*
झकोर-झकोर धोती रही ,
सँवराई संध्या,
पश्चिमी घाट के लहरते जल में ,
अपने गैरिक वसन .
फैला दिये क्षितिज की अरगनी पर
और उतर गई गहरे
ताल के जल में .
*
डूब-डूब , मल-मल नहायेगी रात भर .
बड़े भोर निकलेगी जल से .
उजले-निखरे स्निग्ध तन से झरते
जल-सीकर घासों पर बिखेरती ,
ताने लगाते पंछियों की छेड़ से लजाती,
दोनों बाहें तन पर लपेट
सद्य-स्नात सौंदर्य समेट ,
पूरव की अरगनी से उतार उजले वस्त्र
हो जाएगी झट
क्षितिज की ओट !
*
झकोर-झकोर धोती रही ,
सँवराई संध्या,
पश्चिमी घाट के लहरते जल में ,
अपने गैरिक वसन .
फैला दिये क्षितिज की अरगनी पर
और उतर गई गहरे
ताल के जल में .
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डूब-डूब , मल-मल नहायेगी रात भर .
बड़े भोर निकलेगी जल से .
उजले-निखरे स्निग्ध तन से झरते
जल-सीकर घासों पर बिखेरती ,
ताने लगाते पंछियों की छेड़ से लजाती,
दोनों बाहें तन पर लपेट
सद्य-स्नात सौंदर्य समेट ,
पूरव की अरगनी से उतार उजले वस्त्र
हो जाएगी झट
क्षितिज की ओट !
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