गुरुवार, 6 मई 2010

असल के बंद

*
कमल के फूल देखे ?
हुँह..!
हवाई बात अब छोड़ो ,
जो जीवन असलियत में हो ,
चलो ,कविता उधर मोड़ो.
*
किनारा मत करो अब वास्तविक रस से -
असल है फूल गोभी का ,
कि जैसे घाट धोबी का
इसी से पेट पलता ,
ज़िन्दगी का काम सब चलता .
ये नन्हें फूल धनिये के कलात्मक पत्तियाँ उनकी,
बड़ी सुकुमार सुन्दरता अनोखी गंध से तनतीं !
कि पत्ते पीस लो तो चाट वाला स्वाद आ जाए ,
कि रूखी रोटियाँ चटनी लगा कर चटपटा जाएँ .
यही हो स्वाद कविता का !
*
गुलाबों को भुला दो .
फूल सरसों के यहाँ लाओ ,
वसंती फूल हैं उनको सजाओ,
और बस जाओ
उन्हीं तैलीय गंधों में ,
डुबोए शब्द हों सारे .
यही तो मज़ा मौसम का तुम्हें दे जाएंगे प्यारे .
*
रसों की भाप में हो स्वरित
गंध -सुस्वाद भर रुचि कर
इन्हीं का पाक बनता है ,
तभी व्यंजन सँवरता है .
परम परितृप्त करता है .
*
लता सी यौवना क्यों ?
लचकती सहिजन फली बोलो ,
मसालेदार सोंधा रूप फिर-फिर याद आएगा.
कि सब्ज़ी कह कदर मत कम करो ,
तरकारियाँ बोलो
कि मन भी सीझ जाए, रीझ जाएगा .
*
चटक सुर्खी टमाटर की मटर की कचकची फलियाँ,
अरे ये प्याज़ जैसे ताम्रवर्णी आचमन- लुटियाँ ।
लपट-सी गाजरों का रंग खिलाता देख कर पालक ,
चमकते बैंगनों की श्यामता में भक्तिवाला पुट ,
सलोनी भिंडियाँ जब उंगलियों जैसी सुझाई दे .
कि कोई देख कर ही हो न जाए चारखाने चित !
*
कि जाए झूम कवि का मन .
यही सौंन्दर्य के उपभोग का
रसभोग का मौसम.
शकर के कंद का मौसम,
असल के बंद का मौसम !
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