हो जाती.
चना-चबेना ,कंद-मूल तुझको मिल जाता है सब कुछ तो 
 डाली की अधपकी दशहरी कुतर-कुतर कर गिरा रही क्यों?
बिना संतुलन खोये दुम को खूब नचाती  देह छरहरी.

लंका तक का पुल-रचने में तूने भी तो किया बहुत श्रम ,
तुझे सराहा स्वयं राम ने हाथ पीठ पर फेरा जिस क्षण 
अंगुली की वह छुअन खींचती गई वहाँ रेखाएँ चमचम.
कितना शोभित तब से ही हो गया तुम्हारा नन्हा सा तन
प्यारी सी ,न्यारी सी गिल्लो, जग जाती तू बड़ी सुबह री .
*

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

दिगम्बरी.

कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला ?
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
सब मान लेंगे .
बहुत आसान है  रास्ते से हटाना.
*
हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं ,
खेल रहे हैं अपना खेल !
अकेली औरत ,चीख रही है 
भागेगी कहाँ भीड़ से ?
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग .

सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !
भागी नहीं ,चीखी नहीं ,
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई.
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् ,
लौट पड़ी वह !
नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त.
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर .
'हाय रे ',चीत्कार उठा ,
'मार डाला रे !'
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत .
और  वह दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी.

अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रही थी भीड़ .
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उठी .
उठाया एक और 
भयभीत, भाग रहे हैं लोग .
कर रही है पीछा,
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका .

धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को .
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं .
दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये.
जान लेकर भाग रहे हैं लोग ,
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
अंधाधुंध इधर-उधर .
तितर-बितर .

थूक दिया उसने 
उन कायरों की पीठ पर !
और -
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर .
पता नहीं कितनी देर .
फिर उठी , चल दी एक ओर .

अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !
उधर कुएँ में उतरा आया था मृत शरीर .

दिगंबरा चण्डी को वहन कर सके जो
वहां कोई शिव नहीं था ,
सब शव थे !
*
[एक मनोरंजन: एक कौतुक !
स्त्री के नाक-कान काटते वीरों की जय-जयकार !
 साल दर साल मंचन ,रक्त बहते तन की  भयंकर पीड़ा से  रोमांचित  भीड़ !
मानी हुई बात  -औरत है, अवगुन आठ सदा उर रहहीं -सतत ताड़ना की अधिकारी !
शताब्दियाँ साक्षी हैं इस लीला की !]


शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

देखो न -

 देखो न -
अंततः इन जीवों को पता चल गया 
विस्तृत पटल पर उनका भी पूरा हिस्सा है ,
धरती की नियामतों में,  
वे बराबर के भागीदार हैं.
इस इन्सान ने ,
छीन लिया है,बरजोरी से जो,
अधीन समझ कर सबको.
जो बदल डालना चाहता है ,
सृष्टि के नियम .

 लो,
एक झटका दे, स्वंतत्र हो गए वे.
धरती मुक्त,वायु निर्मल, दर्पण सा जल, 
दिशाएँ दीप्त और गगन उज्ज्वल,
चाँद-तारे खिल उठे .
वनस्पतियाँ लहर-लहर गुनगुनाईं .
अरसे बाद विश्व स्वास्थ लाभ करने लगा . 

पर अब इन्सान क्या करे?
कैसे बचे,
जाए, तो जाए कहाँ ?
भयभीत ,भाग कर
दुबक गया अपनी ही खोह में ,
बन्दीखाने में पड़ा ,
लाचार छटपटा रहा है.

नहीं, अब नहीं!
बदलेगा खुद को,
बदलना पड़ेगा.
सही कहा है -
भय बिन होय न प्रीत!
- प्रतिभा.

रविवार, 22 मार्च 2020

कहाँ मिला इंसाफ़

कहाँ मिला ,
इंसाफ़,आधा-अधूरा रहा .
छूट गया 
सबसे पातकी गुनहगार, 
 उढ़ा दी पापियों ने  
भेड़िये को भेड़ की खाल,
 और छुट्टा छोड़ दिया -
 फिर-फिर घात लगाने के लिए.

वीभत्स  पशु,दाँत निपोरता  
मौका तक रहा होगा . 
खोजो ,कहाँ है 
खदेड़ कर सामने लाओ.


सब से गहरा कलंक ,
इंसानियत पर
 काली छाया डाले
जाने कब तक.
मिटा दो वह  पाप का  अंक,
कि मानवता  सिर उठा कर जी सके!

ओ माँ ,
तुम जो क्षण-क्षण साक्षी बन , 
भोगती रहीं मरणान्तक पीड़ा,
उसके साथ,
तुम्हारे  अभिशाप से त्रस्त ,
नारीत्व-भंजन का  महापापी,
कुकर्म-बोध पाले,
पल-पल दहता  
अनन्त काल तड़पे,
वह जघन्य जीव 
किसी ठौर त्राण न पाए !
*
- प्रतिभा.