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गूँजी आकुल टेर शोण की , सुन हियरा काँपे
चौंके सारे अपन-पराये, भागे घबरा के ,
माँ की ममता लहर-लहर कर परसे अँसुअन साथ
मैखल पितु का हिरदा दरके कइसन धी रुकि जाय!
2
जुहिला रोवे ,सोनवा पुकारे तोरे पड़ें हम पाँय !
रेवा तो सन्यास लिये, प्रण है - ना करूँ विवाह
पंडित-पुरोहित पहाड़न से जम ,रोकन चहैं बहाव
बिखर सहस धारा बन छूटी अब कह कौन उपाय!
3
राहों में पड़ गय बीहड़ बन माली और कहार ,
नाऊ बारी ,अड़ते टीले, देखे आर न पार .
हठ कर समा गई तुरतै ही गहरा भेड़ा घाट,
ताप हिया में ,नयनों में जल धुआँ-धुआँ,आकाश !(धुआँधार)
4
दासी-दास बियाकुल रोवैं झुक-झुक देवें धोक
वा को कुछू ना भाय. नरमदा ,कहीं न माने रोक
और अचानक अगले डग पर आया तल गहवार
घहराकर नरमदा हहरती जा कूदी अनिवार
5.
वेग धायड़ी कुंड मथे हो खंड-खंड चट्टान ,
रगड़ प्रचंड कठिन पाहन घिस हुइ गए शालिगराम
केऊ की बात न कान सुनावे ,केऊ क मुँह ना लगाय
भाई-बहिना फिर-फिर टेरें रेवा ना सनकाय.
6.
दिसा दिसा की लगी टक-टकी थर-थर कँपै अकास
चित्र-लिखे तरु-बीरुध ठाड़े पवन न खींचे साँस.
मारग कठिन ,अगम चट्टानें वा को कछु न लखाय
धरती पर जलधार बहाती रेवा बढ़ती जाय !
7.
उधर शोण अनुताप झेलता चलता रहा विकल चित,
व्यक्त कभी हो जाता बरसातों की उमड़न के मिस
पार हुए पच्चीस कोस , यों लगा बहुत चल आया ,
गंगा को अर्पित कर दी तब गुण-दोषों मय काया
8.
सुना नर्मदा ने ,पर उर की पीड़ा किसे सुनाए ,
कोई ठौर विराम न पाये जो थोड़ा थम जाए .
व्रत ले लिया, निभाना होता नहीं सदा आसान,
अँधियारे आदिम वन , मारग बीहड़ औ'सुनसान .
9.
जीव जगत की साँसों की धुन छा जाती इकसार,
झिल्ली की झन्-झन् का बजने लगता जब इकतार ,
प्रकृति नींद में डूबी , औँघा जाती सभी दिशाएँ
करुण रुदन के स्वर सुन थहरा जातीं स्तब्ध निशाएँ !
10.
कुछ अधनींदे राही ,सुन लेते हलकी सी सिसकी ,
लगता जैसे रुकी पड़ी है कहीं कंठ में हिचकी.
किसे सौंप दे जल कि अपावन पड़े न कोई छाया.
रेवा रही खोजती ऐसी दिव्य पुनीतम काया !
11.
पिता गरल पायी, वह भी पी गई सभी कड़ुआहट ,
इस जग के जीवन के पथ में है कौन, न हो जो आहत?
कितना लंबा मार्ग और जीवन की उलझी रेखा,
पार किया आ गई नर्मदा, ले कर अपना लेखा !
12.
भृगु कच्छ तीर्थ सीमान्त ,
वहीं पितृ-चरणों में झुक गई क्लान्त .
पा सोमनाथ की नेह दृष्टि सोमोद्भव रेवा हुई शान्त.
पग-पग कर कल्याण, जगत हित करती आई धन्या
उस निर्वाण-प्रहर में सिन्धु बन गई पर्वत-कन्या !
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प्रणाम -
विपुल पश्चाताप में आश्वस्ति तुम प्रयश्चितों सी ,
तुम्हीं शुभ आवृत्ति अंतर्भावना के धारकों सी!
तुम सतत सौन्दर्य के लिपि-अंकनों से पूर क्षिति को,
शाप-ताप विनाशिनी मम वाक् पर आशीष बरसो1
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आदि मकरारूढ़ जीवन-जलधि की तुम दिव्य-कन्या,
शुभ्रता की राशि , कलुष निवारिणी तुम ही अनन्या ,
लो अशेष प्रणाम ,मन-वच-कर्म की सन्निधि तुम्हीं हो,
प्रलय में भी लय न, चिद्रूपे ,सतत ऊर्जस्विनी हो !
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